Monday, February 24, 2014

‘घंटा’ के कहानीकार से घंटे भर की मुलाकात



उत्‍सव 2011 से जबलपुर में शासकीय इंजीनियिरिंग कॉलेज में पढ़ रहा है। तब से बीच-बीच में एक-दो दिनों के लिए जबलपुर आना होता रहा है। जबलपुर का जिक्र आते ही दिमाग में एक साथ कई नाम उभर आते हैं। जगहों के नाम, व्‍यक्तियों के नाम, साहित्‍य से जुड़े लोगों के नाम। जैसे लाला रामस्‍वरूप रामनारायण का कैलेंडर बचपन से मैं अपने घर में देखता आ रहा हूं।
  
पर सबसे पहले तो भेड़ाघाट के धुंआधार की मनमोहक छवि आंखों में घूम जाती है। फिर छवि उभरती है सेठ गोविन्‍ददास की। फिर सेठ मोहनलाल हरगोविन्‍ददास की मशहूर शेर छाप बीड़ी का बंडल और उसका धु्ंआ वातावरण में फैल जाता है। धुंआ छंटता है तो फिल्‍मों में हंटर चलाने वाले खलनायक और चरित्र अभिनेता प्रेमनाथ और फिर भिगो-भिगोकर शब्‍दों के हंटर मारने वाले हरिशंकर परसाई सामने आ खड़े होते हैं। अपन ने सबसे अधिक किसी को पढ़ा है तो वे परसाई जी ही हैं। लेकिन एक और नाम ऐसा है जिसके बिना जबलपुर अधूरा लगता है। वह हैं कहानीकार ज्ञानरंजन। जानी-मानी साहित्यिक पत्रिका पहलके संपादक। मैं जब भी जबलपुर आता था, मन करता था कि एक बार ज्ञानरंजन जी से जरूर मुलाकात करूं। लेकिन समय की कमी के कारण यह संभव नहीं हो पा रहा था। इस बार कुछ ऐसा संयोग बना कि एक सप्‍ताह से अधिक समय के लिए जबलपुर में हूं।

इतवार को मैंने नेट पर पहल पत्रिका के एक पुराने अंक से ज्ञान जी का लैंड लाइन नंबर लिया। फोन लगाया। उधर से एक भारी आवाज गूंजी। मैंने नमस्‍कार कहते हुए अपना नाम बताया।
-    हां कहिए..।
-    मैं ज्ञान जी से बात करना चाहता हूं।
-    बोल रहा हूं।
-    आपने पहचाना।
-    हां..हां पहचान लिया।
-    मैं इन दिनों जबलपुर में हूं और आपसे मिलना चाहता हूं।
-    कब तक हो।
-    28 तक।
-    मैं हर रोज मालवीय चौक के सुपरबाजार कॉफी हाउस में सुबह साढ़े ग्‍यारह से एक बजे तक रहता हूं। आप कल वहीं आ जाओ। और कल न आ सको, तो मंगलवार को आ जाओ। एक मुलाकात तो वहीं कर लेते हैं, फिर अगर अलग से समय चाहिए होगा तो बात कर लेंगे।
-    जी बेहतर है। मुझे पहल के अंक भी चाहिए।
-    पुराने अंकों की प्रतियां अब नहीं हैं, नया अंक पुस्‍तक मेले में रिलीज हो रहा है। मैं देखता हूं अगर पुराना एकाध अंक होगा तो साथ लेता आऊंगा।
पहल के पन्‍द्रहवें अंक(1982) से मैं उसका नियमित पाठक रहा हूं। 2008 में 90 वें अंक के प्रकाशन के बाद ज्ञान जी ने पहल का प्रकाशन स्‍थगित कर दिया था। लेकिन पिछले बरस प्रकाशन फिर से आरंभ हुआ है। विश्‍व पुस्‍तक मेले में 95 वां अंक आया है।

बाएं ज्ञानरंजन जी  और दाएं कहानीकार राजेन्‍द्र दानी : फोटो - अरविंद
सोमवार (24 फरवरी,2014) की सुबह ठीक साढ़े ग्‍यारह बजे मैं उत्‍सव के साथ मालवीय चौक के इंडियन कॉफी हाऊस पहुंचा। उत्‍सव मुझे बारह छोड़कर चला गया। अंदर गया। बड़े हॉल में नजर दौड़ाई तो पाया कि रिसेप्शन काउंटर के पास वाली मेज पर चार लोग जमा हैं। ज्ञान जी को फोटो में कई बार देखा था, सो उनकी दाढ़ी वाली शक्‍ल तो जेहन में थी। लगा कि ज्ञान जी जैसे कोई व्‍यक्ति वहां बैठे तो हैं, पर उनकी पीठ मेरी ओर थी, पर बगल से वे ज्ञानजी जैसे ही लग रहे थे। यह दुविधा आधे मिनट से भी कम समय रही होगी। दरवाजे के खुलने की आहट पाकर उन्‍होंने पलटकर देखा था। मेरे नमस्‍कार करने पर वे उठ खड़े हुए। पास की एक कुर्सी खींचकर उन्‍होंने मुझे बैठने का इशारा किया। बाकी तीन लोगों से परिचय कराया। कहा, ये एकलव्‍य और चकमक के संस्‍थापकों में से हैं और आजकल अज़ीम प्रेमजी विश्‍वविद्यालय में हैं। वहां बैठे साथियों में चित्रकार,फोटोग्राफर, पत्रकार आदि थे। ज्ञान जी से अपना ऐसा परिचय सुनकर अच्‍छा लगा। वास्‍तव में ज्ञान जी से परिचय उतना ही पुराना है, जितने एकलव्‍य और चकमक हैं। इसलिए वे एकलव्‍य और चकमक को उनके आरंभ से जानते हैं। 1982 में मैं प्रगतिशील लेखक संघ की होशंगाबाद इकाई का सचिव था, तब ज्ञान जी प्रगतिशील लेखक संघ की मप्र इकाई के महासचिव थे। इस कारण से भी उनके साथ परिचय था। और एक नवोदित लेखक और संपादक का रिश्‍ता भी था। उन दिनों ज्ञान जी के साथ एक अपनी एक कविता को लेकर लंबा पत्र व्‍यवहार चला था। इसका जिक्र मैंने अपने पहले कविता संग्रह वह, जो शेष है में भी किया है। 

ज्ञान जी ने मुस्‍कराकर पूछा, अब भी कविताएं लिखते हो। संभवत: उनकी मुस्‍कराहट की स्‍मृति में वह पत्र व्‍यवहार रहा होगा। पिता’, फेंस के इधर और उधर तथा घंटा जैसी प्रसिद्ध कहानियों के रचियता के सामने मैं बैठा था।

हमारी अनौपचारिक बातचीत शुरू हो गई थी। सुबह ही मैंने फेसबुक पर पहल के 95 वें अंक पर कुमार अंबुज की टिप्‍पणी देखी थी। मैंने ज्ञान जी से इसका जिक्र किया। जितेन्‍द्र भाटिया की एक श्रंखला पहल में चल रही है इक्‍कीसवीं सदी की लड़ाईयां। इस क्रम में अंधेरे के बाद शीर्षक से आलेख में तेल कंपनी 'शेल' और खासतौर पर खनिज कंपनी 'रियो टिंटो' को लेकर विपुलता से चीजें सामने रखी हैं। इस बहाने पहल में प्रकाशित हो रही सामग्री पर ज्ञान जी से बात शुरू हुई। 94 वें अंक में प्रकाशित लाल्‍टू भाई की कविताएं और उस पर शिरीष कुमार मौर्य के महत्‍वपूर्ण लेख का जिक्र भी हुआ। इसी क्रम में अन्‍यान कारणों से चर्चित बंगलौर के एक युवा कवि का जिक्र भी निकला। उससे जुड़े विवाद की जानकारी उन्‍हें नहीं थी। इस बहाने नए लेखक, उनके लेखन पर चर्चा हुई। ज्ञान जी ने कहा इधर कविता, कहानी के अलावा वैचारिक लेखन भी सामने आया है। नए लेखकों को पहचानने, उन्‍हें मौके देने तैयार करने की जरूरत है।
  
मैंने ज्ञान जी कहा कि मैं जब चकमक संपादित कर रहा था, तब से मेरा आग्रह है कि पहल जैसी पत्रिकाओं में बच्‍चों के लिए लिखे जा रहे साहित्‍य पर भी नियमित चर्चा होनी चाहिए। पिछले दिनों पुस्‍तक मेले में कथन की संपादक संज्ञा उपाध्‍याय से हुई बातचीत का जिक्र भी मैंने किया। ज्ञान जी बोले, पहल में हम जरूर ही यह करना चाहेंगे, लेकिन कोई इसकी जिम्‍मेदारी ले। फिर अगले ही क्षण बिना किसी भूमिका के ज्ञान जी बोले, ‘राजेश अब आप पहल के लिए लिखो। 
  
मैंने ऐसे प्रस्‍ताव की अपेक्षा नहीं की थी। मैंने अपने को संभाला और बहुत संकोच के साथ हां में सिर हिलाया और कहा, कोशिश करता हूं। (ऐसे मौकों पर मुझे अनिल(सद्गोपाल)भाई का सबक याद आ जाता है। वे कहते हैं, अगर तुम्‍हें कोई काम न आता हो तो भी उसे करने के लिए मना मत करो। कहो कि कोशिश करोगे। तभी अवसर पैदा होंगे।) ज्ञान जी ने आगे कहा, शैली क्‍या होगी, उसकी सामग्री क्‍या होगी, कितने पेज होंगे यह सब आपको ही तय करना है। 
  
मैंने प्रवेशांक से लेकर 198 वें अंक तक चकमक का संपादन किया है। हर अंक के संपादन के साथ जुड़े हुए कुछ किस्‍से हैं, कहानियां, संस्‍मरण, सबक हैं। जब से मैं बंगलौर गया हूं तब से मेरे मन में इन्‍हें क्रम से लिपिबद्ध करने की बात घुमड़ रही है। थोड़ी कोशिश भी की। लेकिन फिर बात आगे नहीं बढ़ी। इसके लिए एक ब्‍लाग बनाने का भी सोचा। फिर लगा कि अगर कहीं इसके प्रकाशन का कोई सिलसिला जमे तो मुझ पर लिखने का दबाव होगा। आज लगा कि यह अच्‍छा अवसर है। मैंने ज्ञान जी के साथ यह विचार साझा किया। सुनते ही वे बोले, बहुत बढि़या। बिलकुल लिखो। यह एक तरह से चकमक का इतिहास लिखने जैसा होगा, दस्तावेजीकरण भी होगा। इसमें चकमक होगी, आप होंगे और आपके संपादन से जुड़ी बातें भी होंगी। हां यह ध्‍यान रखना कि जो लिखो उससे नए संपादकों को कुछ मदद मिले।
   
ज्ञान जी इसे पहल के आगामी अंक से ही आरंभ करना चाहते हैं। उन्‍होंने वादा किया है तो मैं भी अपना इरादा पक्‍का कर रहा हूं। अपने आपको फिर से जमाने का इससे बढि़या अवसर शायद न मिले।

कॉफी हाऊस में लगातार लोगों का आना-जाना जारी था। लोग आ रहे थे, ज्ञान जी यथायोग्‍य अभिवादन कर बैठते जा रहे थे। पहले से बैठे हुए साथी विदा लेते जा रहे थे। सामने मेज पर एक प्‍लेट में सिकी हुई ब्रेड रखी थी और उसके साथ चाय भी मौजूद थी। इस बीच कथाकार राजेन्‍द्र दानी भी पहुंचे। उनसे भोपाल में एक-दो मुलाकातें हुई हैं। वे हाल ही में मध्‍यप्रदेश विद्युत मंडल से सेवानिवृत हुए हैं और जबलपुर में ही रह रहे हैं। पहल के संपादन से जुड़े हैं। फोटोग्राफर अरविंद भी वहां थे। अरविंद जी के पिता श्री शशिन ने मुक्तिबोध की वह तस्‍वीर ली है जिसमें वे बीड़ी सुलगा रहे हैं। एक अन्‍य प्रसिद्ध फोटोग्राफर रजनीकांत उनके चाचा हैं। यहां जो तस्‍वीर है वह मेरे कैमरे से उन्‍होंने ही ली है।

फिर घर-परिवार की बातें हुईं। उन्‍होंने उत्‍सव का फोन नंबर खुद मांगा और कहा कि कभी यादव कालोनी की तरफ जाना हुआ तो घर आऊंगा। मैंने नीमा का जिक्र किया और कहा कि प्रकाशकांत उनके बड़े भाई हैं। मैं उन्‍हें भी आपसे मिलवाने के लिए यहां लाना चाहता था। यह सुनकर बहुत खुश हुए और बोले कि, अरे नीमा जी से कहो कि कभी घर आएं, हमारी श्रीमती सुनयना जी से भी मिलें। चलो मैं ही किसी इतवार को फोन करके बुला लूंगा। 
  
उत्‍सव मुझे लेने आना वाला था, मैंने उसे फोन किया। वह आया तो ज्ञान जी से उसका परिचय करवाया। ज्ञान जी ने लगभग एक स्‍थानीय अभिभावक के तरह कहा कि हम लोग यहां हैं, कभी भी कोई मदद की जरूरत हो तो बताना। राजेन्‍द्र दानी और अरविंद जी ने भी उनकी बात का समर्थन किया। 

ज्ञान जी पहल 92 के एक प्रति मेरे लिए ले आए थे। मैंने पहल के लिए अपनी वार्षिक सदस्‍यता राशि ज्ञान जी को दी। पता मैंने मेल से भेजने का वादा किया था। असल में बंगलौर का पता इतना लंबा-चौड़ा है कि उसे अंग्रेजी में लिखते हुए अपन हर बार गड़बड़ा जाते हैं, इसलिए बेहतर होता है कि मेल से दूं। अंग्रेजी में देना इसलिए अनिवार्य है कि वहां हिन्‍दी में लिखे पते की डाक पहुंचने में बहुत अधिक समय लगता है। बहरहाल घर आकर मैंने ज्ञान जी को मेल किया।

आज सुबह उनका फोन आया यह बताने के लिए कि मेल मिल गया है और साथ ही यह भी याद दिलाने के लिए मैंने जो लिखने का इरादा किया है, उसे याद रखूं , क्‍योंकि पहल के अगले अंक से वे उसे आरंभ करना चाहते हैं। मेरे मेल में पते के साथ स्‍थायी रूप से मेरे ब्‍लागों की लिंक भी है। ज्ञान जी ने सरसरी तौर पर वे ब्‍लाग भी देख डाले हैं और बताया कि मेरा थोड़ा और परिचय उन्‍हें मिल गया है।

मैंने सोचा था कि इस बार समय मिलेगा तो हम सब यानी कबीर,उत्‍सव और नीमा भेड़ाघाट जाएंगे। लेकिन अचानक बदले हुए मौसम ने इस योजना पर ओले गिरा दिए। फिर भी सतत्‍तर साल के ज्ञान जी से हुई मुलाकात ने इस बार की जबलपुर यात्रा को अविस्‍मरणीय तो बना ही दिया है।
                                               0 राजेश उत्‍साही         

1 comment:

  1. साहित्य ऐसे ही पल्लवित होता रहे सभी स्थानों पर, सुगंध बन आप लोगों की सहायता से।

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जनाब गुल्‍लक में कुछ शब्‍द डालते जाइए.. आपको और मिलेंगे...