Tuesday, January 10, 2012

अनुपम कविताएं


बहुत दिनों से
नहीं हुई मुलाकात
अपने से
किसी ने कहा-
अपने बारे में कहो।
मैंने कहा-
मैं थी... थी... थी..
                (साक्षात्‍कार)

यह परिचय है अनुपमा तिवाड़ी का। उनसे मिले बहुत समय नहीं बीता। कोई छह महीने पुरानी पहचान है। पहली मुलाकात में ही वे बातचीत में अपनी कविताओं को कोट करती हुईं,प्रस्‍तुत हुईं थीं। यह मुलाकात उनसे राजस्‍थान में सुदूर टोंक में हुई थी। दूसरी मुलाकात में वे अपने पहले कविता संग्रह के साथ बंगलौर में मेरे सामने थीं। कुछ संयोग ऐसा है कि हम दोनों एक ही संस्‍थान में कार्यरत हैं।
 
‘आईना भीगता है’ जयपुर के बोधि प्रकाशन से आया है हाल ही में। छोटी-बड़ी लगभग 80 कविताएं इसमें संकलित हैं। ठेठ घर परिवार से लेकर वैश्विक दुनिया पर टिप्‍पणी करतीं वे सहज ही ध्‍यान खींच लेती हैं। उनकी कविता में भाषा की बाजीगरी नहीं है। न ही वे विचारों को उलझाती हैं, और न ही समझने के लिए बार-बार पाठ की मांग करती हैं। लेकिन इन कविताओं में जो है वह ठिठककर पढ़ने को मजबूर कर देता है। उनकी कविताओं में घर के बच्‍चे हैं तो घरविहीन बच्‍चे भी। वृद्ध हैं,निरा‍श्रित हैं,मजदूर हैं। बाजार है, प्रेम है, प्रकृति है। अनुपमा पिछले लगभग 25 सालों से विभिन्‍न मुद्दों पर स्‍वयंसेवी संस्‍थाओं के साथ काम कर रही हैं। इस दौरान उन्‍होंने जो अनुभव किया वह भी इन कविताओं में व्‍यक्‍त होता है। आइए इसी संग्रह से कुछ कविताओं की बानगी देखें।

अनुपमा एक कामकाजी मां हैं, उनकी दुविधा कुछ ऐसी है-
मैंने क्‍या पाया?
क्‍या खोया?
कुछ पता नहीं
पर,खोया बच्‍चों ने
मां का प्‍यार।
कितने छोटे भी
वे बन गए थे बड़े
कभी मां को नहीं करते मना
काम पर जाने के लिए
बड़े जो हो गए थे।
                             (मेरे बच्‍चे)
ऐसा नहीं है कि यह मां बच्‍चों से दूर ही रहती है। वह उनके पास आने का प्रयास करती रहती है। तभी तो वह यह कविता लिख पाती है-
बस्‍ते में बसती है
एक पूरी दुनिया उसकी
बस्‍ते में कॉपी,किताब,स्‍लेट,पेंसिल ही नहीं
कागज की मुड़ी पुडि़या में है
इमली और बेर।
उसकी कॉपी के पन्‍नों में
फरफराते हैं चिडि़यों के रंगबिरंगे पंख
कपड़े के चुत्‍थे में लिपटे हैं
कौड़ी,सीप,चूडि़यों के रंगीन टुकड़े।
किताब की छाती पर
उसने लगा लिया है
अपनी पसंद का एक चित्र
जिसे लिए वह उन्‍मुक्‍त आकाश में
डूबता-उतराता है
सीपी-शंखों के साथ
सागर की गहराई में।
फिर धरती पर आ कदम बढ़ाता है
धरती के विस्‍तार में।
                              (बस्‍ते में दुनिया)
एक स्‍त्री होने के नाते अनुपमा उन बातों को भुगतती और भोगती हैं जो शायद स्‍त्री की नियति बन गई हैं। उनकी पीड़ा इस कविता में उतराती है-
मेरे माथे पर बिंदी न देख
कुछ आंखें पूछती हैं
तुम मुसलमान हो?
पैर में बिछुए न देख
पूछती हैं
कुंवारी हो?
पूजा न करते देख
पूछती हैं
तुम आर्यसमाजी हो?
तुम नास्तिक हो?
मैं धीमे से कहती हूं
मैं प्रकृति की कृति हूं।
                                   (मेरी पहचान)
अनुपमा एक सजग स्‍त्री हैं। उनकी नजर आज के बाजार भी पर भी है। वे कहती हैं-
दलितो,आदिवासियो और मजदूरो
हमने दर्ज कर लिए हैं
तुम्‍हारे अधिकार,
कागजों में
और रख दिए हैं
बाजार में
जहां सब बिकता है
सब खरीदा जाता है।
                                      (बाजार)
बाजार की भयावहता को भी वे देखती हैं कुछ इस तरह-
कंपनी ब्रांड कपड़े पहनो
कंपनी ब्रांड कैप पहनो
कंपनी ब्रांड बैग रखो
कंपनी की बात करो
कंपनी का ही गाना गाओ
कंपनी में ही भविष्‍य देखने के सपने देखो
पर,कल पीछे मुड़कर देख लेना।
                                                        (कंपनी ब्रांड)
आदमी की फितरत को वे भी बखूबी जानती हैं और कहने से नहीं चूकतीं-
रात के अंधेरे में
लिहाफ में सर छुपाए
तुम,सच बोलते हो।
दिन तो बड़ा अजीब है
बुलवाता है,
जाने क्‍या-क्‍या?
करवाता है
जाने क्‍या-क्‍या?
             (रात के अंधेरे में)
अनुपमा अपनी प्रेम कविताओं में भी इतनी ही सहज हैं-
प्‍यार तुम कितने सुंदर हो।
तुम्‍हारे हाथ पैर होते
तो मैं,
तुमसे लिपट-लिपट जाती
छोड़ती ही नहीं तुम्‍हें।
मुझे पता है,
तुम पर लगती रहीं हैं तोहमतें
कभी पश्चिमी संस्‍कृति की,
तो कभी चरित्रहीनता की।
परन्‍तु,
तुम तो सदा थे
हो
और रहोगे।
           (प्‍यार)
अनुपमा की इन कविताओं से गुजरना राजस्‍थान की तपती रेत पर पैर रखने जैसा है। और क्‍यों न हो, वे उसी रेत में तो जन्‍मी हैं 1966 में। वहीं रहकर उन्‍होंने अपने को जिया है। वे हम सबसे यह सवाल भी पूछती हैं-
पुरानी दुनिया में भेदभाव है
गलत नीतियां हैं
पर क्‍या हमने बना ली है
ऐसी जमीन
कि, जिसमें उग सके
नई दुनिया का 
नया सपना ?
         (नई दुनिया)
वास्‍तव में इसका जवाब हमको मिलकर ही खोजना होगा।
0 राजेश उत्‍साही  

14 comments:

  1. बड़े भाई! एक अनुपम व्यक्तित्व से परिचय करवाया आपने.. ऐसी छिपी प्रतिभाएं आपके प्रयास से सामने आयीं यह हमारा सौभाग्य है.. इनकी कविता में एक अनोखा ब्यान है, जो सहज ही अम्मोहित करता है!! आभार आपका!

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  2. संवेदनाओं के गहनता में डूबी रचनायें, पढ़कर आइना भीग चला है। परिचय का आभार।

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  3. कवितायें साधारण जुबान में दिये गए असाधारण बयान लगीं!

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  4. राजेश जी,
    आपका बहुत - बहुत आभार !
    और उन सभी साथियों को धन्यवाद जिन्हे मेरी कविताये पसंद आई ।

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  5. बहुत अच्छा लगा अनुपमा जी से और उनकी अनुपम भावनाओं से मिलकर .... यह परिचय मुग्द्ध कर गया -

    मेरे माथे पर बिंदी न देख
    कुछ आंखें पूछती हैं
    तुम मुसलमान हो?
    पैर में बिछुए न देख
    पूछती हैं
    कुंवारी हो?
    पूजा न करते देख
    पूछती हैं
    तुम आर्यसमाजी हो?
    तुम नास्तिक हो?
    मैं धीमे से कहती हूं
    मैं प्रकृति की कृति हूं।

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  6. बहुत कुछ सोचने पर विवश करती हैं...उनकी कविताएँ
    अनुपमा जी की रचनाओं से परिचय का आभार

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  7. बहुत ही प्रभावी रचनाओं के स्राजनकर्ता से मिलवाया है आपने राजेश जी ... शशक्त रचनाएं ... संवेदनशील विषयों को छूते हुवे ...
    अनुपम जी को बधाई ...

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  8. अनुपमा से परिचय कराने के लिए आभार आपका ....
    शुभकामनायें आपको !

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  9. दलितो,आदिवासियो और मजदूरो
    हमने दर्ज कर लिए हैं
    तुम्‍हारे अधिकार,
    कागजों में
    और रख दिए हैं
    बाजार में
    जहां सब बिकता है
    सब खरीदा जाता है।
    इस एक कविता को पढ़कर ही लग जाता है कि 'आईना भीगता है' की कवयित्री 'ठेठ घर परिवार से लेकर वैश्विक दुनिया पर टिप्‍पणी करतीं वे सहज ही ध्‍यान खींच लेती हैं। उनकी कविता में भाषा की बाजीगरी नहीं है।' वाकई, आपने बहुत अच्छी समीक्षा प्रस्तुत की है। कवयित्री को बधाई।

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  10. प्रभावी व्यक्तित्व है अनुपमा जी का. परिचय कराने के लिए आभार.|

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  11. अनुपमा जी का परिचय और उनकी अनुपम रचनाओं के बोल अपने बोल से लगे..... एक कामकाजी माँ की व्यथा-कथा का सजीव चित्रण मन को भा गया...
    प्रस्तुति के लिए आपका बहुत आभार!

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  12. अनुपमा जी की रचनाएँ अद्भुत हैं...उनकी संवेदनशीलता उनकी रचनाओं में झलकती है...

    नीरज

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  13. अनुपमा जी की कवितायें-जितनी तारीफ करो कम है। अति सरल,सहज व अनुपम शब्द चयन लिए।
    कहा गया है-
    कविता वह नहीं जो किसी डाल में अटक जाये
    कविता वह है जो सीधी दिल में उतर जाये।
    सच में उनकी कवितायें हृदयग्राही हैं ।
    बधाई!

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