Thursday, May 17, 2012

परीक्षा परिणाम और हम


                                                                                                       फोटो : राजेश उत्‍साही 
राजस्थान बोर्ड के बारहवीं की विज्ञान परीक्षा के परिणाम हाल ही में घोषित हुए हैं। परिणाम के अगले दिन सुबह का अखबार मेरिट में आए विद्यार्थियों की वीर गाथाओं से भरा पाया। हर तरफ यही चर्चा है कि किसने कितने प्रतिशत अंक हासिल किए। कोई अपनी सफलता का श्रेय माता-पिता को दे रहा है तो कोई अपने गुरु की तारीफ करता नहीं थक रहा है।


कोई शक नहीं कि इस लहर की एक महत्वपूर्ण वजह मीडिया भी है, वो भी खास तौर पर अखबार । सफल विद्यार्थियों का उत्साहवर्धन कोई गलत काम नहीं, पर चिंता का कारण ये तथाकथित सफल बच्चे नहीं अपितु विद्यार्थियों का वो विशाल वर्ग है जो अपना स्थान इस मेरिट सूची में नहीं बना पाया।

अखबारों को इस क्षेत्र में अपनी भूमिका के बारे मे दोबारा सोचने की जरूरत है। जब आप एक तरफ सफल बच्चों की उपलब्धियों के बारे में जग को बता रहे हैं, तो ये सोचना भी आपकी ज़िम्मेदारी बनती है की आप समाज में अन्य बच्चों की छवि किस तरह प्रस्तुत कर रहे हैं। यह एक अप्रत्यक्ष संदेश है कि जो बच्चे मेरिट में अपना स्थान नहीं बना पाए वे असफल हैं।

यहां सोचने की जरूरत है कि परीक्षा का असल उद्देश्य क्या है। जब किसी परीक्षा में लाखों विद्यार्थी बैठते हैं तो ये सभी को पता होता है कि सिर्फ 15-20 बच्चे ही मेरिट सूची में स्थान बना पाएंगे। लेकिन इसका यह अर्थ बिलकुल नहीं है कि बाकी बच्चे असफल हो गए हैं। किसी एक परीक्षा में अच्छे अंक हासिल कर लेने से जीवन की दिशा निर्धारित हो जाती है, ये सोच उचित नहीं है। सफल बच्चों के घरवाले और रिश्तेदार फूले नहीं समाते, वहीं असफल बच्चों के मां-बाप मुंह छिपाते घूमते हैं। ये स्थिति विचलित कर देने वाली है। इन चंद बच्चों के जयघोष में लाखों बच्चों के सपने और सम्मान कहीं खोता जा रहा है।

इसका एक नकारात्मक पहलू यह है कि ऐसे बच्चों में से अधिकांश अपने को समाज से अलग समझने लगते हैं। वे ऐसे समाज से खुद को जोड़ पाने में असमर्थ नजर आते हैं ,जो सिर्फ सफलता को पूजता है और असफल को हेय दृष्टि से देखता है। जिन बच्चों का समाज सम्मान नहीं करता है, उन बच्चों से अपेक्षा करना करना की वे समाज, देश और संस्कृति का सम्मान करेंगे अपने को भुलावे में रखना है। 

मुझे यहाँ आमिर खान की थ्री इडियट्स का एक संवाद याद आता है – “जब आप डॉक्टर के पास जाते हैं तो डॉक्टर आपकी जांच रिपोर्ट चिल्ला चिल्ला कर दुनिया को बताता है या आपका इलाज करता है?” जो बच्चे अपेक्षापूर्ण अच्छा नहीं कर पाये उन्हे भी प्रोत्साहन की जरूरत है न की घृणापूर्ण नजरों की। और जरूरी तो नहीं की सभी बच्चे डॉक्टर, इंजीनियर या मैनेजर ही बनें। हमें समझना होगा कि अन्य क्षेत्र भी समान महत्व रखते हैं, और वहाँ भी रोजगार के कई अवसर मौजूद हैं।

शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले बुद्धिजीवी भी अब इस बात को अच्छे से समझने और स्वीकार करने लगे हैं। इस क्षेत्र में कई सराहनीय प्रयास भी शुरू हुए हैं ताकि समाज में ऐसा वातावरण निर्मित हो सके जिससे सभी को आगे बढ़ने के समान अवसर प्राप्त हों। 

अखबार किसी भी समाज के विकास और बदलाव की महत्वपूर्ण कड़ी होते हैं। एक लोकतान्त्रिक देश में पत्रकारों से अपेक्षा की जाती है कि वे समाज के हित को ध्यान में रखें न कि कुछ चुनिन्दा लोगों के। अखबारों के पास समाज की सोच को प्रभावित करने कि अपार शक्ति है, मैं इसे एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी के रूप में देखता हूँ। मैं समझता हूँ कि अखबार भी समाज का ही हिस्सा है और केवल उस पर दोषारोपण करना कदापि उचित नहीं है। मेरी उससे यह अपेक्षा है कि वह समाज की सोच को बदलने का प्रयास करे । पत्रकार जगत कि भूमिका उस डॉक्टर के सहायक के समान है जो हर मरीज को रोगमुक्त करने के प्रयास में जुटा हुआ है। 

यह बहुत आवश्यक है कि हम अपनी जिम्मेदारियों के बारे में फिर से सोचें और यह भी सोचें कि हम इस देश को किस ओर ले जा रहे हैं।
                                    0 पल्लव तिवारी
(पल्‍लव हाल ही में एक फैलो के रूप में अज़ीमप्रेमजी फाउंडेशन में शामिल हुए हैं। इन दिनों वे टोंक,राजस्‍थान में कार्यरत हैं। मेरी राय जानने के लिए उन्‍होंने इसे मुझे भेजा था। लेख मुझे सामयिक लगा। पल्‍लव की अनुमति से आंशिक संपादन के पश्‍चात इसे मैंने यहां प्रकाशित करने का फैसला किया।)

7 comments:

  1. संतुलन एक दीर्घकालिक उद्देश्य है और हमारा त्वरित प्रयास भी। इससे विमुख होते ही अनावश्यक चीजें प्रमुख हो जाती हैं।

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  2. बहुत अच्छा लिखा है पल्लव जी ने.............

    सामायिक और सटीक....

    सादर.

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  3. बिल्‍कुल सही कहा है इस आलेख में .. सार्थक प्रस्‍तुति के लिए आपका आभार ।

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  4. सार्थक व समयानुकूल आलेख

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  5. पल्लव तिवारी जी का कहना एकदम सही है ... जहाँ एक तरफ कुछ लोग ख़ुशी मनाये वहीँ दूसरी ओर निराशा का माहौल निर्मित हो जाय कदापि उचित नहीं .लेकिन आज जिस तरह तो शिक्षा को व्यवसाय के रूप दे लिया जा रहा है वह बहुत चिंताजनक है
    सार्थक और सामयिक चिंतन से भरी प्रस्तुति के लिए आपका आभार ।

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  6. विषय के विभिन्न पहलुओं पर इस आलेख में विस्तृत चर्चा की गई है। उसको आप जैसे कुशल संपादक का सानिध्य है। वह निखरेगा। पल्लव को शुभकामनाएं।

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  7. मैं तो एकदम सहमत हूँ इस आलेख से..
    राजेश जी, मुझे खुद गुज़रना पड़ा है असफलता के उस फेज से!!
    आज वो दिन याद आ गए,...बहुत बुरे दिन थे वो!!

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