राजेश उत्साही की यादों,वादों और संवादों की
क्या कहूँ? इस अप्रतिम रचना ने टिपण्णी लायक छोड़ा ही कहाँ है...बेजोड़नीरज
गुरुवर, आपकी रचना पर हमसे टिप्पणी नहीं होती ....
चम्पा ठीक ही कहती है।
कविता अच्छी है ।
गुरुदेव!! वारी जाऊं इस कविता पर..कमाल का क्लाइमेक्स है!!
कलकत्ते पर बजर गिरे कितनी मासूम सी कविता है..पढवाने का शुक्रिया
बहुत शुक्रिया !!
आज भी स्थिति नहीं बदली है. चंपा है, काले अक्षर हैं, कलकाता है, अब तो बम्बई और दिल्ली भी हो गए हैं... चंपा का बालम जा भी रहा है.. लेकिन ना तो कलकाता पर बजर गिर रहा है ना ही कविताओं में वे सरोकार दिख रहे हैं... नागार्जुन को नमन....
बहुत सुन्दर मासूमियत भरी रचना..बचपन यह अबोधता बाद में कई अवसरों पर खटकती है....बहुत बढ़िया सन्देश देती रचना प्रस्तुति के लिए आभार!
सर जी मै तो बहुत दिनों के बाद आपका कविता पढ़ रहा हूँ हमें इतना बढ़िया कविता पढने को मिला. धन्यवाद सर जी ...
सुंदर, सामयिक प्रस्तुति के लिए आभार ।
बाबा नागार्जुन कि कविता पढवाने के लिए आभार
इस सादगी पै कौन न मर जाए ये खुदा ....शुभकामनायें आपको !
मन को गहरे तक छू गई एक-एक पंक्ति...
विदेशिया की याद आ गई...
इस कालजयी रचना को एक बार फिर से पढना अच्छा लगा।------कब तक ढ़ोना है मम्मी, यह बस्ते का भार?आओ लल्लू, आओ पलल्लू, सुनलो नई कहानी।
....कलकत्ते पर बजर गिरे।....समापन के इस अंदाज से बजर कविता पर नहीं पाठक पर गिरता है। दिल धक्क से रह जाता है। इतनी सादगी से भी बजर गिराया जा सकता है, सीख मिलती है।
कलकत्ते पर बजर गिरे।कितने निश्चल भाव हैं.
क्या-क्या देखा, क्या कहते हैं!बाबा का अन्दाज़ निराला ...
नागार्जुन : चम्पा और काले अच्छर ?
जनाब गुल्लक में कुछ शब्द डालते जाइए.. आपको और मिलेंगे...
क्या कहूँ? इस अप्रतिम रचना ने टिपण्णी लायक छोड़ा ही कहाँ है...बेजोड़
ReplyDeleteनीरज
गुरुवर, आपकी रचना पर हमसे टिप्पणी नहीं होती ....
ReplyDeleteचम्पा ठीक ही कहती है।
ReplyDeleteकविता अच्छी है ।
ReplyDeleteगुरुदेव!! वारी जाऊं इस कविता पर..कमाल का क्लाइमेक्स है!!
ReplyDeleteकलकत्ते पर बजर गिरे
ReplyDeleteकितनी मासूम सी कविता है..पढवाने का शुक्रिया
बहुत शुक्रिया !!
ReplyDeleteआज भी स्थिति नहीं बदली है. चंपा है, काले अक्षर हैं, कलकाता है, अब तो बम्बई और दिल्ली भी हो गए हैं... चंपा का बालम जा भी रहा है.. लेकिन ना तो कलकाता पर बजर गिर रहा है ना ही कविताओं में वे सरोकार दिख रहे हैं... नागार्जुन को नमन....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर मासूमियत भरी रचना..
ReplyDeleteबचपन यह अबोधता बाद में कई अवसरों पर खटकती है....
बहुत बढ़िया सन्देश देती रचना प्रस्तुति के लिए आभार!
सर जी मै तो बहुत दिनों के बाद आपका कविता पढ़ रहा हूँ हमें इतना बढ़िया कविता पढने को मिला. धन्यवाद सर जी ...
ReplyDeleteसुंदर, सामयिक प्रस्तुति के लिए आभार ।
ReplyDeleteबाबा नागार्जुन कि कविता पढवाने के लिए आभार
ReplyDeleteइस सादगी पै कौन न मर जाए ये खुदा ....
ReplyDeleteशुभकामनायें आपको !
मन को गहरे तक छू गई एक-एक पंक्ति...
ReplyDeleteविदेशिया की याद आ गई...
ReplyDeleteइस कालजयी रचना को एक बार फिर से पढना अच्छा लगा।
ReplyDelete------
कब तक ढ़ोना है मम्मी, यह बस्ते का भार?
आओ लल्लू, आओ पलल्लू, सुनलो नई कहानी।
....कलकत्ते पर बजर गिरे।
ReplyDelete....समापन के इस अंदाज से बजर कविता पर नहीं पाठक पर गिरता है। दिल धक्क से रह जाता है। इतनी सादगी से भी बजर गिराया जा सकता है, सीख मिलती है।
कलकत्ते पर बजर गिरे।
ReplyDeleteकितने निश्चल भाव हैं.
क्या-क्या देखा, क्या कहते हैं!
ReplyDeleteबाबा का अन्दाज़ निराला ...
नागार्जुन : चम्पा और काले अच्छर ?
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