कहते हैं कि
दुनिया एक रंगमंच है, जीवन एक नाटक है और हम उसके पात्र हैं। आज विश्व रंगमंच
दिवस पर ऐसे ही सोचने लगा कि सचमुच के रंगमंच से अपना कितना नाता रहा है।
पहली घटना
याद आई जिसमें अपन नहीं अपनी पतलून शामिल थी। तीसरी कक्षा में पढ़ते थे। गांव में
रासलीला होती थी। एक दिन उसके बीच में बच्चों का भी एक नाटक रखा गया। बात मुरैना
जिले के रघुनाथपुर यानी इकडोरी रेल्वे स्टेशन की है। अपने को तो कोई रोल नहीं
मिला। हां, बड़े स्टेशन मास्टर शर्मा जी की बेटियां नाटक में भाग ले रहीं थीं।
वे साथ ही पढ़ती थीं। उनमें से एक को सफेद पतलून पहननी थी। उनके पास नहीं थी। अब
उनके साइज की पतलून कहां से आए। संयोग से अपने पास थी। जो पिताजी
(छोटे स्टेशन मास्टर थे) को हर साल मिलने वाली सफेद यूनीफार्म से बनवाई गई थी। तो
इस तरह हम नहीं हमारी पतलून नाटक में शामिल होकर मंच पर पहुंची और हम दर्शकों में।
1971 में
भारत-पाक युद्ध के बाद देशभक्ति का जज्बा जैसे उफान पर था। सबलगढ़ की शासकीय माध्यमिक
शाला, गढ़ी का वार्षिक समारोह था। शाला की सातवीं कक्षा में अपन भी थे। हमारी
कक्षा को नाटक की जिम्मेदारी दी गई। उन दिनों की जानी-मानी पत्रिका ‘साप्ताहिक
हिन्दुस्तान’ में बच्चों के पन्ने पर एक छोटा-सा नाटक प्रकाशित हुआ था जो
भारत-पाक युद्ध की पृष्ठभूमि पर ही था। मैंने उस नाटक का प्रस्ताव रखा और वह मान
लिया गया। उसमें मेरा रोल एक ऐसे सैनिक का था, जो युद्ध में लड़ते-लड़ते मारा जाता
है। पर अच्छी बात यह थी कि इस नाटक का संदेश था कि मारा कोई भी जाए खून मानवता का
बहता है, इसलिए युद्ध नहीं होना चाहिए।
तीसरा मौका
आया जब पढ़ाई खत्म करके कुछ काम-धाम करने लगे। 1983 के आसपास की बात है। नुक्कड़
नाटक उस समय एक आंदोलन का रूप ले चुका था। पिपरिया के कुछ साथियों का एक समूह था,
जो जगह-जगह नुक्कड़ नाटक करता था। जब वे होशंगाबाद पहुंचे तो वहां कृश्न चंदर की कहानी पर आधारित गुरुशरण सिंह
के नाटक ‘गड्ढा’ के मंचन का कार्यक्रम था। एक ‘गड्ढे’ में एक बंदा गिर जाता है। एक
मीडिया का बंदा गड्ढे के बाहर खड़ा होकर गड्ढे में गिरे बंदे से उसकी प्रतिक्रिया
पूछता है। गड्ढे में गिरे हुए बंदे अपन थे। पर अफसोस यह कि यह रिहर्सल तक ही सीमित
रहा। अपरिहार्य कारणों से यह मंचित नहीं हो पाया।
1984 में
केरल शास्त्र साहित्य परिषद ने एक जनविज्ञान जत्था देशभर में निकाला था। गैस
त्रासदी की घटना के कारण भोपाल उन दिनों चर्चा का केन्द्र था। संगठनों में एकलव्य
भी शामिल था। जाथा में अन्य सांस्कृतिक गतिविधियों के अलावा नाटक और नुक्कड़
नाटक भी शामिल थे। शिक्षा व्यवस्था पर केन्द्रित एक नाटक में मेरा भी एक रोल था।
भोपाल में इसके दो मंचन हुए। वहां के भारत हैवी इलेक्ट्रिकल लिमिटेड के सांस्कृतिक
सभागार में जो मंचन हुआ उसमें हम भी थे। हालांकि रोल एक मिनट से ज्यादा का नहीं
था।
उत्सव बाएं से पहला |
बरसों बाद छोटे
बेटे उत्सव ने अपने स्कूल के वार्षिक कार्यक्रम के एक नाटक में सूत्रधार और अभिनेता
की भूमिका निभाई और श्रेष्ठ अभिनय का पुरस्कार भी जीता। नाटक दूल्हों के लिए लगने
वाली बोली की थीम पर आधारित था।
0 राजेश उत्साही
सच में हम सब कठपुतली हैं।
ReplyDeleteसत्या वचन, हम सब कलाकार हैं, कुछ कलाबाज़ भी।
ReplyDeleteबहुत अच्छी लगी बचपन की यादे .. बच्चों की बचपन की यादें जिंदगी में बहुत बार सुखद मिठास घोल लेती हैं..
ReplyDeleteसच है दुनिया एक रंगमंच है और हम सभी ऐसे पात्र जिसे आजीवन बिना पटकथा हर वक़्त अभिनय करना है. बीते वक़्त को याद करना सुखद एहसास देता है. शुभकामनाएँ!
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