एक शांत,शांतिप्रिय,स्वस्थ्य,आनन्ददायी समाज के निर्माण में बेमतलब की अनगिनत गप्पों,भद्दी जानकारियों की कोई भूमिका नहीं है।
दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान यूरोप में कई जगहों पर एक पोस्टर बार-बार चिपकाया जाता था, ‘गप्पें मत मारो। इससे जान भी जा सकती है।’ युद्ध के दौरान नागरिक यदि साधारण बातचीत में भी संयम न रखें तो माना जाता था इससे दुश्मन को इस पक्ष का कोई सुराग मिल जाएगा और तब न जानें कितनी जानें चली जाएंगी। बेमतलब की हल्की-फुल्की बातचीत से बचो-यह था संदेश।
आज ज्यादातर लोगों पर एक भिन्न किस्म की हल्की-फुल्की बातचीत भारी होती जा रही है। इस पर रोक नहीं लगी तो सचमुच एक बड़ा खतरा मंडरा सकता है।
ये है ई-मेल की तेजी से पसरती दुनिया। तार-बेतार,उपग्रह से जुड़ी यह व्यवस्था हर क्षण दुनिया भर में कुछ करोड़ संदेश,आदेश,विनती, खुरापात न जाने क्या-क्या पहुंचा रही है। कभी-कभी तो पांच-दस फुट की दूरी पर खड़े़ दो लोग अपने मोबाइल से आसमान में ऊपर दूर-दूर घूम रहे उपग्रहों में जाकर नीचे उतरते हैं।
भला ऐसे संवाद से, नई तरह की इस ई-चिट्ठी-पत्री से क्या नुकसान है? सारा कागज तो बच गया। पेड़,जंगल काटने नहीं पड़े। कारखाने नहीं लगाने पड़े। चिमनियों को काला धुंआ नहीं उगलना पड़ा। फेफड़ों को गंदी हवा, जहरीली गैस नहीं निगलनी पड़ी। पत्रों को लाने-लेजाने के लिए न तो डाक गाड़ी की जरूरत पड़ी, न रेल पटरियों की। ईमेल,ट्विटर,फेसबुक,ब्लाग,एसएमएस,एमएमएस-ढेर लग गया है हर चीज का। सो भी इतने सस्ते में।
जी नहीं, यह सस्ता बिलकुल नहीं है। बेहद महंगा खेल है। लंदन की संस्था ‘द रैडीकैटी ग्रुप’ के अनुसार 2009 के आंकड़े बताते हैं कि पूरी दुनिया में हर रोज कोई 260 अरब ईमेल किए गए। एक बार फिर दुहरा लें- यह संख्या है 260 अरब प्रति दिन। पक्के तौर पर यह आंकड़ा आज की तारीख में कहीं और अधिक होगा।
जानकारों का कहना है छह अरब की आबादी वाले हमारे इस ‘महाघर’ में लगभग एक अरब लोग मोबाइल,कम्प्यूटर,नेट आदि साधनों का उपयोग कर रहे हैं। फेसबुक इस बेतार परिवार का सबसे नया सदस्य है। कहते हैं कि ‘फेसबुक’ नामक इस नए देश की आबादी दुनिया के किसी भी देश से कहीं ज्यादा है।
तो इतने सारे लोग इतनी देर तक कम्प्यूटरों के आगे बैठे काम करते हों, गपियाते हों तो इस सबको चलाने में कितना बड़ा ढांचा लगता होगा। हमारी धरती के चारों ओर डिजिटल सूचनाएं,संदेश,चित्र,लाखों-लाख बड़ी किताबें हर सैंकेड चक्कर काटने निकल पड़ती हैं। सूचना,जानकारी,प्रचार,कुप्रचार,बुरी से बुरी,गंदी से गंदी, अच्छी खबरें-तरह तरह की फिल्में चित्र,संगीत क्या नहीं है इस ढेर में। यह ढेर कितना ऊंचा है ? अभी कोई तरीका नहीं है,इसे नापने का। पर इस ढेर को बनाए रखने के लिए नित नए कम्प्यूटर सेंटर बनाए जा रहे हैं,पुरानों की क्षमता बढ़ाई जा रही है। सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए बड़े-बड़े सर्वर लगाए जा रहे हैं। ये सब भारी भरकम संयत्र इतनी ज्यादा बिजली खाते हैं और अपने पीछे इतनी ज्यादा गरमी छोड़ते हैं कि इसका अभी ठंडे दिमाग से हिसाब लगाया जाना बाकी है।
दुनिया की बहुत-सी चीजें जब तक चलती हैं,तब तक कुछ न कुछ बोझ तो बढ़ाती ही हैं। लेकिन इस सूचना के संसार का तो हाल तो थोड़ा विचित्र ही है। इसके यंत्र,उपकरण,औजार तो बंद हो जाने के बाद भी बोझा बने रहते हैं। डिजिटल तकनीक का हर यंत्र-मोबाइल,कम्प्यूटर,टीवी जहरीले कचरे की श्रेणी में रखा गया है। इनमें भारी मात्रा में पारा और सीसा जैसी खतरनाक धातुओं के अंश रहते हैं। यह कचरा जहां भी रहेगा, नुकसान पहुंचाएगा।
यह तो हुआ इसका भौतिक असर। धरती पर, पानी पर, लोगों के स्वास्थ्य पर। लेकिन एक और बड़ा खतरा है। वह है हमारे मन पर पड़ने वाला प्रभाव। ‘हावर्ड बिजनैस रिव्यू’ पत्रिका में पिछले दिनों छपे एक लेख के अनुसार सूचनाओं के नए बोझ से दबकर लोग मर रहे हैं। सरकार में,,व्यापार में, कम्पनियों में, अखबारों में, टीवी आदि लगभग हर जगह पर ऊंचे माने गए पदों पर करने वाले लोग एक दिन में औसत 300 ई-मेल प्राप्त करते हैं। हमारे देश मे यह संख्या शायद थोड़ी कम हो सकती है। हर रोज इतनी तादाद में आने वाले चित्र-विचित्र,संदेश,जानकारी,मान-अपमान,वाद-विवाद हमारे दिमाग पर क्या और कैसा असर डालते होंगे?
मस्तिष्क के सूचना-तंत्र के जानकार लोगों का कहना है कि हमारा दिमाग हर क्षण नई-नई बातों को छांटकर पचाने के लिए नहीं बना है। उसे हर नई घटना को ,जानकारी को समझकर अपने पास करीने से देखने,रखने के लिए कुछ समय चाहिए,कुछ ऊर्जा भी चाहिए या फिर कुछ आराम भी। एकाध रात ठीक से नींद न आने पर हमारी हालत कैसी हो जाती है यह बताने की जरूरत नहीं है। तो मस्तिष्क को आराम न मिले तो क्या होगा? पूरी दुनिया में बढ़ते रक्चताप के आंकड़े झूठ तो नहीं बोल रहे हैं।
तो रास्ता क्या है इस भूलभुलैया में से बचके निकलने का? आपके इर्द-गिर्द जो मित्र,रिश्तेदार,साथी इस सबसे बचे रह गए हैं अब तक, उन्हें इसमें ढकेलने से बचें। जो जाने-अनजाने, मजबूरी में, सुविधा के कारण, इस भूलभुलैया में फंस गए हैं, वे कम से कम इतना तो तय कर ही सकते हैं कि बिलकुल जरूरी होने पर ही, बहुत सोच-समझकर इसका उपयोग करेंगे।
बेमतलब उंगलियां चलाने से अपना दिमाग भी थकता है और दूसरे का भी। एक शांत,शांतिप्रिय,स्वस्थ्य,आनन्ददायी समाज के निर्माण में बेमतलब की अनगिनत गप्पों,भद्दी जानकारियों की कोई भूमिका नहीं है।
बेमतलब उंगलियां चलाने से अपना दिमाग भी थकता है और दूसरे का भी। एक शांत,शांतिप्रिय,स्वस्थ्य,आनन्ददायी समाज के निर्माण में बेमतलब की अनगिनत गप्पों,भद्दी जानकारियों की कोई भूमिका नहीं है।
बहुत से समाजों ने, वाचाल समाजों ने,प्रबुद्ध और खूब बोलने लोगों ने भी हर युग में मौन का महत्व जाना है और उसे समय-समय पर अपनाया भी है। क्या दुनिया में बाकी कई दिवसों की तरह एक ई-मेल मौन दिवस के बारे में भी सोचा जा सकेगा?
(इंग्लैंड से प्रकाशित पत्रिका’रिसर्जेंस’ में छपे श्री जॉन नैश के लेख ‘वॉट ए लॉट ऑफ हॉट एयर’ का श्री अनुपम मिश्र द्वारा किए गए भावानुवाद का संपादित रूप। अनुपम जी द्वारा संपादित पत्रिका ‘गांधी-मार्ग’ के नवम्बर-दिसम्बर,2010 से साभार)
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दोस्तो, कहते हैं लोहा लोहे को काटता है, या जहर-जहर को मारता है। यह लेख मैं उसी माध्यम से आप तक पहुंचा रहा हूं, जिसकी आलोचना इसमें हो रही है। इस ब्लागिंग की दुनिया में हम जो कर रहे हैं, उस पर इस नजरिए से विचार करें कि उसमें कितना अर्नगल और अनावश्यक है। इसमें कोई शक नहीं है कि यह एक माध्यम है अपने विचारों और अभिव्यक्ति को सामने लाने का। लेकिन वे कितने जरूरी हैं, उनसे इस बृहत्तर समाज का कितना भला होने वाला है या हो रहा है, इस पर जरूर विचार करें। ज्यादा कहने की नहीं ,ज्यादा समझने की बात है। आप अपने ब्लाग पर कितना लिखें, कितनी टिप्पणी करें, इस पर जरूर विचार करें। समझदार के लिए इशारा काफी है।
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मैं आज से यह तय कर रहा हूं- अपनी पोस्ट पर आई प्रतिक्रिया पर मैं अब शुक्रिया मेल तभी भेजूंगा जब बहुत आवश्यक होगा। सम्मानीय साथी इसे अपनी अवहेलना न समझें, मेरे ब्लाग पर आते रहें। निवेदन है कि जब तक आपके पास कोई कहने के लिए कोई ठोस प्रतिक्रिया न हो, केवल टिप्पणी की औपचारिकता न निभाएं। आपके ब्लाग पर मेरी भी यही कोशिश रहेगी।
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अपनी पोस्ट की सूचना मैं मेल से कभी-कभार भेज दिया करता था। अब जब तक आवश्यक न हो उससे बचने की कोशिश करूंगा। हर खास मौके पर मेरी शुभकामनाएं आपके साथ हैं, उन्हें ईमेल के जरिए हर बार जाहिर करना जरूरी नहीं है। मेरा खाता फेसबुक तथा ट्विटर पर है। केवल फेसबुक ही मैं कभी-कभार देख लेता हूं। बाकी सब ऐसे संदेशों को नजरअंदाज कर देता हूं। मोबाइल फोन पर प्रतिदिन एक कॉल और एक एसएमएस से ज्यादा न तो आते हैं और न जाते हैं।
और अंत में... दुनिया जब सोचेगी तब सोचेगी, हम सब हर हफ्ते कम से कम एक दिन के लिए अपने आपको ब्लागिंग से दूर रख सकते हैं।
0 राजेश उत्साही
अपने ही उठाये बवंडर में उड़ते जाते हम लोग, जब गिरते हैं ऊँचाई से, सब कुछ तुड़वा बैठते हैं।
ReplyDeleteमैं तो अपनी पोस्ट पर आयी टिप्पणी के लिए कभी किसी को शुक्रिया नहीं कहती, तो क्या सबको बुरा लगता होगा :(
ReplyDeleteआपने जो बातें लिखीं हैं, उनसे मैं सहमत हूँ. बहुत कम ब्लॉग पढ़ती हूँ, जो पढ़ती हूँ, उस प्रतिक्रिया अवश्य देती हूँ. और सप्ताह में लगभग दो-तीन दिन ब्लॉगिंग से दूर रहती हूँ. फोन पर अनावश्यक बात करना मुझे बिल्कुल पसंद नहीं. मेरे दोस्तों को भी ये बात मालूम है. इसलिए वो बहुत कम फोन करते हैं.
मेरे ख्याल से किसी भी माध्यम पर हद से ज्यादा निर्भर होना ठीक नहीं, शारीरिक स्वास्थ्य के लिए भी और मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी.
बेहतरीन ...बहुत ही अच्छी बातें कही हैं आपने इस आलेख मे ..बधाई ।
ReplyDeleteसही जानकारी, सही सलाह
ReplyDeleteRaajesh bhaiya...apne kafi hadd tak bilkul sahi kaha...par kya ye sambhav hai...ki ham iss antarjaal ki duniya se alag hatt kar soch saken..!!
ReplyDelete"निवेदन है कि जब तक आपके पास कोई कहने के लिए कोई ठोस प्रतिक्रिया न हो, केवल टिप्पणी की औपचारिकता न निभाएं। आपके ब्लाग पर मेरी भी यही कोशिश रहेगी।"
ReplyDeleteस्वागत योग्य कदम...
बड़ा खतरा मंडरा सकता है ? ... mandra raha hai , bahut shaandaar aalekh
ReplyDeleteजी मै सब पर अमल कर रही हु ब्लॉग छोड़ दूसरे माध्यमो से सिर्फ अपने घर वालो से ही सम्पर्क में रहती हु अजनबियों से मित्रता नहीं बढाती | कभी टिप्पणिया लेने के लिए टिप्पणिया नहीं करती सो टिप्पणिया लेने देने दोनों की संख्या कम है | ब्लॉग पर अपना इमेल पता दिया ही नहीं है तो वहा भी कोई आदान प्रदान नहीं होता है और हफ्ते में एक दिन रविवार को ब्लॉग से दूर रहती हु | सार्थक टिप्पणिया करने का प्रयास करती हु और वैसा ही पाती हु |
ReplyDeleteआपकी बात में बहुत दम है...मैं आपके बताये हुए रास्ते पर आज और अभी से चलने की कोशिश शुरू कर रहा हूँ...
ReplyDeleteनीरज
हर चीज़ के फैदे भी हैं और नुकसान भी. इस्तेमाल सही किया जाए तो कोम्पुटर पे ऊँगली चला के समाज को बहुत फैदा पहुँचाया जा सकता है....ग़लत इस्तेमाल अधिक होता है यह भी सत्य है..
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया विश्लेषण किया है....ये सारी चीज़ें ,युवा-वर्ग में खासी लोकप्रिय हैं...फेसबुक....एस.एम.एस...उनके लिए हवा-पानी जैसी है...जिसके बिना सांस लेना उन्हें मुश्किल लगता है. पर ये भी देखा है...जैसे ही वे किसी गंभीर कार्य में संलग्न हो जाते हैं...ये चीज़ें आकर्षण खोने लगती हैं. इसलिए जरूरी है...किसी सार्थक कार्य में खुद को व्यस्त रखें.
ReplyDeleteआपके द्वारा सुझाये गए..उपाए तो मैं पहले से ही करती हूँ.....वजह, एकमात्र ...समय की कमी...अपने मनानुसार पढने-लिखने को ही समय कम मिलता है..पसंद से अलग क्या पढ़ें और क्या टिप्पणी करें और किसे मेल करें.
विश्लेषण विचारोत्तेजक, और रोचक है। पर आपने ही शुरु में कह दिया है ... बेमतलब।
ReplyDeleteमतलब की लिखा जाए तो उंगलिया चलाने में हर्ज़ क्या है?! और आप सदैव मतलब की ही लिखते हैं। हैं ना?
हमारी व्यस्तताएँ हमें वैसे भी अवकाश दिला देती हैं... लेकिन आपने जिन समस्याओं ए आगाह किया है वह वास्तव में भयावह है...
ReplyDeleteएक सलाह आपकी तर्ज़ पर तमाम ब्लॉगर बंधुओं को यह भी दिया जा सकता था कि जिनकी सेटिंग्स में कमेंट को मेल द्वारा प्राप्त करने का प्रावधान सक्रिय किया हुआ है वो बंद कर दें और कमेंट सीधा ब्लॉग पर पढ़ें... हालाँकि मैं स्वयम स पर अमल नहीं कर पाउँगा क्योंकि मेरी मजबूरी है!
वैसे यह पोस्ट एक सोच के लिये विवश करती है!!
यह लेख बहुत उपयोगी और प्रेरणास्पद है ! आपके किये सारे फैसले उचित हैं ! जो आपको पसंद करते हैं वे आपको पढने आयेंगे ही ! हाँ व्यक्तिगत तौर पर मैं आपसे अनुरोध करूंगा कि आप उन लोगों में से हैं जिन्हें पढना मुझे अच्छा लगता है बिना धन्यवाद लिए दिए भी !
ReplyDeleteशक्रिया मेल कभी न भेजें ...अच्छे लोगों को धन्यवाद चाहिए नहीं और दिखावा करने वालों को देना क्यों ??
सादर
पुनश्च : यह कहना है कि बेमतलब के लिखे पोस्ट पर अंगुलियां खड़काने से अपके मना करने से सहमत हूं, और आप चूंकि मतलब की लिखते हैं तो मैं अपनी अंगुली खड़का रहा हूं।
ReplyDeleteसाथ ही आप से गुहारिश है कि आप वो जो एक दिन का रेस्ट ले रहें हैं, या जो मेल भेजना बंद कर रहें हैं वह भी ना करें।
क्योंकि आप काफ़ी अर्थवान पोस्ट लिखते हैं। और मेल द्वारा आपके पोस्ट की जानकारी मिल जाया करती है।
ये बात बिल्कुल सही कहा..ज़्यादा कंप्यूटर पर बैठना कही से भी सही नही है..सार्थक सलाह और सार्थक ब्लॉगिंग ...धन्यवाद राजेश जी
ReplyDeleteमुझे आप मोबाईल और FB का खासतौर से व्यसनी कह सकते हैं.. ब्लॉग में पिछले कई सालों से लगातार सक्रीय हूँ मगर व्यसनी नहीं..
ReplyDeleteफिर भी अचानक से महिने में तीन-चार दिनों के लिए अचानक से मोबाईल और FB छोड़ देता हूँ.. मन को बहुत शान्ति मिलती है..
एक बात और जो उस लेख में संदर्भित नहीं है, जितने भी मेल हर दिन भेजे जाते हैं उनमें से अस्सी फीसदी SPAM होते हैं और लगभग पंचानबे फीसदी बिना पढ़ी रह जाती है..
सुंदर विश्लेषण . बहुत ही अच्छी सलाह है आपकी... बीच बीच में ब्रेक मरना पड़ेगा.
ReplyDeleteकाफ़ी प्रेरणास्पद आलेख्…………काफ़ी बातो पर तो अमल करती हूँ।
ReplyDeleteशायद यह सोचने का वक्त आ गया है.
ReplyDeleteराजेश जी ... हर सिक्के के दो पहलू तो होते ही हैं .. तरक्की के फाय्दे हैं तो नुकसान भी हैं ... इसलिए अपने पर अंकुशलगाना ही सबसे बेहतर उपाय है ... जो आप ने शुरू कर दिया ... वैसे आपका लेख सोचने को मजबूर करता है ...
ReplyDeletehmmmmmmm bouth he aacha post kiya hai aapne ... aacha laga
ReplyDeleteMusic Bol
Lyrics Mantra
...वही तो....! मैं भी यही सोच रहा था कि लोग-बाग कहाँ से लाते हैं इतना समय ? कब करते हैं अपना रोजी-रोजगार ? कब पढ़ते होंगे साहित्यिक पुस्तकें ? कब मिलते होंगे पड़ोसियों से ? कब लेते होंगे मरीज का हाल ? और कब लिखते होंगे अपनी कविता ? जब नेट खराब होता तो कहता.. चलो अब फुर्सत हुई। अपना लिखते-पढ़ते हैं।
ReplyDelete...अति हमेशा हानीकारक होती है। यही कारण लगता है कि हमारे कई साथी कमेंट का विकल्प ही बंद कर देते हैं।
...यह आवाज कभी न कभी तो आनी ही थी। बेहतरीन पोस्ट लिखी है आपने। आपको धन्यवाद।
अनुकरणीय विचार एवम अनुसरणीय भी। फ़ेसबुक जैसे प्रोफ़ाईल्स तो पहले से ही डिएक्टिवेट कर चुके हैं, फ़ोन का शौक न के बराबर है। यहाँ भी बहुत ज्यादा सक्रिय नहीं हैं, आगे और सुधार लायेंगे।
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा आपका यह पोस्ट पढ़कर... वैसे आज मैंने ऐसे ही दो पोस्ट पढ़े, एक आपका और एक सतीश सक्सेना जी का... दोनों में ब्लोगिंग कम करने के अलग-अलग कारण थे, और दोनों ही महत्वपूर्ण... देखा जाए तो आपके पोस्ट में न सिर्फ ब्लोगिंग पर दूसरे भी कारण थे, जो की बहुत ही विचारणीय हैं... परन्तु आज बहुत से लोग हैं जो सिर्फ कम्पूटर पर ही काम कर रहे हैं... खैर... मेरी भी ब्लोगिंग कम हो गयी, वो मेरेडॉ. का किया कराया है, मेरा नहीं... हाँ शुरू शुरू में जरूर कुछ ज्यादा पढ़ती थी, पर कभी भी कमेन्ट बिना सोचे नहीं कर पाती थे, इसीलिए पढ़ना भी कम कर दिया... यहाँ तक की अपने ही ब्लॉग पर रोज़ नहीं आ पाती...
ReplyDeleteपरन्तु आप लोगों से बहुत सीखना है... सो मैं तो आती-जाती रहूंगी, भले ही देर से... धन्यवाद...
और अंत में... दुनिया जब सोचेगी तब सोचेगी, हम सब हर हफ्ते कम से कम एक दिन के लिए अपने आपको ब्लागिंग से दूर रख सकते हैं... ... एकदम सही बात कही आपने!
ReplyDelete...एक बहुत ही चिंतनशील, मननशील आलेख है, बहुत सी सही उपयोगी बातें जो प्राय: हम सभी सबके सामने नहीं कह पातें, उन्हें आपने बहुत ही सार्थक माध्यम से प्रस्तुत किया...... इसके लिए धन्यवाद. लेकिन इन तमाम सच्ची जीवन में काम आने वाली बातों के बावजूद भी मैं तो आपसे एक गुजारिश जरुर करना चाहूंगी कि आप ब्लॉग पर हमेशा लिखते रहिएगा कभी अलविदा न कहना! देर सबेर ब्लॉग पढने लिखने वालों को आपकी रचनाओं से कुछ न कुछ सीखने को जरुर मिलेगा ....आपका बहुत बहुत आभार
sir , aapne to bahut hi acchi jaankaari di hai.
ReplyDeletemujhe to lagta hai ki waastav me numbers isse bhi jyaada honge , sach baat to ye hai ki internet ki duniya ne hamaare sochne ki shakti ko kam kar diya hai ..
main aapse sahmat hoon .
aabhar aapka , itni acchi jaankari ke liye .
dhnaywad.
vijay