Sunday, December 29, 2013

समीक्षा : परियां फिर लौट आईं




विष्‍णु प्रसाद चतुर्वेदी जी ने अपनी 25 विज्ञान कथाओं का संग्रह 'परियां फिर लौट आईं' मुझे जुलाई के आसपास अवलोकनार्थ भेजा था। मैं आभारी हूं।  

मैं यहा इस संग्रह पर अपना दृष्टिकोण रख रहा हूं। यह मेरी अपनी अवधारणों तथा चकमक में काम करते हुए बनी हुई समझ पर आधारित है। यह कतई जरूरी नहीं है कि सब लोग इससे सहमत हों, यह भी जरूरी नहीं है कि चतुर्वेदी जी इससे इत्‍तफाक रखते हों। उन्‍हें इसमें से जो बात उचित लगे वे उसे स्‍वीकारें, अपने लेखन में अपनाएं।

अपनी बात कहने से पहले मैं यह भी कहना चाहूंगा कि विज्ञान कथाएं सामान्‍य कथाओं से न केवल भिन्‍न होती हैं, वरन् उनका एक दायित्‍व भी बनता है कि वे विज्ञान के सर्वमान्‍य सिद्धांतों का पालन करें। वैज्ञानिक दृष्टिकोण का समावेश करें। यह इसलिए भी महत्‍वपूर्ण है कि उनके माध्‍यम से विज्ञान की अवधारणाएं पाठकों के बीच पहुंच रही होती हैं।

संग्रह को पढ़ते हुए पहली बात यह महसूस हुई कि वास्‍तव में यह कहानी संग्रह कम विज्ञान लेखों का संग्रह अधिक है। (बल्कि संग्रह में एक वास्‍तविक लेख भी है।) इन्‍हें पढ़ते हुए मुझे चकमक बहुत याद आई। चकमक में हम किसी अवधारणा को समझाने के लिए कथोपकथन का सराहा लेते थे। लेकिन इस बात का ध्‍यान रखते थे कि सैद्धांतिक बातें सीधे-सीधे न आ जाएं।

चतुर्वेदी जी ने विज्ञान के तथ्‍यों को समझाने के लिए कहानी तथा कथोपकथन का सहारा लिया है। लेकिन जब तथ्‍य उसमें आते हैं वहां विज्ञान की किसी पाठ्यपुस्‍तक का ही आभास होने लगता है, कहानी का नहीं। इससे यह भी पता चलता है कि लेखक के दिमाग में यह बात पहले से ही तय थी कि उसे इस तथ्‍य का उपयोग करना ही था। बाकी सारी बुनावट उसे बताने के लिए ही की गई है। पर मुश्किल यही है कि वे इस बुनावट में पूर्णत:सफल नहीं हो पाए हैं।

कुछ कहानियां जैसे अजगर हुआ पंक्‍चर, कहो कैसी रही, ऊंट से मुलाकात, चीकू मिला नेवले से, घंमडी जबरू, मटकू-झटकू की दीवाली पंचतंत्र की याद दिलाती हैं। उससे भी ज्‍यादा वे चंपक की कहानियों की याद दिलाती हैं। मैं इस बात के खिलाफ नहीं हूं कि जानवरों पर कहानियां न लिखीं जाएं। वे लिखी जाएं और उसमें उनके ही परिवेश की बातें हों। पर मुझे यह अजीब लगता है कि जानवरों का मानवीकरण किया जाए और उसमें बातें भी मानवीय परिवेश की हों। हो सकता है कि कुछ बच्‍चे इन्‍हें पढ़कर आनंदित हों। पर यह बात सभी पर लागू नहीं हो सकती।

मक्‍खीचूस,झील की मछलियां, तुम भी दोषी हो, परियां फिर लौट आईं, होली है, टुन्‍ना और तितली,पाप का फल आदि कहानियां का केन्‍द्रीय विषय पर्यावरण है। पर इनमें भी वही समस्‍या है। मुद्दा इतने कृत्रिम तरीके से सामने आता है कि वह प्रभाव ही नहीं छोड़ता। मक्‍खीचूस कुछ बेहतर है। झील की मछलियां बेहतर हो सकती थी, अगर इसमें जादूगर के स्‍थान पर किसी और चरित्र को लाया जाता। जादूगर का चरित्र वैज्ञानिक दृष्टिकोण के खिलाफ जाता है। असंगत प्रसार को समझाने के लिए बेवजह कहानी को खींचा गया है। इसी तरह कुएं का भूत में मंत्र की चर्चा करने से बचने की जरूरत थी। परियां...कहानी पढ़ने के लिए तो जैसे आपको तर्क उठाकर ताक पर रख देने की जरूरत होती है। हां इनमें भोजन का सबक सबसे बेहतर है। पर तार्किक होते हुए भी उसमें सुझाया गया तरीका व्‍यवहार में लाने के लिए नहीं उकसाता। वास्‍तव में सारी कहानियों की यह एक मूल समस्‍या है।

कोई नहीं स्थिर यहां, सब गतिमान हैं, तिथि क्‍यों टूटी, शून्‍य है पृथ्‍वी का भार, महाबली, निशानगर का राजकुमार आदि कहानियां बहुत बोझिल हैं। उनमें शुद्ध रूप से विज्ञान की अवधारणा को समझाने का प्रयत्‍न किया गया है।

सामान्‍यत: कहानियों या कविताओं के साथ जो चित्र होते हैं, उनकी भूमिका होती है कहानी या कविता के मर्म को और उभारना। एक तरह से वे पूरक का काम करते हैं। संग्रह में कहानियों के साथ चित्र भी हैं, पर चित्रकार का नाम नहीं है। अगर नाम या चित्रकार का परिचय होता तो यह समझने में मदद मिलती कि चित्रकार वास्‍तव में कितना परिपक्‍व है। इन चित्रों में तो उसका कच्‍चापन ही झलक रहा है।

संग्रह का आवरण रंगीन है, पर उसमें भी कल्‍पनाशीलता का अभाव ही नजर आता है। आवरण बनाने वाले चित्रकार ने केवल संग्रह के नाम को ही ध्‍यान में रखा है, संग्रह की कहानियों के कथ्‍य को नहीं।  

विष्‍णुप्रसाद चतुर्वेदी जी ने संग्रह की भूमिका में लिखा है कि, कहानी की विषयवस्‍तु बच्‍चों के स्‍तर के अनुकूल हो तथा रोचक हो, उसके लिए घर में बच्चियों का एक प्राथमिक चयन दल बना हुआ है। रचना उनके अनुमोदन के बिना आगे नहीं जाती है। उनका यह प्रयोग एक नई दिशा देता है, लेकिन जरूरत इस बात की है कि बच्‍चों की यह भागादीरी निष्‍पक्ष और ईमानदार तरीके से हो।
  • परियां फिर लौट आईं :विज्ञान बालकथाएं
  • लेखक : विष्‍णुप्रसाद चतुर्वेदी 
  • प्रकाशक : साहित्‍य चन्द्रिका प्रकाशन,जयपुर
  • मूल्‍य : दो सौ रूपए 
                                                0 राजेश उत्‍साही   

9 comments:

  1. धन्यवाद इस समीक्षा के लिए ।

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  2. सम्भवतः आप को चित्रकार का नाम कभी न मिले क्योकि मुख्य पृष्ठ पर जो परी बनी है वो टिंगलबेल है ये डिज्नी की किरदार है , उसे ही देख कर मुझे आश्चर्य हो रहा है , ये तो कोपीराईट का मामला बनता है शायद ।

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  3. डॉ0 मोहम्मद अरशद ख़ानDecember 30, 2013 at 4:32 AM

    मैंने विष्णु प्रसाद जी का कहानी संग्रह नहीं पढ़ा; अतः इस समीक्षा से सहमत-असहमत होने का मतलब नहीं बनता। पर इस लेख में जो मुझे लाख टके की बात लगी वह यह है-
    ''मैं इस बात के खिलाफ नहीं हूं कि जानवरों पर कहानियां न लिखीं जाएं। वे लिखी जाएं और उसमें उनके ही परिवेश की बातें हों। पर मुझे यह अजीब लगता है कि जानवरों का मानवीकरण किया जाए और उसमें बातें भी मानवीय परिवेश की हों।''

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  4. बड़े भाई! आपने जिन कमियों की ओर इंगित किया है वह बिल्कुल उचित जान पड़ता है.. बिना पढ़े उनपर अपना नज़रिया देना मुश्किल होगा.. विज्ञान कथाओं का मुख्य उद्देश्य विज्ञान के विषय को बिना छुए हुए पाठ्यपुस्तक से इतर कुछ कहा जाए. मैंने रेडियो के लिये कई विज्ञान कहानियाँ लिखी थीं और एक नाटक भी.. मगर अब तो वो सब गुज़रे ज़माने के जैसा लगा!!

    किंतु उस पुस्तक में क्या कुछ भी ऐसा नहीं था जिसकी प्रशंसा की जा सके??

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  5. बिना पढ़े.. प्रतिक्रिया देना मुश्किल है। पर जो अभी-अभी पढ़ा है उस पर प्रतिक्रिया दी जा सकती है। पहली बात अभी तक का विज्ञान संगत परिस्थितियों के अस्तित्व पर टिका है। यानि कि ऐसी कोई भी घटना का घटित होना असम्भव है। जो असंगत हो, जिसमें भौतिकी के नियमों का पालन न होता हो !

    जब कभी हम कथा-कहानी लिखते या पढ़ते हैं। या तो उस कथा-कहानी के विचारों से प्रभावित होकर उसे अच्छा कहते हैं। या फिर उस कथा-कहानी में कोई कमी न मिलने के कारण उस लेखक की तारीफ में अपनी प्रतिक्रिया देते हैं। किसी कथा-कहानी में कमी न मिलने का कारण कथा में वैज्ञानिक दृष्टिकोण की मौजूदगी का होना है। और यह तब होगा जब लेखक किसी भी घटनाक्रम में अनिरंतरता को न लाए। क्योंकि न तो कोई घटना अचानक घटित होती है और न ही बिना किसी कारक के घटित होती है। सभी प्रकार की कथा-कहानियों में कमी न मिलने का कारण लेखक द्वारा वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपनाना है।

    वैज्ञानिक कथाएँ वे कथाएँ होती हैं जिनके माध्यम से मान्य वैज्ञानिक तथ्यों (जानकारी के रूप में) को हस्तांतरित किया जा सकता है। यहाँ समझने योग्य महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि सभी वैज्ञानिक तथ्य किसी न किसी सिद्धांत पर आधारित होते हैं। न कि सिद्धांत, तथ्यों पर आधारित होते हैं। गढ़ी-गईं सभी कहानियां वैज्ञानिक दर्जे की होती हैं। जब किसी सिद्धांत विशेष के समकक्ष किसी अन्य सिद्धांत के तथ्यों द्वारा हम किसी नई कहानी की रचना करें और वह कहानी केवल असंगत परिस्थितियों को दर्शाती हो। ऐसी कथा-कहानियाँ साइंस फिक्शन कहलाती हैं।

    राजेश जी, जैसा कि आपने अपने तीसरे पैरा की अंतिम पंक्तियों में कहा है कि वैज्ञानिक अवधारणाओं को वैज्ञानिक कथाओं के जरिये परोसा जाता है आपका ऐसा सोचना गलत है। वैज्ञानिक अवधारणाओं को तो गढ़ी-गई वैज्ञानिक कथाओं (साइंस फिक्शन) में भी परोसा जाता है। परन्तु क्या वे कथाएँ मान्य भौतिकी का उदाहरण होती है नहीं न.. ?? यदि आप गलत माप-दंड लेकर चलेंगे तो कैसे काम बनेगा ! बांकी सभी मापदंड सही हैं।

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  6. हम मनुष्यों की आलोचना सहने और अपनी संस्कृति के विरुद्ध तथ्यों को सुनने और स्वीकारने की एक सीमा होती है। चूँकि विज्ञान अभी नव युवक है उसमें अभी और प्रगति होनी बांकी है। वह आज भी मान्यता सम्बंधित निर्णय (http://www.basicuniverse.org/2013/10/blog-post.html) लेते समय भविष्य की चिंता नहीं करता है, के कारण यह निर्धारित करना मुश्किल है कि कौन-कौन सी परिस्थितियों का अस्तित्व सम्भव है और कौन सी परिस्थितियों का अस्तित्व सम्भव नहीं है। जब हम इस बात से निश्चिंत हो जाएंगे कि हमने सभी कारकों (जिसके कारण भौतिकी में परिवर्तन होते या हो सकते हैं) को जान/ज्ञातकर लिया है। तब हमारी कथा-कहानियों को लिखने का तरीका और लिखने की नीतियों का उद्देश्य बदल जाएगा।

    आज के समय में विज्ञान के विकास की दर बहुत अधिक है। दिन-प्रतिदिन विज्ञान में नई खोजें हो रही हैं जिसके चलते विज्ञान के प्रसार हेतु कौन सी नीति अपनाई जाए कहना मुश्किल होता है। जब विकास की दर कम थी। तब कथाओं के जरिये विज्ञान का प्रचार-प्रसार भली-भांति हुआ। परन्तु आज वही कहानियाँ अंधविश्वास बन कर रह गई हैं। विज्ञान के विकास की यही प्रक्रिया है। इसमें कुछ भी गलत नहीं है !

    यदि हम विज्ञान के प्रचार-प्रसार के लिए बाल-वैज्ञानिक कथाओं का सहारा लेना चाहते हैं। तो हमें लम्बे समय के लिए नीतियों को निर्धारित करना होगा। बचपन में विज्ञान के प्रति उत्साह निर्मित करने वाली और जवानी में उत्साह से निर्मित प्रश्नों के वैज्ञानिक प्रमाण देने वाली कहानियों को लिखना होगा। सम्भावित अवधारणाओं के तथ्यों से निर्मित कहानियों (साइंस फिक्शन) को लिखने का तरीका थोड़ा भिन्न रखना होगा। ताकि बच्चे उसे परम सत्य न मान लें। ऐसी कहानियों से शंकाएँ उठनी चाहिए। ताकि विज्ञान से जुड़ने वाले भविष्य के विद्यर्थी का ध्यान उन शंकाओं का हल ढूंढ़ने में जाए। जो विज्ञान के विकास के लिए आवश्यक है।

    मेरी इसी टिप्प्णी के पहले पैरा की पहली पंक्ति को लिखने का उद्देश यह था कि हमें कथा-कहनियों के जरिये जानवरों के परिवेश के साथ मनुष्यों के परिवेश की अभिव्यक्त करने से नहीं हिचकिचना चाहिए। वैज्ञानिक कथाओं में जानवरों के द्वारा मानवीकरण की अभिव्यक्ति से हम किसी भी व्यक्ति विशेष, जाति विशेष या धर्म विशेष की भावनाओं और संस्कृति (सोच) को ठेस पहुंचाए बिना विज्ञान का प्रचार-प्रसार कर सकते हैं। यह अच्छी योजना हो सकती है।

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  7. मैने किताब तो पढ़ी नहीं..इसलिए कह नहीं सकता..हालांकि आपकी समीक्षा में जो सवाल उठाए गए हैं उसपर लेखक ने कुछ न कहकर सिर्फ धन्यवाद लिखा ये समझ में नहीं आया...वैसे एक बात मुझे खटकी..वो ये है कि बच्चो के लिए लिखी किताब की कीमत 200 रुपए क्यों है. मेरे हिसाब से किताबों कि कीमत इतनी होनी चाहिए कि वो आसानी से हर बच्चे तक पहुंच सके।

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  8. DrZakir Ali Rajnish राजेश जी, समीक्षक कितनी भी ईमानदारी से काम ले, आलोचना होने की स्थिति में सामने वाले को लगता ही है कि उसके साथ पक्षपात हो रहा है। यह मानवीय कमजोरी है, इससे कोई भी नहीं बच पाया है, न आप और न ही मैं।

    1-जाकिर भाई. समीक्षक की ईमानदारी तो सही है मगर लेखक को बेईमान लो नहीं समझा जाना चाहिए। मानवीय कमजोरी की बात समीक्षक पर भी लागू होती है। लेखक बने बिना समीक्षक नहीं बना जासकता। सच है कि समीक्षक की उपाधि किसी विश्व विद्यालय से नहीं मिलती,अनुभव से ही मिलती है। समीक्षक जब अपने को एक सिमित दायरे में बांध कर बात करने लगता है तो परेशानी होती है। विज्ञान केवल एक विधि है, जिसके माध्यम से सत्य खोजा जाता है मगर विज्ञान किसी सच को नहीं स्वीकारती। समीक्षक, अपनी बात को सत्य सिद्ध करने के प्रयास करते हैं तो परेशानी होती है। राजेश जी ने कुँए का भूत कहानी को जिस आधार गलत बताया आपने उसी आधार पर दिल्ली में बड़े मंच पर सराहा है। आपके शब्द हैं- गाँवों में आज भी यह मान्यता है कि जो स्थान खाली पड़े रहते हैं, वहाँ पर भूत-प्रेत लेते हैं। यदि ऐसी जगहों पर मनुष्य गल्ती से चले भी अपना डेरा जम जाते हैं, तो भूत-प्रेत उनकी जान ले लेते हैं। विष्णु प्रसाद चतुर्वेद की कहानी ‘कुँए में भूत’ इसी विषय पर केन्द्रित है, जिसमें लेखक ने बहुत ही रोचक ढ़ंग से भूतिया घटनाओं का वर्णन किया है और उसके पीछे के रहस्य को उद्घाटित किया है। मेरे जैसा सीखने वाला किस समीक्षक को सत्य माने?
    2-राजेश जी,भूत,प्रेत,तन्त्र,मंत्र,जादूगर,धर्म,आध्यात्म आदि शब्दों को बच्चों के शब्दकोश से निकालना चाहते है जो कि आज संभव नहीं है। इन शब्दों के प्रयोग से ही कोई कहानी खराब नहीं हो जाती। यह देखा जाना चाहिए कि शब्द का प्रयोग किस प्रकार किया गया है। कहानी में उठाए गए विषय को भी महत्व दिया जाना चाहिए।
    3- विज्ञान शब्द सांइस का पर्याय नहीं है, विज्ञान में साहित्य व भाषा भी समावित है। अतः हमें खुलेपन से विचार करना चाहिए। मेरा मानना है कि आलोचना रचना कि होती है,व्यक्ती की नहीं। नया व्यक्ती भी अच्छी रचना लिख सकता है। वरिष्ठ लेखक की प्रत्येक रचना अच्छी ही होगी यह आवश्यक नहीं। विचार विमर्श से कुछ अच्छा निकाल सकें यह प्रयास होना चाहिए।
    4-आपने विज्ञानकथा व विज्ञान कहानी की बात को प्रारम्भ करके बीच में ही छोड़ दिया। आप दोनों को एक ही मान कर चल रहे हैं। आपने मेरी एक कहानी- नीली पहाड़ी के पीछे, को विज्ञान कथा कह कर अपने दो संग्रहों में स्थान दिया है जबकि मैं उन्हें विज्ञान कथा ( सांइस फिक्शन ) नहीं मानता क्योंकि उन में विज्ञान की कोई कल्पना नहीं है। आशा है मेरी बात को अन्यथा नहीं लेंगे। धन्यवाद।
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