Monday, February 24, 2014

‘घंटा’ के कहानीकार से घंटे भर की मुलाकात



उत्‍सव 2011 से जबलपुर में शासकीय इंजीनियिरिंग कॉलेज में पढ़ रहा है। तब से बीच-बीच में एक-दो दिनों के लिए जबलपुर आना होता रहा है। जबलपुर का जिक्र आते ही दिमाग में एक साथ कई नाम उभर आते हैं। जगहों के नाम, व्‍यक्तियों के नाम, साहित्‍य से जुड़े लोगों के नाम। जैसे लाला रामस्‍वरूप रामनारायण का कैलेंडर बचपन से मैं अपने घर में देखता आ रहा हूं।
  
पर सबसे पहले तो भेड़ाघाट के धुंआधार की मनमोहक छवि आंखों में घूम जाती है। फिर छवि उभरती है सेठ गोविन्‍ददास की। फिर सेठ मोहनलाल हरगोविन्‍ददास की मशहूर शेर छाप बीड़ी का बंडल और उसका धु्ंआ वातावरण में फैल जाता है। धुंआ छंटता है तो फिल्‍मों में हंटर चलाने वाले खलनायक और चरित्र अभिनेता प्रेमनाथ और फिर भिगो-भिगोकर शब्‍दों के हंटर मारने वाले हरिशंकर परसाई सामने आ खड़े होते हैं। अपन ने सबसे अधिक किसी को पढ़ा है तो वे परसाई जी ही हैं। लेकिन एक और नाम ऐसा है जिसके बिना जबलपुर अधूरा लगता है। वह हैं कहानीकार ज्ञानरंजन। जानी-मानी साहित्यिक पत्रिका पहलके संपादक। मैं जब भी जबलपुर आता था, मन करता था कि एक बार ज्ञानरंजन जी से जरूर मुलाकात करूं। लेकिन समय की कमी के कारण यह संभव नहीं हो पा रहा था। इस बार कुछ ऐसा संयोग बना कि एक सप्‍ताह से अधिक समय के लिए जबलपुर में हूं।

इतवार को मैंने नेट पर पहल पत्रिका के एक पुराने अंक से ज्ञान जी का लैंड लाइन नंबर लिया। फोन लगाया। उधर से एक भारी आवाज गूंजी। मैंने नमस्‍कार कहते हुए अपना नाम बताया।
-    हां कहिए..।
-    मैं ज्ञान जी से बात करना चाहता हूं।
-    बोल रहा हूं।
-    आपने पहचाना।
-    हां..हां पहचान लिया।
-    मैं इन दिनों जबलपुर में हूं और आपसे मिलना चाहता हूं।
-    कब तक हो।
-    28 तक।
-    मैं हर रोज मालवीय चौक के सुपरबाजार कॉफी हाउस में सुबह साढ़े ग्‍यारह से एक बजे तक रहता हूं। आप कल वहीं आ जाओ। और कल न आ सको, तो मंगलवार को आ जाओ। एक मुलाकात तो वहीं कर लेते हैं, फिर अगर अलग से समय चाहिए होगा तो बात कर लेंगे।
-    जी बेहतर है। मुझे पहल के अंक भी चाहिए।
-    पुराने अंकों की प्रतियां अब नहीं हैं, नया अंक पुस्‍तक मेले में रिलीज हो रहा है। मैं देखता हूं अगर पुराना एकाध अंक होगा तो साथ लेता आऊंगा।
पहल के पन्‍द्रहवें अंक(1982) से मैं उसका नियमित पाठक रहा हूं। 2008 में 90 वें अंक के प्रकाशन के बाद ज्ञान जी ने पहल का प्रकाशन स्‍थगित कर दिया था। लेकिन पिछले बरस प्रकाशन फिर से आरंभ हुआ है। विश्‍व पुस्‍तक मेले में 95 वां अंक आया है।

बाएं ज्ञानरंजन जी  और दाएं कहानीकार राजेन्‍द्र दानी : फोटो - अरविंद
सोमवार (24 फरवरी,2014) की सुबह ठीक साढ़े ग्‍यारह बजे मैं उत्‍सव के साथ मालवीय चौक के इंडियन कॉफी हाऊस पहुंचा। उत्‍सव मुझे बारह छोड़कर चला गया। अंदर गया। बड़े हॉल में नजर दौड़ाई तो पाया कि रिसेप्शन काउंटर के पास वाली मेज पर चार लोग जमा हैं। ज्ञान जी को फोटो में कई बार देखा था, सो उनकी दाढ़ी वाली शक्‍ल तो जेहन में थी। लगा कि ज्ञान जी जैसे कोई व्‍यक्ति वहां बैठे तो हैं, पर उनकी पीठ मेरी ओर थी, पर बगल से वे ज्ञानजी जैसे ही लग रहे थे। यह दुविधा आधे मिनट से भी कम समय रही होगी। दरवाजे के खुलने की आहट पाकर उन्‍होंने पलटकर देखा था। मेरे नमस्‍कार करने पर वे उठ खड़े हुए। पास की एक कुर्सी खींचकर उन्‍होंने मुझे बैठने का इशारा किया। बाकी तीन लोगों से परिचय कराया। कहा, ये एकलव्‍य और चकमक के संस्‍थापकों में से हैं और आजकल अज़ीम प्रेमजी विश्‍वविद्यालय में हैं। वहां बैठे साथियों में चित्रकार,फोटोग्राफर, पत्रकार आदि थे। ज्ञान जी से अपना ऐसा परिचय सुनकर अच्‍छा लगा। वास्‍तव में ज्ञान जी से परिचय उतना ही पुराना है, जितने एकलव्‍य और चकमक हैं। इसलिए वे एकलव्‍य और चकमक को उनके आरंभ से जानते हैं। 1982 में मैं प्रगतिशील लेखक संघ की होशंगाबाद इकाई का सचिव था, तब ज्ञान जी प्रगतिशील लेखक संघ की मप्र इकाई के महासचिव थे। इस कारण से भी उनके साथ परिचय था। और एक नवोदित लेखक और संपादक का रिश्‍ता भी था। उन दिनों ज्ञान जी के साथ एक अपनी एक कविता को लेकर लंबा पत्र व्‍यवहार चला था। इसका जिक्र मैंने अपने पहले कविता संग्रह वह, जो शेष है में भी किया है। 

ज्ञान जी ने मुस्‍कराकर पूछा, अब भी कविताएं लिखते हो। संभवत: उनकी मुस्‍कराहट की स्‍मृति में वह पत्र व्‍यवहार रहा होगा। पिता’, फेंस के इधर और उधर तथा घंटा जैसी प्रसिद्ध कहानियों के रचियता के सामने मैं बैठा था।

हमारी अनौपचारिक बातचीत शुरू हो गई थी। सुबह ही मैंने फेसबुक पर पहल के 95 वें अंक पर कुमार अंबुज की टिप्‍पणी देखी थी। मैंने ज्ञान जी से इसका जिक्र किया। जितेन्‍द्र भाटिया की एक श्रंखला पहल में चल रही है इक्‍कीसवीं सदी की लड़ाईयां। इस क्रम में अंधेरे के बाद शीर्षक से आलेख में तेल कंपनी 'शेल' और खासतौर पर खनिज कंपनी 'रियो टिंटो' को लेकर विपुलता से चीजें सामने रखी हैं। इस बहाने पहल में प्रकाशित हो रही सामग्री पर ज्ञान जी से बात शुरू हुई। 94 वें अंक में प्रकाशित लाल्‍टू भाई की कविताएं और उस पर शिरीष कुमार मौर्य के महत्‍वपूर्ण लेख का जिक्र भी हुआ। इसी क्रम में अन्‍यान कारणों से चर्चित बंगलौर के एक युवा कवि का जिक्र भी निकला। उससे जुड़े विवाद की जानकारी उन्‍हें नहीं थी। इस बहाने नए लेखक, उनके लेखन पर चर्चा हुई। ज्ञान जी ने कहा इधर कविता, कहानी के अलावा वैचारिक लेखन भी सामने आया है। नए लेखकों को पहचानने, उन्‍हें मौके देने तैयार करने की जरूरत है।
  
मैंने ज्ञान जी कहा कि मैं जब चकमक संपादित कर रहा था, तब से मेरा आग्रह है कि पहल जैसी पत्रिकाओं में बच्‍चों के लिए लिखे जा रहे साहित्‍य पर भी नियमित चर्चा होनी चाहिए। पिछले दिनों पुस्‍तक मेले में कथन की संपादक संज्ञा उपाध्‍याय से हुई बातचीत का जिक्र भी मैंने किया। ज्ञान जी बोले, पहल में हम जरूर ही यह करना चाहेंगे, लेकिन कोई इसकी जिम्‍मेदारी ले। फिर अगले ही क्षण बिना किसी भूमिका के ज्ञान जी बोले, ‘राजेश अब आप पहल के लिए लिखो। 
  
मैंने ऐसे प्रस्‍ताव की अपेक्षा नहीं की थी। मैंने अपने को संभाला और बहुत संकोच के साथ हां में सिर हिलाया और कहा, कोशिश करता हूं। (ऐसे मौकों पर मुझे अनिल(सद्गोपाल)भाई का सबक याद आ जाता है। वे कहते हैं, अगर तुम्‍हें कोई काम न आता हो तो भी उसे करने के लिए मना मत करो। कहो कि कोशिश करोगे। तभी अवसर पैदा होंगे।) ज्ञान जी ने आगे कहा, शैली क्‍या होगी, उसकी सामग्री क्‍या होगी, कितने पेज होंगे यह सब आपको ही तय करना है। 
  
मैंने प्रवेशांक से लेकर 198 वें अंक तक चकमक का संपादन किया है। हर अंक के संपादन के साथ जुड़े हुए कुछ किस्‍से हैं, कहानियां, संस्‍मरण, सबक हैं। जब से मैं बंगलौर गया हूं तब से मेरे मन में इन्‍हें क्रम से लिपिबद्ध करने की बात घुमड़ रही है। थोड़ी कोशिश भी की। लेकिन फिर बात आगे नहीं बढ़ी। इसके लिए एक ब्‍लाग बनाने का भी सोचा। फिर लगा कि अगर कहीं इसके प्रकाशन का कोई सिलसिला जमे तो मुझ पर लिखने का दबाव होगा। आज लगा कि यह अच्‍छा अवसर है। मैंने ज्ञान जी के साथ यह विचार साझा किया। सुनते ही वे बोले, बहुत बढि़या। बिलकुल लिखो। यह एक तरह से चकमक का इतिहास लिखने जैसा होगा, दस्तावेजीकरण भी होगा। इसमें चकमक होगी, आप होंगे और आपके संपादन से जुड़ी बातें भी होंगी। हां यह ध्‍यान रखना कि जो लिखो उससे नए संपादकों को कुछ मदद मिले।
   
ज्ञान जी इसे पहल के आगामी अंक से ही आरंभ करना चाहते हैं। उन्‍होंने वादा किया है तो मैं भी अपना इरादा पक्‍का कर रहा हूं। अपने आपको फिर से जमाने का इससे बढि़या अवसर शायद न मिले।

कॉफी हाऊस में लगातार लोगों का आना-जाना जारी था। लोग आ रहे थे, ज्ञान जी यथायोग्‍य अभिवादन कर बैठते जा रहे थे। पहले से बैठे हुए साथी विदा लेते जा रहे थे। सामने मेज पर एक प्‍लेट में सिकी हुई ब्रेड रखी थी और उसके साथ चाय भी मौजूद थी। इस बीच कथाकार राजेन्‍द्र दानी भी पहुंचे। उनसे भोपाल में एक-दो मुलाकातें हुई हैं। वे हाल ही में मध्‍यप्रदेश विद्युत मंडल से सेवानिवृत हुए हैं और जबलपुर में ही रह रहे हैं। पहल के संपादन से जुड़े हैं। फोटोग्राफर अरविंद भी वहां थे। अरविंद जी के पिता श्री शशिन ने मुक्तिबोध की वह तस्‍वीर ली है जिसमें वे बीड़ी सुलगा रहे हैं। एक अन्‍य प्रसिद्ध फोटोग्राफर रजनीकांत उनके चाचा हैं। यहां जो तस्‍वीर है वह मेरे कैमरे से उन्‍होंने ही ली है।

फिर घर-परिवार की बातें हुईं। उन्‍होंने उत्‍सव का फोन नंबर खुद मांगा और कहा कि कभी यादव कालोनी की तरफ जाना हुआ तो घर आऊंगा। मैंने नीमा का जिक्र किया और कहा कि प्रकाशकांत उनके बड़े भाई हैं। मैं उन्‍हें भी आपसे मिलवाने के लिए यहां लाना चाहता था। यह सुनकर बहुत खुश हुए और बोले कि, अरे नीमा जी से कहो कि कभी घर आएं, हमारी श्रीमती सुनयना जी से भी मिलें। चलो मैं ही किसी इतवार को फोन करके बुला लूंगा। 
  
उत्‍सव मुझे लेने आना वाला था, मैंने उसे फोन किया। वह आया तो ज्ञान जी से उसका परिचय करवाया। ज्ञान जी ने लगभग एक स्‍थानीय अभिभावक के तरह कहा कि हम लोग यहां हैं, कभी भी कोई मदद की जरूरत हो तो बताना। राजेन्‍द्र दानी और अरविंद जी ने भी उनकी बात का समर्थन किया। 

ज्ञान जी पहल 92 के एक प्रति मेरे लिए ले आए थे। मैंने पहल के लिए अपनी वार्षिक सदस्‍यता राशि ज्ञान जी को दी। पता मैंने मेल से भेजने का वादा किया था। असल में बंगलौर का पता इतना लंबा-चौड़ा है कि उसे अंग्रेजी में लिखते हुए अपन हर बार गड़बड़ा जाते हैं, इसलिए बेहतर होता है कि मेल से दूं। अंग्रेजी में देना इसलिए अनिवार्य है कि वहां हिन्‍दी में लिखे पते की डाक पहुंचने में बहुत अधिक समय लगता है। बहरहाल घर आकर मैंने ज्ञान जी को मेल किया।

आज सुबह उनका फोन आया यह बताने के लिए कि मेल मिल गया है और साथ ही यह भी याद दिलाने के लिए मैंने जो लिखने का इरादा किया है, उसे याद रखूं , क्‍योंकि पहल के अगले अंक से वे उसे आरंभ करना चाहते हैं। मेरे मेल में पते के साथ स्‍थायी रूप से मेरे ब्‍लागों की लिंक भी है। ज्ञान जी ने सरसरी तौर पर वे ब्‍लाग भी देख डाले हैं और बताया कि मेरा थोड़ा और परिचय उन्‍हें मिल गया है।

मैंने सोचा था कि इस बार समय मिलेगा तो हम सब यानी कबीर,उत्‍सव और नीमा भेड़ाघाट जाएंगे। लेकिन अचानक बदले हुए मौसम ने इस योजना पर ओले गिरा दिए। फिर भी सतत्‍तर साल के ज्ञान जी से हुई मुलाकात ने इस बार की जबलपुर यात्रा को अविस्‍मरणीय तो बना ही दिया है।
                                               0 राजेश उत्‍साही         

Monday, February 17, 2014

विश्‍व पुस्‍तक मेले में आबिद सुरती के साथ एक शाम




एकलव्‍य में रहते हुए कई पुस्‍तक मेलों में गया। दिल्‍ली में हुए पहले विश्‍व पुस्‍तक मेले में भी भाग लिया। फिर पटना और इंदौर में आयोजित मेलों में भी। लेकिन इन सब मेलों में भागीदारी एकलव्‍य के स्‍टॉल पर व्‍यवस्‍थाएं संभालने के लिए होती थी। यह पहला मौका था, जब मैं पुस्‍तक मेला देखने,घूमने, मित्रों से मिलने के लिए गया था। हालां‍कि बाकी सब कुछ वैसा ही था। वही गांधी शांति प्रतिष्‍ठान में एकलव्‍य के साथियों के साथ ठहरा था। उन्‍हीं के साथ भोजन, चाय,गप्‍प और आईटीओ चौराहे को पार करते हुए प्रगति मैदान में आना-जाना। पुस्‍तक मेले में भी थोड़े थोड़े अंतराल पर एकलव्‍य के स्‍टॉल पर जाना,किसी परिचित को ले जाना। बस कुछ अंतर था तो इतना कि मुझे स्‍टॉल में बैठना या खड़े रहना या वहां की व्‍यवस्‍थाएं नहीं संभालना था।

विश्‍व पुस्‍तक मेले,2014 में आने का कार्यक्रम भी अचानक ही बन गया था। अपने कार्यालयीन काम से देहरादून जाना था और वहां से लौटकर बंगलौर के बजाय भोपाल ही आना था। बीच की तारीखों में पुस्‍तक मेला शुरू हो रहा था। तो बस यह सुखद समय निकल आया। आवास के लिए एकलव्‍य के साथियों से बात की। उन्‍होंने कहा, स्‍वागत है। पता चला था कि इस बार विश्‍व पुस्‍तक मेले में चिल्‍ड्रन लिटरेचर को मुख्‍य थीम बनाया गया है। नेशनल बुक ट्रस्‍ट में सह संपादक और मित्र पंकज चतुर्वेदी को फेसबुक में संदेश भेजा, कि मैं दो दिन पुस्‍तक मेले में हूं। कहीं मेरा उपयोग कर सकते हो तो कर लो। पंकज भाई ने चिल्‍ड्रन पेवेलियन के प्रभारी मानस रंजन महापात्र तक यह संदेश पहुंचाया। मानस जी भी परिचित और मित्र हैं। उन्‍होंने भी कहा, राजेश भाई स्‍वागत है।

अगले ही दिन नेशनल बुक ट्रस्‍ट से औपचारिक निमंत्रण भी आ गया। मुझे 16 फरवरी की शाम को ‘‍कथासागर पंडाल में लेखक से मिलिए कार्यक्रम में रहना था। निमंत्रण में कहा गया था कि आप अपनी 10 प्रकाशित पुस्‍तकें साथ ले आएं। अब अपनी तो गिनती की 3 पुस्‍तकें, 5 कविता पोस्‍टर भर ही प्रकाशित हुए हैं। बाकी सारा काम तो संपादन का ही रहा है, चकमक संपादन का, गुल्‍लक संपादन का, चित्रकथा पुस्‍तकें संपादन का। और जो कुछ है भी वह तो भोपाल में रखा था । मैं तो देहरादून में था। फिर से मानस जी को संदेश भेजा। उन्‍होंने कहा, जितना ला सकते हों ले आएं।  बहरहाल भोपाल में कबीर से बात की। बंद डिब्‍बों में से कुछ चीजें निकलवाईं। उन्‍हें एकलव्‍य के साथी शिवनारायण भोपाल से अपने साथ लेकर आए। देहरादून में पहले रूम टू रीड में कार्यरत रहे और अब अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन के साथी प्रदीप डिमरी से चर्चा की। रूम टू रीड ने कविता पोस्‍टर और एक फिल्‍पबुक और एक कहानी की किताब प्रकाशित की है। प्रदीप के पास फिल्‍प बुक खट्टा-मीठा मिल गई।

पुस्‍तक मेले में जाकर सबसे पहले मानस रंजन महापात्र को खोजा और उन्‍हें अपने वहां होने की सूचना दी। उन्‍होंने कहा कि 16 की शाम को आपका कार्यक्रम आबिद सुरती जी के साथ है। यह सूचना मेरे लिए और अधिक उत्‍साह बढ़ाने वाली थी। मानस जी ने कहा कि आपके पास जो कुछ भी सामग्री है, वह आप कल सुबह लाकर दे दीजिए। साथ ही कुछ चकमक की प्रतियां भी। मैंने वही किया। 

नेशनल बुक ट्रस्‍ट ने बहुत मेहनत से कथासागर का पंडाल बनाया है। उसमें सुबह  11 बजे से रात 8 बजे तक विभिन्‍न कार्यक्रम लगातार आयोजित होते रहते हैं। खुले मंच के सामने दर्शकों के बैठने की व्‍यवस्‍था है। उसके आजूबाजू गैलरी में विभिन्‍न भाषाओं का बालसाहित्‍य बहुत करीने से प्रदर्शित किया गया है। उनके थीम पोस्‍टर बनाए गए हैं। इसमें एकलव्‍य की किताबें भी हैं। एक कोना डॉ. हरिकृष्‍ण देवसरे पर केन्द्रित है। उसमें उनके फोटो तथा पुस्‍तकें रखी गई हैं। एक कोना जाने माने चित्रकार पुलक विश्‍वास पर केन्द्रित है।

शाम हुई। कार्यक्रम शुरू होने में समय था। आबिद जी ने कहा, उनके पास उन पर केन्द्रित एक फिल्‍म है। तब तक उसे देखा जा सकता है। लगभग 10 मिनट की फिल्‍म देखी गई। इस दौरान मैं और आबिद जी साथ बैठे थे। आबिद जी से आटोग्राफ लेने वालों और उनके साथ फोटो खिंचवाने वालों का तांता लगा था। पुस्‍तक मेले में इस्‍लामाबाद से आए एक जनाब वाजिद जी से भी रहा नहीं गया। वे भी आबिद जी को दुआ-सलाम करने चले आए। 

कार्यक्रम शुरू हुआ। मानस जी ने शुरूआती परिचय के बाद, माइक मेरे हाथ में थमा दिया। मेरी तारीफ में वे जितना अधिक से अधिक बोल सकते थे, बोले। इस तारीफ में सारा संदर्भ चकमक का था। असल में चकमक का संपादन ही मेरे काम का असली परिचायक रहा है। तो जब मैं बोलने खड़ा हुआ तो उसमें भी चकमक ही थी। संक्षिप्‍त परिचय के बाद मैंने अपनी प्रसिद्ध कविता आलू,मिर्ची,चाय जी, कौन कहां से आए जी पढ़कर सुनाई। और फिर माइक आबिद सुरती जी को थमा दिया। 

अब आबिद सुरती ठहरे कार्टूनिस्‍ट। आरंभ में उन्‍होंने पानी बचाने को लेकर अपने अभियान के बारे में कुछ बताया। फिर दर्शकों से अनुरोध किया कि वे जरा पास आ जाएं। शाम के इस कार्यक्रम में बच्‍चे होते तो हैं, पर वे अपने अभिभावकों के साथ।
आबिद जी सीधे बच्‍चों से मुखातिब हुए। पूछा, कौन कौन कार्टून बनाना नहीं जानता। एक साथ बहुत सारे बच्‍चों के हाथ खड़े हो गए। उन्‍होंने सब बच्‍चों को आगे बुलाया। सबको एक-एक ड्राइंग शीट दी गई। सब बैठने के अपने मूड़े़ साथ ले आए। मंच उनके लिए टेबिल हो गया। बच्‍चों के बीच स्‍केच पेन,क्रियोन्‍स बांट दिए गए। आबिद जी ने कहा, जब तक मैं न कहूं तक तब तक कुछ न बनाएं। फिर उन्‍होंने सबसे छोटे बच्‍चे को अपने पास बुलाया। संयोग से यह बच्‍चा मित्र अरुण चंद्र रॉय का बेटा था। उससे उन्‍होंने कहा कि वह कागज पर अंडा बनाए। फिर उसी से आंखें बनवाईं और फिर स्‍माइली। जब चित्र बन गया तो बच्‍चे की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। 

उसके बाद तो बकायदा कार्टून बनाने की कार्यशाला शुरू हो गई थी। अपनी भूमिका भी दर्शक की थी। पर अपन ने मंच नहीं छोड़ा। छोड़कर जाते भी कहां। और फिर अपन वैसे भी संपादक ठहरे। काम तो अपना भी बच्‍चों से अभिव्‍यक्त करवाना ही रहा है। वे चाहे लिखकर अभिव्‍यक्‍त करें या फिर चित्र बनाकर। सो यहां वही हो रहा था। 

आबिद जी ने पहले चेहरों के प्रकार बनाकर बताए, फिर नाक के ,आंख के और फिर कान के। फिर उन्‍होंने शरीर के आकार की बात की। उनका बताने का तरीका बहुत रोचक था। वे कैनवास पर कागज की शीट पर मार्कर से आकृतियां बनाते जा रहे थे और साथ ही साथ बच्‍चों से बात भी करते जा रहे थे। वे बच्‍चों से ही पूछते जा रहे थे कि किस तरह की नाक बनाई जाए या कान बनाए जाएं। बच्‍चे बहुत ध्‍यान से यह सब सुन और देख रहे थे।

जब आबिद जी यह सब बता चुके तो उन्‍होंने बच्‍चों से कहा कि अब सब बच्‍चे अपने पापा का चेहरा बनाएं। एक बच्‍ची ने पूछा कि क्‍या मम्‍मी का चेहरा नहीं बना सकते। आबिद जी बोले बना सकते हैं, पर पुरुषों का कार्टून ज्‍यादा अच्‍छा बनता है। उन्‍होंने बच्‍चों से कहा कि अपने पापा का चेहरा याद करें, उनके चेहरे पर कोई तिल है, मूंछ है, दाढ़ी है, वह सब बनाना है। ध्‍यान दें कि चेहरा तिकोना है,गोल है, चौकोर है। आंखें कैसी हैं।

बच्‍चे अपने-अपने पापा के चेहरे का अवलोकन करने में जुटे थे। कोई पापा की आंख देख रहा था, तो कोई नाक। जिसके पापा साथ नहीं थे, वह चेहरा याद कर रहा था। मंच पर चल रही इस रोचक गतिविधि का प्रसारण बाहर बड़ी स्‍क्रीन पर हो रहा था, वहां देखकर लगातार नए नए बच्‍चे इसमें जुड़ने आते जा रहे थे।

जब सब बच्‍चों ने अपना चित्र पूरा कर लिया तो बारी थी उस पर फीडबैक देने की। आबिद जी ने बारी बारी से हर बच्‍चे को उसकी कृति के साथ मंच पर बुलाया। साथ में उसके पापा को भी। दर्शकों से कहा, पहले पापा को देखें और फिर उन्‍हें बच्‍चे द्वारा बनाया गया चित्र दिखाया गया। असली चेहरे और उसके चित्र की तुलना की गई। कुछ बच्‍चों ने अपने भाई का चित्र बनाया था।

आबिद जी ने बच्‍चों को भरपूर रूप से प्रोत्‍साहित किया। उन्‍होंने बच्‍चों से कहा, अगर कुछ कमी रह गई है, तो घर जाकर ध्‍यान से अपने पापा का चेहरा देखना और फिर से बनाना।

यह गतिविधि सचमुच इतनी रोचक थी, कि अगर समय की पाबंदी नहीं होती तो शायद यह रात के दस बजे तक चलती रहती। साढ़े सात बजे इसे बंद करना पड़ा। इस गतिविधि का सबसे महत्‍वपूर्ण पहलू यह था कि इसमें केवल बच्‍चे नहीं उनके अभिभावकों भी शामिल थे। नतीजा यह था कि कार्यक्रम समाप्‍त हो गया था, लेकिन दो माताएं अपने बच्‍चों के लिए और अधिक मार्गदर्शन चाहती थीं। कुछ कोशिश आबिद जी ने की, कुछ मैंने।

तो इस तरह विश्‍व पुस्‍तक मेले में आबिद सुरती के साथ मंच साझा करना और बच्‍चों की रचनात्‍मकता का गवाह बनना मेरे लिए अमूल्‍य अनुभव रहा। 

                                                    0 राजेश उत्‍साही