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पहली बात अगर आपने अब तक न देखी हो तो तुरंत देख डालिए। वैसे कहानी तो थोड़ी बहुत आप सुन या पढ़ ही चुके
होंगे।घबराइए मत मैं कहानी आपको नहीं बताऊंगा। क्योंकि ऐसी फिल्मों की कहानी एक
बार पता चल गई तो फिर सारा मजा जाता रहता है।हां कुछ क्लू जरूर दे देता हूं।गिने-चुने पात्रों के बीच घूमती प्रेम कहानी है।पर सीधी नहीं,जिंदगी की तरह
टेड़ी और जिंदगी की तरह ही जिदृदी।शायद इसीलिए उसे फिल्माने के लिए दार्जिलिंग की उतार-चढ़ाव भरी लोकेशन चुनी गई।
पहली बार परदे पर प्रियंका चोपड़ा को उस नजर से नहीं
देखा,जिस नजर से आमतौर पर उनकी फिल्मों में उन्हें देखता रहा हूं।सच कहूं तो वे
किसी भी एंगल से प्रियंका चोपड़ा लगी हीं नहीं।शुरू के कुछ दृश्यों में तो यह शक
ही होता रहा कि क्या हम सचमुच प्रियंका चोपड़ा को ही देख रहे हैं या कोई और है।यह निर्देशक अनुराग बासु का कमाल ही कहा जाएगा।पर फिर भी वे जितनी देर परदे पर
रहीं, अपने ऊपर से नजर हटाने नहीं दे रहीं थीं,यह उनके अभिनय का कमाल था।पिछले कुछ सालों में कई ग्लैमरस हीरोइनों ने यह बात साबित की है कि अगर निर्देशक में दम हो तो वह उनसे अभिनय भी करवा सकता है।
इलिना डि'क्रूज जितनी सुंदर हैं,उतनी ही सुंदरता
उनके अभिनय में भी है। दोनों ही वजहों से नजर उन्होंने भी अपने पर से हटाने नहीं दी।उनका चेहरे और आंखों में गजब की अभिव्यक्ति क्षमता है।हां,बुढ़ापे के रोल में वे प्रियंका के मुकाबले फीकी पड़
जाती हैं।पर यह दोष उनका उतना नहीं है,जितना मेकअप करने वाले का या फिर निर्देशक का।फिर भी मैं उन्हें प्रियंका के बराबर ही खड़ा करूंगा।
रणवीर कपूर ने एक बार फिर साबित किया कि उन्हें अभिनय आता है।एक छोटे से कस्बे के एक आजाद युवा की भूमिका में ,आजाद कल्पना करने वाले बर्फी के रूप में वे खूब जमे हैं।सबसे दिलचस्प बात उनके किरदार की है कि वह अपनी कमियों पर उनका अफसोस नहीं मनाता,बल्कि उनका मजाक उड़ाता है। और यह भी कि कुछ भी करने या सोचने में उन कमजोरियों को बाधा नहीं बनने देता।रणवीर ने इस किरदार में उतरकर उसे जिया है।
प्रियंका और रणवीर दोनों के हिस्से में संवाद थे ही नहीं और कहानी के मुताबिक न उनकी गुजाइंश थी। इसलिए ऐसे दृश्य रचने की जरूरत थी जो बिना संवाद के ही सब कुछ कह दें। और वे रचे गए। इन दृश्यों को जीवंत बनाने में बैकग्राउंड म्यूजिक का बहुत बड़ा हाथ है।संवाद तो इलिना के लिए भी नहीं थे,पर जो थे उन्हें उनके मुंह से सुनना अच्छा लगता है।पुलिस इंस्पेक्टर के रोल में कल्लू मामा यानी सौरभ शुक्ला भी अपनी चिरपरिचित अदाकारी के साथ मौजूद हैं।उनका मेकअप जिसने भी किया है,गजब किया है। उनकी युवावस्था और बुढ़ापे दोनों में स्पष्ट अंतर दिखता है।
दार्जिंलिंग की लोकेशन और वहां की बच्चा गाड़ी या
जिसे टॉय ट्रेन कहते हैं फिल्म की पहचान जैसी बन जाती है।निर्देशक ने हमें वह भी दिखाया जो पहले कभी हमने दार्जिलिंग की लोकेशन में नहीं देखा था।
स्वानंद किरकिरे, नीलेश मिश्रा और तमाम अन्य
गीतकार आजकल जिस तरह के गीत लिख रहे हैं,उन्हें सुनना अच्छा लगता है।इस फिल्म के गीत भी कुछ ऐसे ही हैं।पहली बार
प्रीतम का संगीत मुझे इतना शीतल लगा।फिल्मांकन बहुत अच्छा है।संपादन भी कसा हुआ।
इस बात के लिए तैयार रहिए कि इस साल के कई सारे पुरस्कार यह फिल्म बटोर सकती है।
आज की फिल्मों पर अतीत की छाया भी पड़ती दिखाई देती है। मैं उसे बुरा नहीं मानता,अगर उसे ज्यों का त्यों दोहराया नहीं जा रहा हो।यह भी कहीं कहीं कमला हसन की दो फिल्मों पुष्पक और सदमा की याद ताजा कर देती है। एक और बात इसके प्रचार-प्रसार में कहा जा रहा है कि यह एक रोमांटिक कॉमेडी है। मेरे ख्याल से यह इस फिल्म और इसकी कहानी के साथ सरासर अन्याय है। बल्कि जिन किरदारों की यह कहानी है उनका अपमान है।वे कॉमेडी के पात्र नहीं हैं। वे जिंदगी की हकीकत हैं।
आज की फिल्मों पर अतीत की छाया भी पड़ती दिखाई देती है। मैं उसे बुरा नहीं मानता,अगर उसे ज्यों का त्यों दोहराया नहीं जा रहा हो।यह भी कहीं कहीं कमला हसन की दो फिल्मों पुष्पक और सदमा की याद ताजा कर देती है। एक और बात इसके प्रचार-प्रसार में कहा जा रहा है कि यह एक रोमांटिक कॉमेडी है। मेरे ख्याल से यह इस फिल्म और इसकी कहानी के साथ सरासर अन्याय है। बल्कि जिन किरदारों की यह कहानी है उनका अपमान है।वे कॉमेडी के पात्र नहीं हैं। वे जिंदगी की हकीकत हैं।
सच कहूं तो अनुराग बासु ने कमाल की फिल्म बनाई है।
0राजेश उत्साही