शिवराम (23.12.1949-1.10.2010) |
मैंने चाहा तो बस इतना
कि बिछ सकूं तो बिछ जाऊं
सड़क की तरह
दो बस्तियों के बीच
दुर्गम पर्वतों के आर-पार
बन जाऊं कोई सुरंग
फैल जाऊं
किसी पुल की तरह
नदियों समंदरों की छाती पर
मैंने चाहा
बन जाऊं पगडंडी
भयानक जंगलों के बीच
एक प्याऊ
उस रास्ते पर
जिससे लौटते हैं
थके-हारे कामगार
बहूं पुरवैया की तरह वहां
जहां सुस्ता रहें हैं
पसीने से तरबतर किसान
सितारा आसमान का
चांद या सूरज
कब बनना चाहा मैंने
मैंने चाहा तो बस इतना
कि,जुगनू
एक चकमक
एक मशाल
एक लाठी बन जाऊं मैं
बेसहारों का सहारा।
(राजस्थान के कामगारों के बीच काम करते हुए जीवन बिताने वाले रंगकर्मी और कवि थे शिवराम। उन्होंने पिछले अक्टूबर में 61 वर्ष की आयु में सबसे विदा ले ली। उनकी यह कविता तथा रेखाचित्र 'अनौपचारिका' पत्रिका के जनवरी,2011 अंक से साभार।) 0 राजेश उत्साही
दिवंगत कवि शिवराम जीकी कविता को पढ़ते हुये पुष्प की अभिलाषा याद आ गई! आज इनकी चाह को नमन करता हूँ!!
ReplyDeleteबहूं पुरवैया की तरह वहां
ReplyDeleteजहां सुस्ता रहें हैं
पसीने से तरबतर किसान
kavi shivram ji ko shraddhanjli
अच्छे लोग जल्दी चले जाते हैं राजेश भाई....
ReplyDeleteबढ़िया रचना पढवाने के लिए आभार आपका !
बढ़िया रचना पढवाने के लिए आभार ……………काश ऐसा सब सोच पाते।
ReplyDeleteवाह...वाह...वाह...मुझे "पुष्प की अभिलाषा "...चाह नहीं मैं सुर बाला के बालों में गूंथा जाऊं.....गीत याद आ गया...अप्रतिम रचना है आपकी...बधाई स्वीकारें...
ReplyDeleteनीरज
पढ़कर अच्छा लगा, कविता में हृदय की जीवन्तता पिरो गये शिवरामजी।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर शब्द हैं इस रचना के ...इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिये आभार ।
ReplyDeleteमैंने चाहा तो बस इतना
ReplyDeleteकि,जुगनू
एक चकमक
एक मशाल
एक लाठी बन जाऊं मैं
बेसहारों का सहारा।
बहुत खूब । सार्थक रचना का आस्वाद लेने का मौका देने के लिये आभार ।
सधे हुए संपादक की यही भूमिका है । बखूबी निभा रहे हैं ।
बढ़िया कविता. ताजगी से भरी हुई. बिना लाग-लपेट के अपनी बात कहती.
ReplyDeleteकविता में ऐसा कितना कहा उन्होंने पता नहीं लेकिन शायद ऐसा वे जीवन भर करते रहे.
ReplyDeleteमैंने चाहा तो बस इतना
ReplyDeleteकि,जुगनू
एक चकमक
एक मशाल
एक लाठी बन जाऊं मैं
बेसहारों का सहारा...
इंसान की चाहत का कोई अंत नहीं ... पर यदि वो एक भी चाहत पूरी कर सके तो जीवन सफल हो जाता है ...
गहरी अभिव्यक्ति है ...
मैंने चाहा तो बस इतना
ReplyDeleteकि,जुगनू
एक चकमक
एक मशाल
एक लाठी बन जाऊं मैं
बेसहारों का सहारा।
बहुत ही अच्छी कविता...चाह होनी जरूरी है....चाह हो तो राह निकल ही आती है..
एक सार्थक रचना पढवाने का शुक्रिया
बहुत अच्छी कविता।
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