Sunday, August 14, 2011
Sunday, August 7, 2011
Monday, August 1, 2011
गोरख पाण्डेय का गीत समझदारों के नाम
हवा का
रुख कैसा है, हम
समझते हैं
हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं , हम समझते हैं
हम समझते हैं खून का मतलब
पैसे की कीमत हम समझते हैं
क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है , हम समझते हैं
हम इतना समझते हैं
कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं।
हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं , हम समझते हैं
हम समझते हैं खून का मतलब
पैसे की कीमत हम समझते हैं
क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है , हम समझते हैं
हम इतना समझते हैं
कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं।
चुप्पी
का मतलब भी हम समझते हैं
बोलते हैं तो सोच-समझकर बोलते हैं हम
हम बोलने की आजादी का
मतलब समझते हैं
टुटपुंजिया नौकरी के लिए
आजादी बेचने का मतलब हम समझते हैं
मगर हम क्या कर सकते हैं
अगर बेरोजगारी अन्याय से
तेज दर से बढ़ रही है
हम आजादी और बेरोजगारी दोनों के
खतरे समझते हैं
हम खतरों से बाल-बाल बच जाते हैं
हम समझते हैं
हम क्यों बच जाते हैं , यह भी हम समझते हैं।
बोलते हैं तो सोच-समझकर बोलते हैं हम
हम बोलने की आजादी का
मतलब समझते हैं
टुटपुंजिया नौकरी के लिए
आजादी बेचने का मतलब हम समझते हैं
मगर हम क्या कर सकते हैं
अगर बेरोजगारी अन्याय से
तेज दर से बढ़ रही है
हम आजादी और बेरोजगारी दोनों के
खतरे समझते हैं
हम खतरों से बाल-बाल बच जाते हैं
हम समझते हैं
हम क्यों बच जाते हैं , यह भी हम समझते हैं।
हम
ईश्वर से दुखी रहते हैं अगर वह
सिर्फ कल्पना नहीं है
हम सरकार से दुखी रहते हैं
कि समझती क्यों नहीं
हम जनता से दुखी रहते हैं
कि भेड़ियाधसान होती है।
सिर्फ कल्पना नहीं है
हम सरकार से दुखी रहते हैं
कि समझती क्यों नहीं
हम जनता से दुखी रहते हैं
कि भेड़ियाधसान होती है।
हम
सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं
हम समझते हैं
मगर हम कितना दुखी रहते हैं यह भी
हम समझते हैं
यहां विरोध ही बाजिब कदम है
हम समझते हैं
हम कदम-कदम पर समझौते करते हैं
हम समझते हैं
हम समझौते के लिये तर्क गढ़ते हैं
हर तर्क गोल-मटोल भाषा में
पेश करते हैं , हम समझते हैं
हम इस गोल-मटोल भाषा का तर्क भी
समझते हैं।
वैसे हम अपने को किसी से कमहम समझते हैं
मगर हम कितना दुखी रहते हैं यह भी
हम समझते हैं
यहां विरोध ही बाजिब कदम है
हम समझते हैं
हम कदम-कदम पर समझौते करते हैं
हम समझते हैं
हम समझौते के लिये तर्क गढ़ते हैं
हर तर्क गोल-मटोल भाषा में
पेश करते हैं , हम समझते हैं
हम इस गोल-मटोल भाषा का तर्क भी
समझते हैं।
नहीं समझते हैं
हर स्याह को सफेद और
सफेद को स्याह कर सकते हैं
हम चाय की प्यालियों में
तूफान खड़ा कर सकते हैं
करने को तो हम क्रांति भी कर सकते हैं
अगर सरकार कमजोर हो
और जनता समझदार
लेकिन हम समझते हैं
कि हम कुछ नहीं कर सकते हैं
हम क्यों कुछ नहीं कर सकते हैं
यह भी हम समझते हैं।
0 गोरख पाण्डेय
(1945 में जन्मे और 1989 में इस दुनिया से विदा हुए गोरख पाण्डेय की यह कविता समझदारों के लिए आज भी उतनी ही मौजूं है, जितनी लिखते समय रही होगी।)
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