एकलव्य,भोपाल के आंगन में : बाएं से राजेश उत्साही, कुमार अंबुज और सुशील शुक्ल |
ऐसा नहीं है कि फेसबुक हमेशा ही निराश करता हो।
बुधवार 5 फरवरी की रात 12 बजे संदेश बाक्स में कवि मित्र कुमार अंबुज
का संदेश नजर आया-
- अभी कहां हो, दिल्ली, बैंगलोर
या भोपाल।
- अभी 8 की शाम तक भोपाल में ही हूं!
- मैं परसों यानी 7 को बाहर जा रहा
हूँ। तुमसे कल दोपहर में मुलाकात हो सकती है। यदि तुम्हारे लिए भी संभव हो तो तुम
मुझे फोन कर सकते हो (फोन नंबर दिया)।
उन्होंने 5 की रात
10 बजे संदेश भेजा, जो मैंने रात को 1 बजे देखा। मैंने लिखा-
- कोशिश करता हूं।
6 की सुबह फोन लगाया। तय हुआ कि दो बजे एकलव्य
के कार्यालय में मिलते हैं। दरअसल उन्हें एकलव्य के कार्यालय के पास ही किसी अन्य
मित्र से भी मिलने आना था। हमारी पिछली मुलाकात पिछले बरस मई के आसपास की थी।
लेकिन तब बस सलाम-दुआ भर हुई थी। मौका था अशोक वाजपेयी जी के कविता पाठ का।
तो ठीक 2 बजे वे एकलव्य से काई पचास कदम दूर
अपनी कार से उतरकर फोन पर मुझसे मुखातिब थे। मैं एकलव्य के बाहर निकला तो मैं
उनकी पीठ देख पा रहा था। मैंने उन्हें पलटने का संदेश दिया और फिर हम आमने-सामने
थे। उनकी कार सड़क के उस पार थी। मिलते ही उन्होंने कहा, सबसे पहले तो मैं तुम्हें अपना नवीनतम कविता
संग्रह भेंट करना चाहता हूं। कविता संग्रह कार में रखा है, मैं लेकर आता हूं। मैं भी उनके साथ ही हो
लिया। थोड़ी ही देर पहले कबीर के साथ मोटरसायकिल पर आते हुए मैंने ट्रेफिक पुलिस
की क्रेन-वेन देखी थी, जो सड़क पर खड़ी
गाडि़यों को उठाकर ले जाती है। मैंने सलाह दी कि बेहतर होगा, आप
अपनी कार एकलव्य के बाहर ही लगा लें,
सुरक्षित रहेगी।
उन्होंने मेरी सलाह पर अमल किया। हम दोनों कार
में बैठे, पचास कदम का फासला तय किया। कार में उन्होंने
अपना संग्रह ‘अमीरी रेखा’
निकाला, उस पर जो दो शब्द लिखे, वे उनकी किसी कविता से कम नहीं हैं। कुमार
अंबुज ही मित्रों को ‘प्राचीन’ कहने का मुहावरा न केवल गढ़ सकते हैं, बल्कि कहने का जोखिम भी उठा सकते हैं। प्रिय
और प्राचीन की जुगलबंदी गुजर चुके समय को फिर से देखने का एक नया नजरिया भी देती
है।
कुमार अंबुज 1983 के आसपास के मित्र हैं। चकमक
काल में उनके साथ लगातार पत्र व्यवहार होता रहता था। धीरे-धीरे वह खत्म हो गया।
पर अंबुज अपनी कविताओं और उन पर हो रही चर्चाओं के जरिए आसपास बने ही रहते थे। और
हम चकमक के माध्यम से उनकी स्मृति में। चकमक उनके घर में नियमित रूप से पढ़ जाती
थी, और आसपड़ोस में भी। सच तो यह है कि वे आज भी
चकमक के पाठक हैं। (और जल्द ही पुन: उसके लेखक भी बन जाएंगे। बरसों पहले मैंने
उनकी एक कविता चकमक में प्रकाशित की थी।)
हम दोनों एकलव्य कार्यालय के छोटे से लॉन में
दो पुरानी कुर्सियों पर पसर गए। अंबुज जिस कुर्सी पर बैठे थे, वह वही थी,
जिस पर लगभग 15 बरस तक मैं बैठता रहा था। बात शुरू हुई घर,परिवार,बच्चों, कच्चों से,नौकरी,बंगलौर जाने के
प्रकरण से। कुछ देर बाद सुशील शुक्ल भी हमारी बातचीत में शामिल हो गए। और फिर
जैसा कि होता है, बात निकलती है तो दूर तलक जाती है।
लेखक का अधिकार, बिना अनुमति और बिना मानदेय या सुमुचित मानदेय के रचना का प्रकाशन, प्रकाशन की सूचना न देना, विभिन्न साहित्यिक कार्यक्रमों में आयोजकों
द्वारा किया जाने वाला व्यवहार आदि जैसे विषयों पर हम एक-दूसरे के अनुभव और
चिंताएं साझा करते रहे।
मैंने पूछ लिया कि आजकल आपकी दिनचर्या कैसी
रहती है।
अंबुज बोले,
अब एक सेवानिवृत व्यक्ति होने के नाते पहले की तरह हर काम की हड़बड़़ी नहीं रहती।
सुबह सोकर उठने से लेकर नहाने और खाने तक में आराम और इत्मीनान रहता है। इतना इत्मीनान
की अपनी पसंद का नाश्ता भी रसोई में जाकर खुद बना लेते हैं। पढ़ना-लिखना तो खैर
चलता ही है, इन दिनों वे दुनिया भर की अच्छी फिल्में (ऑफ
बीट सिनेमा) देखने के ‘पीछे पड़े’ हुए हैं। ‘पीछे
पड़े’ इसलिए
कि पहले उनको ढूंढना, फिर नेट से
डाउन लोड करना और देखना। और पीछे पड़ने का जुनून ऐसा कि लगभग हर रोज एक फिल्म देख
डालते हैं। दिसम्बर में किसी संदर् में उन्हें सूझा कि ‘हिटलर’
पर केन्द्रित या उसके ईदगिर्द घूमती फिल्मों को देखा जाए। वे अब तक ऐसी लगभग
15-20 फिल्में वे देख चुके हैं। फिल्में खोजने के लिए उन्होंने भोपाल की
ब्रिट्रिश लायब्रेरी का भी उपयोग किया। इन फिल्मों की जानकारियां खोजते हुए वे कई
अन्य किताबों तथा कवियों से भी परिचित हुए। उन्होंने जो नाम आदि बताए उन्हें उस
समय मेरे लिए याद रखना तो कम से कम मुश्किल था,
इसलिए उनके गलत-सलत या आधे-अधूरे नाम बताऊं,उससे
बेहतर है कि अगर आपकी रुचि हो तो आप सीधे ही अंबुज जी से पूछ लीजिए। पर हां, इस बातचीत में ही यह निकला कि वे संदर्भित कवि
की कविताओं पर चकमक में लिखने का प्रयास करेंगे।
लगे हाथ मैंने पूछ लिया कि क्या इन फिल्मों पर
कोई आलेख या समीक्षा आदि लिखने का भी इरादा है? फिलहाल तो उन्होंने इससे इंकार किया...पर कहा
कि सोचेंगे। मैंने नहीं पूछा कि नया कविता संग्रह कब आ रहा है। हां, पिछले दिनों उनकी कविताओं की नकल और उस पर चले
विवाद को लेकर हल्की सी चर्चा जरूर हुई।
शिक्षा से संबंधित किताबों की बात चली, तो बात करते करते हम एकलव्य के ‘पिटारा’ में चले गए। जाहिर है वहां से
किताबें खरीदे बिना बाहर निकलना संभव नहीं होता। सो अंबुज जी ने किताबें खरीदीं।
जैसा
उन्होंने कहा था कि आजकल उन्हें किसी काम की जल्दी नहीं होती है, सो हमारी मुलाकात भी आराम से ही चलती रही। लगभग दो घंटे हम तीनों गपियाते
रहे और फिर एकलव्य के मेस में बनी चाय पीकर इस गप्पगोष्ठी का समापन किया। अब
अगली मुलाकात तक हम लोग एक-दूसरे के लिए और अधिक प्राचीन हो चुके होंगे।
अंत में उनके इसी संग्रह से एक कविता-
कोशिश : कुमार अंबुज
कोशिश : कुमार अंबुज
कही जा सकती हैं बातें हज़ारों
यह समय फिर भी न झलकेगा पूरा
झाड़ झंखाड़ बहुत
एक आदमी से न बुहारा जाएगा
इतना कूड़ा
क्या बुहारूँ
क्या कहूँ, क्या न कहूँ ?
अच्छा है जितना झाड़ सकूँ,झाडूँ
जितना कह सकूँ, कहूँ
कम से कम चुप तो न रहूँ।
0 राजेश उत्साही
यह समय फिर भी न झलकेगा पूरा
झाड़ झंखाड़ बहुत
एक आदमी से न बुहारा जाएगा
इतना कूड़ा
क्या बुहारूँ
क्या कहूँ, क्या न कहूँ ?
अच्छा है जितना झाड़ सकूँ,झाडूँ
जितना कह सकूँ, कहूँ
कम से कम चुप तो न रहूँ।
0 राजेश उत्साही
प्राचीन मित्रों से भेंट हर बार कुछ नयापन लेकर आती है।
ReplyDeleteजीवन की व्यस्तता आप को मित्रो से कैसे दूर कर देती है इस समय बेहतर समझ रही हूँ मेरी कालेज के समय की मित्र भी दिल्ली से यहाँ आई है ट्रेनिग से लिए दो साल बाद हमारी मुलाकात हो रही है किन्तु दोनों की समय सारणी नहीं मिल रही है की आराम से अकेले मिल सके घर आई थी किन्तु पति और बेटी के सामने आप दिल खोल कर प्राचीन मित्रो से नहीं मिल बतिया नहीं सकते :(
ReplyDeleteप्राचीन शब्द के इस नए विस्तार लिए हुए अर्थ के लिए धन्यवाद...कुमार अंबुज जी की जय हो..
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