Sunday, September 18, 2011

मुन्‍ना के मुन्‍ने दिन


मुन्‍ना। हां मुन्‍ना नाम ही था उसका। अरे भई अभी मुन्‍ना ने स्‍कूल जाना कहां शुरू किया था। वह चार साल का ही तो था। मुन्‍ना के अम्‍मां-बाबूजी ने जरूर कुछ सोचा होगा कि जब उसे स्‍कूल में दाखिल करेंगे तो क्‍या नाम रखेंगे। अब मुन्‍ना को क्‍या मालूम कि क्‍या नाम सोचा था उसका ! उससे थोड़े ही पूछा था। बच्‍चों से कौन पूछता है कि तुम्‍हारा क्‍या नाम रखें। पूछते तो कितना मजा आता न ! 

मुन्‍ना पिताजी को बाबूजी कहता था। क्‍यों का क्‍या मतलब ? सब कहते थे, सो मुन्‍ना भी कहता था। कभी किसी ने बताया ही नहीं कि बाबूजी मत कहो, पिताजी कहो या पापाजी कहो या कुछ और। कोई बता भी देता तो भी मुन्‍ना तो बाबूजी ही कहता। उसे तो वही अच्‍छा लगता था। जैसे अम्‍मां को अम्‍मां कहना। जब कोई पूछता कि तुम्‍हारी मम्‍मी कहां है तो मुन्‍ना को लगता जैसे अम्‍मां के बारे में नहीं किसी और के बारे में पूछा जा रहा है। वह ‘अम्‍मां’ कहकर सामने वाले को प्रश्‍नवाचक नजरों से देखता । सामने वाला जब कह देता, ‘हां अम्‍मां।‘ तब मुन्‍ना आगे का जवाब देता।     

उन दिनों बीना एक छोटा-सा कस्‍बा हुआ करता था। भोपाल से दिल्‍ली जाने वाली रेल लाइन पर। मुन्‍ना बीना में रहता था। अकेला नहीं अपने अम्‍मां-बाबूजी के साथ। इतना छोटा बच्‍चा कहीं अकेला रहता है क्‍या। बात तो आपकी सही है। दुनिया में कितने सारे बच्‍चे अकेले रहते हैं, अपने मां-बाप के बिना। क्‍यों होता है ऐसा। मां-बाप छोड़ देते हैं बच्‍चों को या बच्‍चे मां-बाप को। सोचना पड़ेगा इस पर। पर मुन्‍ना अकेला नहीं रहता था।

बाबूजी रेल्‍वे में स्‍टेशन मास्‍टर थे। नहीं वे स्‍टेशन को पढ़ाते नहीं थे। हां वे रेलगाडि़यों को छोड़ते या रोकते थे। जैसे स्‍कूल में मास्‍टर जी बच्‍चों को उंगली दिखाने पर पेशाब-पानी के लिए छोड़ते या रोकते हैं। मुन्‍ना को बाबूजी के इस काम से कोई शिकायत नहीं थी। बस एक ही बात बुरी लगती थी। बाबूजी की डयूटी कभी सुबह से शुरू हो जाती तो कभी वे शाम को डयूटी जाते। और कभी-कभी तो उनकी डयूटी आधी रात को शुरू होती। कभी-कभी जब दिन की डयूटी होती और बाबूजी खाना खाने घर आते तो मुन्‍ना भी बाबूजी के साथ स्‍टेशन जाता । उसका मन करता कि वह भी रेलगाड़ी को झंडी दिखाए। वह बाबूजी के साथ झंडी पकड़कर खड़ा हो जाता। पर जब रेलगाड़ी आती तो उसकी आवाज से डरकर बाबूजी के पीछे उनके पैरों में दुबक जाता। बस वहां से झांककर टुकर-टुकर गाड़ी को देखता रहता, कानों में उंगली डाले। फिर स्‍टेशन का कोई आदमी मुन्‍ना को घर छोड़ जाता।

मुन्‍ना का घर छोटा-सा था। दो कमरों का। एक रसोई और बरामदा भी उसमें था। पीछे बड़ा-सा आंगन था,जिसके एक कोने में टायलेट बना था। मुन्‍ना तो उसको टट्टी कहता था। उसमें एक बड़ा-सा छेद था। जिसमें पानी डालकर टट्टी को बहा दिया जाता था। छेद इतना बड़ा था कि मुन्‍ना उसमें से निकलकर जा सकता था। कभी-कभी कोई सूअर भी अपनी थूथन ऊपर किए नजर आ जाता। मुन्‍ना जब उसमें जाता तो उसका मन करता कि उस छेद में से झांककर देखे। पर जब भी ऐसा करने की कोशिश करता, अम्‍मां डांट देतीं। टट्टी का दरवाजा तो खुला ही रहता था न। मुन्‍ना छोटा जो था। आंगन के दूसरे कोने में सपन्‍ना था। सपन्‍ना जहां सपरते हैं यानी नहाते हैं। उसमें नल था,जो दिन-रात चालू रहता। तब पानी की इतनी मारा-मारी नहीं थी । मुन्‍ना का जब मन करता, नल के नीचे बैठ जाता। इस बात पर एक-दो बार उसकी पिटाई भी हुई थी। क्‍योंकि मुन्‍ना को नहाने की इतनी जल्‍दी रहती कि वह कपड़े समेत ही बैठ जाता।

मुन्‍ना सांवले रंग का जरूर था, पर उसके नाक-नक्‍श ऐसे थे कि किसी को भी उस पर प्‍यार आ जाता। मुन्‍ना के बाएं गाल पर एक सफेद निशान था। हर बार नहा कर मुन्‍ना आइने में अपनी शक्‍ल जरूर देखता । जब भी शक्‍ल देखता तो उसे वह निशान दिखाई देता। आइने वाला मुन्‍ना उससे पूछता कि यह निशान क्‍यों है? मुन्‍ना हर बार अम्‍मां से पूछता। अम्‍मां कहतीं ताकि अगर मुन्‍ना कहीं खो जाए तो उसे ढूंढा जा सके। हालांकि तब तक मुन्‍ना को यह समझ में नहीं आता था कि वह खोएगा क्‍यों ! कई बार अम्‍मां कोई जवाब नहीं देतीं। बस उसे घूरकर देखतीं ,जैसे कह रही हों कितनी बार पूछेगा। फिर मुन्‍ना मन ही मन अपने आपको जवाब देता कि यदि वह खो जाए तो उसे ढूंढा जा सके। फिर तो जैसे मुन्‍ना ने यह बात गांठ ही बांध ली थी। जब आइने वाला मुन्‍ना या कोई और पूछता तो वह यही जवाब देता।    
  
बरामदे में ऊपर एसब्‍सटास यानी सीमेंट की चादर लगी हुईं थीं। बरामदे की दीवार ईटों की जाली से बनी थी। जाली इतनी बड़ी थी कि मुन्‍ना उसमें अपना चेहरा सटाकर जाली के पार देख सकता था। सामने सड़क थी और उस पार बड़ा-सा मैदान। सुबह जब सूरज मैदान के कोने में से निकलता तो इस जाली से उसकी मोटी-मोटी किरणों का गुच्‍छा अंदर आता था। मुन्‍ना को इन किरणों में खेलने में बहुत मजा आता । खासकर उनमें उड़ते धूल के कण पकड़ने में।

मजे की एक और चीज थी बरामदे में। पर वह अम्‍मां के लिए सिरदर्द था। वह था एक झूला। बरामदे के ऊपर जो सीमेंट की चादर लगीं थीं, उनके लिए लकड़ी की दो मोटी-मोटी बल्लियां लगाई गई थीं। बाबूजी ने उसमें नारियल की रस्‍सी बांधकर एक झूला डाल दिया था। एक छोटा लंबा पटिया था, जिसके सिरों पर बीचोंबीच एक-एक खांचा बनाया गया था। इन खांचों के सहारे पटिया रस्‍सी में फंस जाता था। इस पटिए पर मुन्‍ना किसी तरह चढ़ कर बैठ तो जाता, पर उसके पांव जमीन से ऊपर रहते। तो झूला देने के लिए वह अम्‍मां को आवाज लगाता। कई बार अम्‍मां आ जातीं और कई बार नहीं। मुन्‍ना ने इसका भी एक रास्‍ता निकाल लिया था। वह पटिया निकालकर एक तरफ रख देता और  रस्‍सी में बैठ जाता। बैठे-बैठे ही वह खूब सारे गोल-गोल चक्‍कर लगा लेता। ऐसा करने से रस्‍सी में बहुत सारे बल पड़ जाते। जब मुन्‍ना अपने पैर जमीन से ऊपर उठाता तो रस्‍सी के बल खुलना शुरू होते और वह तेजी से घूमता। मुन्‍ना को इसमें बड़ा मजा आता। ऐसा लगता जैसे पूरा घर घूम रहा हो।            
  
मजा तो मुन्‍ना को फ्रांसिस चाची के घर भी बहुत आता। आप फ्रांसिस चाची को नहीं जानते। अरे वही जो मुन्‍ना के पड़ोस वाले घर में रहती थीं। फ्रांसिस चाचा के साथ। अब चाचा चाची के साथ रहते थे या चाची चाचा के साथ मालूम नहीं। इतना मालूम है कि दोनों साथ में रहते थे। उनका घर भी मुन्‍ना के घर जैसा ही था। उनके बरामदे की जाली पर काले अंगूर की बेल चढ़ी हुई थी। हां भई, अंगूर काले भी होते हैं। यकीन न हो तो फ्रांसिस चाची के घर जाकर देख लेना। और उनमें काले-काले चींटे भी घूमते थे। चाची का रंग गोरा था। उनकी आंखें बड़ी-बड़ी। चोटी भी कमर से नीचे तक जाती थी। चाची के नाक-नक्‍श भी कुछ ऐसे थे कि मुन्‍ना का मन करता बस चाची को देखता रहे। कई बार चाची शरारत से उसकी नाक पकड़कर पूछतीं क्‍या देख रहा है रे। मुन्‍ना अपने हथेलियों को एक-दूसरे में बांधकर सिर झुका लेता। कुछ कहता नहीं।

मुन्‍ना जब वहां जाता तो चाची खाने को अंगूर जरूर देतीं। उनके यहां डॉन भी था। ये बम्‍बई वाला डॉन नहीं था। यह तो काले रंग का था, उसकी नाक पर भी एक सफेद निशान था। मुन्‍ना को देखता तो भौंकता और पूंछ हिलाने लगता। जैसे कह रहा हो मेरी पूंछ पकड़ो। बस मुन्‍ना पीछे-पीछे और डॉन आगे-आगे। डॉन-मुन्‍ना का यह खेल तब रुकता जब फ्रांसिस चाची उसे गोद में उठाकर उसके गालों पर जोर से दो-तीन चुम्‍मी जड़ देतीं। फिर पास पड़ी कुर्सी पर बिठाकर कटोरी भर अंगूर उसकी गोद में रख देतीं। मुन्‍ना कभी चाची को देखता कभी अंगूर से भरी कटोरी को। उसको समझ ही नहीं आता कि उसे करना क्‍या है। इस बीच डॉन भी अपने पिछले पैरों पर कुर्सी के पास बैठ जाता। वह भी बारी-बारी से कभी मुन्‍ना को तो कभी चाची को देखता। फिर चाची कहतीं खाओ मुन्‍ना खाओ। मुन्‍ना को हर बार जैसे बस इस बात का ही इंतजार होता था या पता नहीं किसी और बात का। पर जैसे ही चाची कहतीं, मुन्‍ना खाने लगता। डॉन बैठे-बैठे भी अपनी पूंछ लगातार हिलाता रहता था। मुन्‍ना बीच-बीच में एकाध अंगूर उछालता और डॉन उसको मुंह में लपक लेता।

मुन्‍ना को चाचा से डर लगता था। चाचा भी स्‍टेशन मास्‍टर थे। वे अपनी मि‍चमिची आंखों से मुन्‍ना को कुछ इस तरह देखते जैसे कह रहे हों, ‘यहां क्‍यों आए हो?‘ पर अगले ही क्षण कहते, ‘और मुन्‍ना बाबू क्‍या हाल है?‘ मुन्‍ना को समझ ही नहीं आता कि वह क्‍या जवाब दे। मुन्‍ना बस चुप रहता। पर मुन्‍ना ने एक बात नोट की थी। उसे अब भी याद है कि जब चाचा घर में होते तो चाची न तो उसे गोद में उठातीं, न चुम्‍मी लेतीं। हां उसे अंगूर जरूर देतीं। पर पता नहीं क्‍यों चाची की चुम्‍मी के बिना अंगूर उसे खट्टे लगते थे।

मुन्‍ना अब तक यह नहीं समझ पाया है कि उसे मजा किस चीज में आता था, डॉन के पीछे दौड़कर उसकी पूंछ पकड़ने में, अंगूर खाने में या फिर फ्रांसिस चाची की चुम्‍मी में।
                                                          0 राजेश उत्‍साही
(यह एक लम्‍बी कहानी या कहूं कि लघु उपन्‍यास का आरंभ है। इसे लिखे दो साल से कुछ अधिक समय हो गया है। दो-तीन पत्रिकाओं को इस उम्‍मीद से भेजा कि वे प्रकाशित करेंगे तो इसे आगे बढ़ाऊंगा। लेकिन उनसे कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। देखता हूं अब आप सब क्‍या कहते हैं।)                           

17 comments:

  1. गुरुवर नमस्कार ,रेलवे कालोनी के मकान और टायलेट का सही वर्णन , हमें भी याद आ गयी| मुन्ना आज भी किसी ना किसी कालोनी में मिल जायेगा | आभार

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  2. रेलवे परिवेश में मुन्ना की कहानी जानी पहचानी लग रही है।

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  3. मिला हूँ, जिया है और देखा है सब कुछ!! देखते हैं मुन्ना का जीवन सफर और एक बार फिर से सब-कुछ जीना जो अब सिर्फ इतिहास है मेरे लिए भी!!

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  4. बहुत ही अच्छी और बहुत ही सजीव लगी कहानी ये कहने की जरुरत ही नहीं पड़ी की ये रेलवे कालोनी है सब अपने आप की आँखों के सामने आ गया सिर्फ शुरूआती परिचय पढ़ कर ही अच्छा लगा तो निश्चित रूप से कहानी कही ज्यादा अच्छी होगी | कहानी कहने का तरीका कुछ अलग है जो कहानी के हिसाब से है वो और भी ज्यादा अच्छा लगा, मुन्ना की बाते सुन कर हंसी भी आ गई और लगा मुन्ना तो बगल में ही खड़ा है आगे की कडिया जल्द ही प्रकाशित कीजियेगा |

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  5. मुझे तो मुन्ना बड़ा प्यारा लग रहा है...बड़ा मासूम सा..पढते वक्त हमेशा एक मुस्कान बनी रही चेहरे पे :)

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  6. MUNNA...MUNNA...MUNNA...EK AESA CHARITR JO EK BAAR PADH LENE KE BAAD DIMAG SE UTARTA HI NAHIN...ADBHUT POST...


    NEERAJ

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  7. जब मैं फुर्सत में होता हूँ , पढ़ता हूँ और तहेदिल से इन भावनाओं का शुक्रगुज़ार होता हूँ ....

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  8. मुन्ना की अद्भुत बाल लीलाएं! स्टेशन मास्टर और प्लेन मास्टर की तुलना गुदगुदा गयी. आगाज़ धमाकेदार है, जल्दी इसे अंजाम तक भी पहुंचाइये.

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  9. जीवंत हो उठी है मुन्ना की कहानी ! दुआ करती हूँ आपका उपन्यास जल्दी छपे ! अग्रिम बधाई !

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  10. मुन्ना की कहानी बड़ी जानी-पहचाने सी लगी....सबके अंदर या आस-पास ऐसा एक मुन्ना जरूर रहा होगा.
    यहीं ब्लॉग पर आगे की कड़ियाँ लिखते जाइए...हम सब तो पढेंगे ना...और इसी बहाने ये लघु उपन्यास भी पूरा हो जाएगा.

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  11. लघु उपन्‍यास का आरंभ बहुत रोचक है। पूरा पढने का इंतजार रहेगा। अग्रिम शुभकामनाएं व बधाई।

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  12. रेलवे परिवेश में पलते बढ़ते मुन्ना का कहानी अपनों के बीच किसी अपने जाने पहचाने की सी लगती है..
    मेरा सोचना है की कहानी यह सोचकर अधूरी नहीं छोड़ देनी चाहिए वह किसी पत्र-पत्रिका या मग्जीन में छपने योग्य समझी जाय या नहीं.. .. कहानी पूरी करने के लिए अग्रिम शुभकामनायें
    बहुत बढ़िया कहानी प्रस्तुति के साथ ही नवरात्री की आपको सपरिवार हार्दिक शुभकामनायें

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  13. कहिये तो कहानी यहाँ तक पूरी लग रही है. मुन्ने का चित्रण हर छोटे रेलवे स्टेशन के निकट बने रेलवे क्वार्टर का चित्र है.

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  14. कहानी तो पूरी कर ही दीजिए।

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  15. MOONNA BHAI
    KO AAPNE PADHANE YOGYA BANA DIYA.
    UDAY TAMHANEY
    BHOPAL

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जनाब गुल्‍लक में कुछ शब्‍द डालते जाइए.. आपको और मिलेंगे...