पान,बीड़ी-सिगरेट,तम्बाकू न शराब
अपन को मोहब्बत का नशा है जनाब
जब मैं कहता हूं कि मैंने अब तक शराब,बीड़ी,सिगरेट और तम्बाकू या अन्य किसी नशे की चीज को हाथ भी नहीं लगाया है तो लोग अफसोस जताते हुए कहते हैं उत्साही जी आपने यह क्या किया। आपने जिंदगी का मजा लिया ही नहीं। क्या सचमुच?
सोचता हूं आखिर मैं कैसे बचा रहा। मित्र मण्डली में भी बीड़ी- सिगरेट पीने वाले दोस्त रहे। तम्बाकू खाने वालों की संख्या भी अच्छी खासी रही। फिर भी कभी मन नहीं हुआ। जब 16-17 साल का था तो दो साल घर से बाहर रहने का अवसर भी आया। लेकिन वहां भी ये आदतें नहीं पाल सका। पिछले दो साल से बंगलौर में हूं घर से दूर। कोई भी देखने वाला या टोकने वाला नहीं है,फिर भी इन नशों को नस में उतारने का मन नहीं हुआ। न जाने क्यों ?
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घर में पिताजी और दादी को मछली खाने का शौक था। सो जब तब घर में बनती तो खाना ही पड़ता। हालांकि मुझे कभी पसंद नहीं रही। मछली में कांटे होते हैं, खाते समय बहुत संभालकर खाना पड़ता है।मुझे यह हमेशा झंझट का काम लगता था। फिर जिस दिन घर में मछली बनती उस दिन घर का माहौल तनाव पूर्ण हो जाता, क्योंकि मां को यह पसंद नहीं था। वे रोटियां बना देतीं, मसाला पीसकर दे देतीं। सिगड़ी को रसोई से बाहर आंगन में निकालकर रख देतीं।पिताजी से कहतीं, यहीं बनाओ और यहीं खाओ। अच्छी बात यही थी कि ऐसा मौका महीने में एकाधबार ही आता। आमतौर पर पिताजी अपना यह शौक बाहर ही पूरा कर लेते। जब कभी दादी का मन होता तभी घर में मछली बनती।
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शादी हुई तो श्रीमती जी मटन और चिकन की शौकीन निकलीं। पर बस इतनी कि महीने में उन्हें एक-दो बार ही खाना अच्छा लगता। पर उसी बीच अंडे ने अपनी उपलब्धता के कारण रसोई में अपनी उपस्थिति अनिवार्य बना ली थी। आमतौर पर शाम के वक्त अगर कुछ अधिक खाने या बनाने का मन न हो तो अंडे की भुर्जी पहली पसंद होती। खासकर बच्चों की, जो सब्जियों के नाम सुनते ही बिदक जाते।
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फिर एक दिन अचानक कुछ ऐसा हुआ कि मैं शुद्ध शाकाहारी हो गया। अंडा तक खाना छोड़ दिया। बात 1998 की है जब बुद्ध फिर मुस्कराए थे। (भारत ने 11 मई 1998 को दूसरा परमाणु परीक्षण किया था। 'बुद्ध मुस्कराए', 1974 में किए गए पहले परमाणु परीक्षण का कोडवर्ड था।) मेरे पास इसका कोई ऐसा कारण नहीं है जिसे मैं तर्क के रूप में रख सकूं। पर हां पिछले 12 सालों से मैं अपने प्रण पर कायम हूं। यहां दोपहर में कैंटीन में अन्य साथी सामने ही बैठकर नानवेज खाते हैं। पर मुझे न तो कभी कोई समस्या हुई और न ही कभी मन किया कि फिर शुरू किया जाए। श्रीमती जी और बच्चे अब भी खाते हैं। हां पर बहुत नियमित नहीं। दो-तीन महीने में एकाध बार। अंडा तो उनसे भी छूट गया है।
अपने इस प्रण से मुझे यह ताकत तो मिली कि अगर मैं किसी चीज से दूर रहने या उसे छोड़ने का मन बना लूं तो वह कर सकता हूं।
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एक और चीज है जो अब आदत नहीं रही। पहले सुबह-सुबह अगर एक कप चाय न मिले तो लगता था कि दिन शुरू ही नहीं होगा। पर अब तो कई बार इसके बिना ही दिन गुजर जाता है।
पिछले दो साल में दो और चीजें मुझ से दूर हो गई हैं। पहली टीवी और दूसरी अखबार। पहले सुबह-शाम के दो-तीन घंटे टीवी के सामने ही गुजरते थे। अखबार भी रोज आधा पौना घंटा खाता ही था। लेकिन यहां बंगलौर आया तो टीवी नहीं लिया। हिन्दी अखबार मिलता नहीं है और अंग्रेजी अखबार अपने से पढ़ा नहीं जाता। शायद यही वजह है कि ब्लागिंग का यह नया शौक लग गया। पर कोशिश यही है कि इसका नशा भी सिरकर चढ़कर न बोले ।
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...और मोहब्बत। उसके तो अपन लती हैं और हमेशा रहेंगे।
0 राजेश उत्साही