बहरहाल हम चने के झाड़ पर चढ़ गए। बीता हुआ जमाना याद
आता गया। अम्मां बताती हैं कि हम से पहले उनकी दो संतान पैदा होने के कुछ दिनों बाद
चल बसी थीं। तो जब हम गर्भ में थे तभी यह मानता मानी गई कि अब जो भी संतान होगी, उसकी केवल पहले ही बरस नहीं विवाह होने तक हर बरस हमारी छठी पूजी जाएगी।
अब हुआ यह कि हर बरस हमारे लिए दो जोड़ी नए कपड़े बनवाए
जाते, एक जोड़ी जन्मदिन के लिए और एक जोड़ी
छठी वाले दिन के लिए। तो हम चाहें या न चाहें, हर साल नवम्बर
में यह काम हमारे विवाह होने तक बदस्तूर होता रहा। चुपचाप कपड़े की दुकान में जाना
है, कपड़ा खरीदना है, दर्जी को नाप देना
है। विवाह होने के बाद छठी की पूजा का उद्यापन कर दिया गया। शायद नए कपड़े लेने या
पहनने की जो एक स्वाभाविक चाह होती है, वह इस पारम्पारिक व्यवस्था
के अंदर कहीं गुम हो गई थी। सब कुछ नवम्बर के दो जोड़ी पर जाकर खत्म हो जाता था।
अपनी किशोर और युवावस्था भी कुछ इस तरह बीती कि उत्सव मनाने जैसा कोई माहौल कभी बन
नहीं पाया। सो वैसे भी अपन नए फैशन आदि से दूर ही रहे आए। याद है कि सत्तर के दशक
में जब वैलबॉटम पेंट का फैशन आया था तो हमारे पिताजी ने हमारे लिए जबरन ऐसी पेंट सिलवाई
थी, हमारी कोई इच्छा नहीं थी। जो कपड़े होते थे, उन्हें बस धोते, सुखाते और पहन लेते। इस्तरी-विस्तरी
का कोई झंझट हमने नहीं पाला।
जब शादी हुई तो हमें अपने को थोड़ा सा बदलना पड़ा है।
नीमा जी ने कहा, अपनी छोड़ो, कम से कम हमारा तो ख्याल करो। बात सही थी। कुछ-कुछ बदला। पर फिर भी कपड़ों
के मामले में उनकी और हमारी सहमति बहुत कम बनी। एकलव्य में भी जब तक थे, ऐसा ही चलता रहा। हाँ, अब कपड़ों पर इस्तरी होने लगी
थी। वह भी इसलिए, क्योंकि बेटों की स्कूल यूनीफार्म को धोनें
और उन पर इस्तरी का जिम्मा अमूमन अपने ही पाले में था। सो उनके कपड़ों के साथ दो-चार
हाथ हम अपने कपड़ों पर भी मार ही लेते थे। वरना एकलव्य में ज्यादातर लोगों का यह
हाल था कि बकौल चकमक की साज-सज्जाकार साथी जयाविवेक (जिनका स्वयं का ड्रेस सेंस गजब
का था), ‘लगता है लोग बस बिस्तर से उठकर
मुँह धोकर ही चले आते हैं।’
2009 में एकलव्य को विदा कहकर भोपाल से बंगलौर आने की
तैयारी कर रहा था। मुझे अपने पुराने कपड़े सम्हालते देख उत्सव ने कहा,‘पापा बंगलौर जा रहे हो, वहाँ तो जरा तरीके के कपड़े लेकर
जाओ।’ बात तो उसकी कुछ-कुछ सही ही थी। तब तक हमारी कल्पना में
बंगलौर हमारे लिए विदेश से कम नहीं था। लेकिन इतना समय नहीं था कि नए कपड़े सिलवाए
जा सकें। उत्सव ने कहा, ‘ये दर्जी-वर्जी
का चक्कर छोड़ो, रेडीमेड कपड़े लो।’ नीमा
जी और कबीर ने भी उसका साथ दिया। तब उत्सव ग्यारहवीं में आ गया था। उसमें ड्रेस सेंस
आने लगी थी। (आज की तारीख में तो वह हमारे परिवार में इस मामले में वह सबसे ज्यादा
जागरूक माना जाता है।)
और फिर वह मुझे रेडीमेड कपड़ों की ब्रांडेड दुकानों में
लेकर गया। एक दुकान से दूसरी, दूसरी से तीसरी।
लेकिन कि मामला था कि कुछ जम ही नहीं रहा था। और यह इसलिए नहीं कि मुझे पसंद नहीं आ
रहे थे, इसलिए कि मुझे वे बहुत महँगे लग रहे थे। हारकर उत्सव
ने कहा, ‘पापा, आप
तो रहने ही दो। आप अपने वही झंगा,पजामा टाइप पैंट पहनो।’ वह कुछ-कुछ नाराज और कुछ-कुछ रूआँसा होने को आया था।
मैंने उससे कहा ठीक है एक और दुकान में चलते हैं, बस। फिर जिस दुकान में हम घुसे वहाँ से दो जोड़ी कपड़े लेकर ही बाहर निकले।
उस समय उनकी कीमत कुछ बाइस सौ रुपए थी। कपड़ा खरीदकर सिलवाने में इतने में चार जोड़ी
आसानी से बन जाते। पर अंतत: इस बात की दाद देनी पड़ेगी कि उत्सव की पसंद थी गजब की।
जो कपड़े मैंने खरीदे वे भी मजबूत इतने निकले कि उनका रंग जरूर उड़ गया,पर फटने का नाम नहीं लिया।
आज...उनमें से ही एक शर्ट अंतत: अपने अवसान पर पहुँची
और उसने हमारे घर के पौंछे का रूप धारण कर लिया। यह चमकता हुआ घर उसी की बदौलत है।
हे शर्ट तुझे प्रणाम।
अरे हाँ, जिनके छेड़ने
से यह पोस्ट लिखी गई उनका नाम है अर्चना तिवारी।
0 राजेश उत्साही
हाहाहा...गज़ब का किस्सा :)
ReplyDeleteअरे बाप रे बाप !
ReplyDeleteबहुत खूब किस्सा ए शर्ट