Tuesday, January 11, 2011

अनुशासन की बलिवेदी पर....

कर्नाटक के कारवार जिले के होनानवर तालुके के एक निजी स्‍कूल के तथाकथित अनुशासन ने 14 साल के एक छात्र की जान ले ली। अखबारों में छपी खबर के मुताबिक सोमवार 10 जनवरी को नौवीं कक्षा में पढ़ने वाला अफजल हमाज पटेल देर से स्‍कूल पहुंचा। फिजीकल एजूकेशन टीचर ने अफजल को स्‍कूल के खेल मैदान के पांच राउंड लगाने की सजा दी। अफजल ने जैसे-तैसे दो चक्‍कर पूरे किए। वह कुछ दिन पहले ही बीमारी से उठा था। उसने कमजोरी और चक्‍कर आने की शिकायत की। लेकिन शिक्षक ने उसकी एक नहीं सुनी और तीन और राउंड लगाने के लिए कहा। नतीजा यह कि अफजल चौथे राउंड में जो गिरा तो उठा ही नहीं। वह दुनिया से ही उठ गया।

उसे तुरंत पास के अस्‍पताल ले जाया गया। वहां उसे डाक्‍टरों ने मृत घोषित कर दिया। घटना की खबर सुनकर लोग वहां इकट्ठे हो गए। उन्‍होंने स्‍कूल में तोड़फोड़ की। शिक्षक को निलंबित कर दिया गया है। जांच की घोषणा भी कर दी गई है। शिक्षक तथा स्‍कूल के खिलाफ आईपीसी की धारा 304 के तहत केस दर्ज कर लिया गया है। अफजल के घर वालों के लिए वित्‍तीय सहायता की घोषणा कर दी गई है।
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मुझे याद है कि मेरा छोटा बेटा जब आठवीं में पढ़ता था तो मैं उसे स्‍कूटर से छोड़ने स्‍कूल जाता था। किसी दिन अगर हम लेट हो जाते तो उसके कक्षा में जाने तक मैं वहीं रुक जाता। आमतौर पर  कि लेट आने वाले बच्‍चों को थोड़ी देर के लिए स्‍कूल के ग्राउंड में खड़े रहने की सजा मिलती। वह भी प्रिसींपल के आने तक की होती। प्रिंसीपल आतीं और वे बच्‍चों को डांटकर, चेतावनी देकर चली जातीं।

एक दिन मुझे बेटे की फीस जमा करनी थी,इसलिए उसे स्‍कूल में छोड़ने के बाद मैं वही रुक गया। उस दिन लेट आने वाले बच्‍चों को स्‍कूल परिसर में लगे पेड़ों से गिरे पत्‍तों को उठाने की सजा दी गई थी। कुछ बच्‍चे तो चुपचाप इस काम में लग गए। पर दो-तीन छात्रों ने इसका विरोध किया और कहा कि आप चाहे जो सजा दें पर हम  सफाई का यह 'गंदा' काम नहीं करेंगे।

अव्‍वल तो इस तरह की कोई सजा दी ही नहीं जानी चाहिए। उस पर से 'सफाई' जैसे आवश्‍यक काम को 'सजा' के तौर पर कराने की अवधारणा ही गलत है। मुझे यह बात भी अखरी कि छात्रों का विरोध सजा के 'प्रकार' पर था 'सजा' पर नहीं। उनमें से कोई भी न तो यह कहने की कोशिश कर रहा था और न कोई जानने की, कि वे देर से क्‍यों आए। जबकि मुझे लगता है कि चर्चा इस बात पर होनी चाहिए। और अगर वे रोज लेट हो रहे हैं उसके पीछे कारण क्‍या हैं, उनका समाधान क्‍या है। पक्‍के तौर पर समाधान सजा तो नहीं है।
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अफजल की खबर अखबारों में छप गई। स्‍थानीय और राष्‍ट्रीय टीवी चैनलों पर भी दिखाई जा रही होगी। मैं ब्‍लाग पर लिख रहा हूं और आप पढ़ रहे हैं, चर्चा भी करेंगे। पर उसके आगे क्‍या? आपमें से कई पाठक शिक्षक होंगे,या परिवार का कोई सदस्‍य शिक्षक होगा, या फिर शिक्षा व्‍यवस्‍था से संबंध रखते होंगे। तो कुछ दायित्‍व आपका भी बनता है। अनुशासन के नाम पर यह पहली बलि नहीं है। हर महीने-दो-महीने में देश के किसी न किसी कोने से ऐसी घटना की खबर आती रहती है। खबर भी वह तभी बनती है जब बच्‍चे को गंभीर शारीरिक क्षति होती है या मौत हो जाती है। स्‍कूलों में इस तरह की सजा आम बात है। इसे कैसे रोका जाए। कानून हैं। लेकिन इससे भी ज्‍यादा जरूरी है कि समय-समय पर अभिभावक खुद स्‍कूल जाकर यह देखते रहें कि वहां किस तरह की सजाएं दी जा रही हैं। हो सकता है आपके बच्‍चे को आज सजा न मिल रही हो, किसी और को मिल रही हो। पर तरीका क्‍या है यह जानना जरूरी है। ऐसा न हो कि किसी दिन आपका बच्‍चा भी इसका शिकार हो जाए!
                           0 राजेश उत्‍साही 

10 comments:

  1. सजा को लेकर जरा मेरी सोच कुछ दुसरी है। मेरे ख्याल से सजा तो होनी चाहिए, पर उसके प्रकार को निश्चित करने का काम भी शिक्षक वर्ग ही करे तो बेहतर होगा। जहां तक आजकल के शिक्षकों द्वारा सजा दिए जाने की बात है तो वो लगता है कि सजा नहीं दे रहे, उन्हें जो बचपन में सजा मिली, या फिर किसी और का गुस्सा वो मासूमों पर निकाल रहे हैं। प्यार से पढ़ाया जा सकता है पर एक सीमा से ज्यादा प्यार बच्चों को बिगाड़ भी देता है। हां प्यार की सीमा क्या होगी ये कोई कह नहीं सकता।

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  2. सजा हो पर ऐसी जिसमें संदेश जाये, अहित न हो। हमें भी दण्ड मिले हैं, कभी नहीं अखरा। अध्यापकों के लिये यह सोचना आवश्यक है।

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  3. बहुत भयावह हादसा ...बचाव का तरीका केवल सावधानी है हमें अपने मासूमों का ध्यान रखना चाहिए ! शुभकामनायें !

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  4. सजा दिया जाना गलत नहीं है, परन्‍तु कई बार इसके परिणाम इतने भयावह होते हैं की सोचने पर विवश करता है यह सजा थी या कोई रंजिश ।

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  5. मुझे लगता है की सजा के तौर पर बच्चो को कुछ मामलों में शारीरिक के बजाये जो आर्थिक दंड दिया जाता है वो ज्यादा कारगर होता है तुरंत असर दिखता है खास कर उन गलतियों में जिसमे माँ बाप भी शामिल होते ही दूसरे इस तरह के दंड से बच्चे की गलती की खबर घर तक पहुचती है और अगली बार के लिए बच्चे के साथ माँ बाप भी ज्यादा सजग हो जाते है जैसे रोज स्कूल देर से आना या रोज गृह कार्य पूरा करके ना लाना इसमे माँ बाप भी उतने ही दोषी है जो समय से बच्चे को नहीं भेजा पाते है या उनकी पढाई को बस स्कूल और ट्यूशन के भरोसे छोड़ देते है बस स्कूल इसे पैसा कमाने का जरिया ना बना ले | लेकिन शारीरिक दंड तो मुझे बिल्कुल अच्छे नहीं लगते मेरी बेटी को ऐसा दंड मिले मै बिल्कुल नहीं चाहूंगी |

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  6. सज़ा गुनाह की दवा नहीं है...कभी कभी सजा गुनाह करने को और भड़काती है...सज़ा अगर दवा होती तो सजायाफ्ता लोग निहायत शरीफ हो गए होते...जबकि सज़ा काटने के बाद मैंने लोगों को और बड़े गुनाह करते देखा है...सज़ा से ज्यदा जरूरी है गुनाह करने का कारन समझना...जैसा के आपने भी कहा...मैं आपसे सहमत हूँ.

    नीरज

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  7. सज़ा और ग़लती का एह्सास दोनों दो बातें हैं.. सज़ा इसलिये दी जाती है कि उससे दूसरे सबक़ लें और ग़लती से बचें!! अगर सज़ा की जगह ग़लती का एहसास करवाया जाए तो वो अधिक कारगर होता है... लेकिन ना शिक्षक में सब्र है समझाने का, न छात्र राज़ी है समझने को.. मुर्ग़ी और अण्डे की दास्तान!!

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  8. ऐसी शर्मनाक घटनाओं की खबर ,यदा-कदा अखबारों में पढने को मिल जाती है..पर यह बहुत ही दुखद है..जब शिक्षक का प्रोफेशन अपनाया है .....तो इसे सिर्फ नौकरी कर पैसा कमाने का जरिया नहीं समझना चाहिए. छोटे-छोटे फूल से कोमल बच्चों का जीवन उनका चरित्र बनाने की जिम्मेवारी उनके हाथो में होती है.
    पर वे लापरवाह होते हैं..और उनकी लापरवाही से किसी की जान चली जाती है...ऐसे शिक्षकों को कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए..जिस से दूसरे लोग सबक लेकर ऐसा व्यवहार अपने छात्रों के साथ ना करें.

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  9. अफजल की खबर अखबारों में छप गई। स्‍थानीय और राष्‍ट्रीय टीवी चैनलों पर भी दिखाई जा रही होगी। मैं ब्‍लाग पर लिख रहा हूं और आप पढ़ रहे हैं, चर्चा भी करेंगे। पर उसके आगे क्‍या? आपमें से कई पाठक शिक्षक होंगे,या परिवार का कोई सदस्‍य शिक्षक होगा, या फिर शिक्षा व्‍यवस्‍था से संबंध रखते होंगे। तो कुछ दायित्‍व आपका भी बनता है।


    सार्थक लेखन -
    बधाई

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  10. छोटे बच्चों को दी जाने वाली सजा प्रतीकात्मक होनी चाहिये।

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