Sunday, August 14, 2011

कैडेट नंबर MPJD 34251 और पंद्रह अगस्‍त की याद


1973 का साल था। मुरैना जिले की सबलगढ़ तहसील में नौवीं में पढ़ता था। स्‍कूल में राष्‍ट्रीय कैडेट कोर की जूनियर डिवीजन (थलसेना विंग) की बटालियन  32 MP BN NCC,MORENA(MP) थी। उसका ‘ए’ सर्टीफिकेट प्राप्‍त करने के लिए दो साल का कोर्स था। तो हम भी उसमें भर्ती हो गए थे। हमारा कैडेट नंबर MPJD 34251 थानियमानुसार सबको दो जोड़ी खाकी हाफ पेंट और कमीज मिलती थीं। एक जोड़ी मिलिटरी जूते, जुराबें, बेल्‍ट और कैप भी साथ मिलती थी। पर ड्रेस कम होने के कारण कई अन्‍य के साथ मुझे भी एक जोड़ी ही मिली थी और कैप भी नहीं मिली थी। हफ्ते में दो दिन शाम के समय लेफ्ट-राइट परेड और दूसरे अभ्‍यास करवाए जाते थे। जिसके लिए ड्रेस को धोकर,कलफ लगाकर कड़क प्रेस करके तैयार करना होता था। जूते चमकाने होते थे, बेल्‍ट का बक्‍कल भी चमकाना होता था। कहना न होगा कि यह सब करने में मजा भी आता था, लेकिन कई बार इसमें आलस करने पर ग्राउंड में चक्‍कर लगाने की सजा भी मिलती थी। 26 जनवरी और 15 अगस्‍त पर खास तैयारी होती थी।
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पहले ही साल पंद्रह अगस्‍त आया तो उसकी परेड के लिए जाना था। 14 अगस्‍त को इतनी बारिश हुई कि जो ड्रेस धोकर और कलफ लगाकर डाली थी, वह पूरी तरह सूखी ही नहीं। उन दिनों घर में पत्‍थर के कोयले की सिगड़ी जलती थी। लोहे की स्‍तरी यानी प्रेस घर में थी। हमने कोयले उसमें भरने की बजाय उसे ही सिगड़ी पर रख दिया। गरम हुई तो प्रेस करके गीले पेंट को सुखाने लगे। लेकिन वह कुछ इतना ज्‍यादा सूख गया कि उसमें से हम आरपार देख सकते थे। अब समस्‍या थी कि अगले दिन क्‍या पहनकर जाएंगे। तभी एक ऐसे दोस्‍त का ख्‍याल आया, जिसे दो जोड़ी ड्रेस मिली थी। भागे-भागे उसके पास गए। उसके पास दूसरा पेंट तो था, पर वह धुला हुआ नहीं था। हमने कहा भैय्ये जैसा है वैसा दे दो। उस पर संभालकर प्रेस चलाई और जैसे-तैसे पंद्रह अगस्‍त की परेड निपटाई। बाद में जला हुआ पेंट जमा हो गया और कुछ जुर्माना भरने के बाद नया पेंट भी मिल गया।
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आमतौर पर हर स्‍कूल में एनसीसी में सब छात्रों को अभ्‍यास के लिए रायफल दी जाती थी। लेकिन हममें से किसी ने भी रायफल की शक्‍ल ही नहीं देखी थी, अभ्‍यास तो दूर की बात है। चांदमारी के नाम पर हम लोग बस पत्‍थर से निशाना लगाकर ही अपने आपको देश के बहादुर सैनिक समझ लेते थे। हर बैच को एक विशेष शिविर के लिए शहर या गांव से बाहर ले जाया जाता था। लेकिन हम ऐसे कैडेट थे कि हमें यह मौका भी नहीं मिला। बस शिविर की घोषणा भर हुई कि सबको गुना के पास बजरंगगढ़ जाना है। ऐन वक्‍त पर पैसे की कमी बताकर उसे रद्द कर दिया गया।  
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अब तो भ्रष्‍टाचार शब्‍द अचार की तरह मशहूर है। कोई राह चलता बच्‍चा भी उसकी व्‍याख्‍या अच्‍छी तरह कर देगा। दसवीं में हिन्‍दी के अध्‍यापक ने यह चुनौती दी थी कि किसी ऐसे विषय पर निबंध लिखकर लाओ, जिस पर कोई और सोच भी नहीं सके। बड़ा मुश्किल काम था यह। आमतौर पर सब लोग उन दिनों ‘विज्ञान के चमत्‍कार’ पर ही निबंध लिखा करते थे। लेकिन मैंने भ्रष्‍टाचार पर निबंध लिखकर न केवल शिक्षक को बल्कि अपने आप को भी चौंकाया था।
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भ्रष्‍टाचार होता क्‍या है, इसका पहला अनुभव मुझे उन्‍ही दिनों हुआ था। मुझे कैप नहीं मिली थी। बिना कैप लगाए ही परेड तथा दूसरी गतिविधियों में शामिल होना पड़ता था। जब दसवीं का सत्र खत्‍म हुआ तो ड्रेस जमा करने की बारी आई। मुझसे कहा गया कि कैप आपको इश्‍यू की गई थी, आपने खो दी है। उसकी कीमत जमा करनी पड़ेगी। मैंने बहुत समझाने की कोशिश की। लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। जो प्रभारी शिक्षक थे वे इस बात पर अड़े रहे कि मुझे कैप इश्‍यू की गई थी। घर आकर पिताजी को सारी बात बताई। पिताजी ने भी कहा, जब वे कहते हैं तो दी ही होगी। मैंने उन्‍हें भी समझाने की कोशिश की।

उन दिनों तस्‍वीरों को कांच के फ्रेम में मढ़वाकर घर में लगाने का रिवाज आम था। सो हमने भी यह तस्‍वीर लगाई हुई थी। हमारी बहस के दौरान पिताजी की नजर इस तस्‍वीर पर पड़ी। उन्‍होंने तस्‍वीर दीवार से उतारी और कहा, इसे ध्‍यान से देखो। मैंने तस्‍वीर देखी। फिर पिताजी को देखा। फिर तस्‍वीर देखी। एक बार फिर पिताजी को देखा। मेरे दिमाग की बत्‍ती जल चुकी थी।

तस्‍वीर लेकर अगले दिन मैं स्‍कूल पहुंचा। प्रभारी शिक्षक के सामने तस्‍वीर रखकर बोला, आप ही बताइए कि अगर मेरे पास कैप होती तो मैं इस ग्रुप फोटो में बिना कैप पहने क्‍यों होता। शिक्षक ने एक नजर तस्‍वीर को देखा और फिर मुझे। उन्‍होंने भी दो बार ऐसा किया। उनके दिमाग की बत्‍ती जलने के बजाय बुझ गई थी। शिक्षक के पास इस तर्क का कोई जवाब नहीं था। वास्‍तव में कैप कहां थीं, यह आप भी इस तस्‍वीर से पता कर सकते हैं। शिक्षक महोदय भी इस तस्‍वीर में हैं उन्‍हें तो आप पहचान ही सकते हैं, लेकिन मैं कहां हूं, यह पता करने के लिए आपको दिमाग की बत्‍ती जलानी होगी।
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इस स्‍वतंत्रता दिवस पर सबकी बत्तियां जलें , पर उनकी नहीं जो देश की बत्तियां बुझाने पर तुले हैं।
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चल‍ते चल‍ते
वह भी पंद्रह अगस्‍त ही था जब छोटे भाई सुनील ने 1977 में इस दुनिया को अपना आखिरी सलाम कहा था। और उस दिन भी पंद्रह अगस्‍त ही था जब घर में छोटे बेटे उत्‍सव ने किलकारी भरी थी। आज उसकी बीसवीं सालगिरह है।
                                       0 राजेश उत्‍साही

10 comments:

  1. उत्सव को सालगिरह पर अनंत शुभकामनाएं और आशीष।
    फोटो में एक से अधिक बालक हैं जिन्होने केप नहीं लगाई है। वे यही तर्क दे पाए होंगे या नहीं।

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  2. टोपी सलामत रहे.

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  3. स्वतंत्रता दिवस की शुभकानाएं


    वाह राजेश भाई वाह...इस व्यंग्यात्मक लेख के लिए बधाई स्वीकारें

    नीरज

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  4. बेटे उत्सव के जन्मदिन की बधाई !
    बत्तिया इसलिए बुझाई थी ताकि सत्ता में बैठे कुछ लोगों के दिमाग की बत्तिया जल सके और उससे सारा देश रौशन हो जो आज भी अँधेरे में जी रहा है भूखे मर रहा है जिसके लिए किसी भी उत्सव का कोई मतलब नहीं है |

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  5. तस्वीर देखी और देखा कई कैडेट्स के सिर खाली थे.. सबों ने जुर्माना भरा या आपकी तरकीब उनके भी काम आयी.. आपको पहचानने का वो जरिया भी जाता रहा..
    हार गए बड़े भाई! अब आप ही बता दीजिए!!

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  6. सच बीते लम्हें हमें कितना कुछ सिखाती है..कभी रुलाती,कभी हंसाती,कभी दुःख तो कभी खुशियाँ देकर जिंदगी चलाती रहती है...
    पढ़ते-पढ़ते एक यादों का यह सफ़र एक रील की तरह सामने से गुजर गया.....
    यह नियति ही है की एक तरफ जिस दिन आपके छोटे भाई चल बसे उसी दिन पंद्रह अगस्‍त को आपके घर में छोटे बेटे उत्‍सव ने किलकारी भरी थी। ...जाने वालों की याद ऐसे मौको पर बहुत आती हैं लेकिन कोई लाख चाहने पर भी कुछ नहीं कर सकता... बेटे को उसकी बीसवीं सालगिरह की बहुत बहुत हार्दिक शुभकामनायें..
    सादर
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  7. बीते लम्हे बडे अच्छे लगते हैं, हमेशा ही....

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  8. AApko Ganesh chaturthi ki bahut bahut haardik shubhkamnayen..

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जनाब गुल्‍लक में कुछ शब्‍द डालते जाइए.. आपको और मिलेंगे...