Friday, October 22, 2010

विकल्‍प : एक और लघुकथा

‘डॉक्‍टर साहब!’
‘हूं।’
‘क्‍या आपको ऐसा कोई अधिकार नहीं है ?’
‘कैसा?’ डॉक्‍टर ने इंजेक्‍शन लगाते हुए पूछा।
‘कि आप मुझे दिसम्‍बर के पहले मार डालें।’


डॉक्‍टर ने अचकचा कर रामलाल की ओर देखा। वह रोज-रोज ऐसे उल्‍टे-सीधे सवालों से डॉक्‍टर को उलझन में डाल देता है। आजकल उसका मानसिक संतुलन ठीक नहीं है। पर आज दिसम्‍बर शब्‍द जोड़कर रामलाल ने बात को रहस्‍यमय बना दिया।
झल्‍ला कर डॉक्‍टर ने पूछा-
‘आखिर रामलाल तुम जीना क्‍यों नहीं चाहते हो ?’
‘जीना।’ रामलाल ने एक फीकी हंसी हंसते हुए कहा,‘डॉक्‍टर साहब कैंसर का रोगी भी कभी बचता है। आठ महीने हो गए,यहां पड़े-पड़े। घर किस तरह चलता है, भगवान ही जानता है। बड़ा लड़का एमए पास करके मारा-मारा घूम रहा है, आप जानते हैं न?’
‘जानता हूं।’
‘दो लड़कियों की शादी होना है।’
‘वह भी जानता हूं।’ डॉक्‍टर ने कहा, ‘पर क्‍या दिसम्‍बर के पहले मर जाने से तुम्‍हारे लड़के की नौकरी लग जाएगी या लड़कियों की शादी हो जाएगी?’
‘हां,डॉक्‍टर साहब।’

डॉक्‍टर चौंक गया। उसे स्‍वीकारात्‍मक उत्‍तर की आशा नहीं थी। वह रामलाल के अगले वाक्‍य का इंतजार करने लगा।
‘डॉक्‍टर साहब मुझे दिसम्‍बर में रिटायर होना है। अगर दिसम्‍बर के पहले मर गया तो मेरे बदले मेरे बेटे को नौकरी....।’ 
                                                       0 राजेश उत्‍साही
(कमलेश्‍वर द्वारा संपादित पत्रिका ‘कथायात्रा’ के जून 1980 अंक में प्रकाशित।) 

22 comments:

  1. ओह ! यही त्रासदी है……………कुछ कहने मे असमर्थ हूँ।

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  2. वाह, वाह रे दुनिया ! बहुत सुन्दर लघु कथा !

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  3. मार्मिक...पिता की चिन्ता ..

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  4. मार्मिक लघुकथा ...
    बहुत अन्दर तक चोट करती हुई

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  5. मर्मस्पर्शी रचना,

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  6. बहुत सुन्दर, अन्दर तक चोट करती लघु कथा !

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  7. बड़े भाई, क्या वेदना है इस लघुकथा में... एक विडम्बना और विभीषिका समाज की, एम.ए.पास बेरोज़गार और दहेज बिना मायके की दहलीज से बँधी बिटिया... बस बाबा भारती, और नहीं लिखा जाता!

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  8. राजेश जी,
    इस लघु-कथा नें पीडा और वेदना से संतप्त कर दिया।
    जीवन जब असहज बनता है तो क्षोभ से ऐसा अर्ध्य सूझता है।

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  9. बहुत ही मार्मिक और प्रभावशानी कहानी।

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  10. मार्मिक पर एक ऐसी घटना देख चुका हूँ।

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  11. हमारे कई रिटायरमेंट के करीब शिक्षक साथी अक्सर यही कामनाएं करते पाए जाते हैं !!

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  12. वर्तमान में बच्चों की यह शिकायत कि 'आप ने हमारे लिए किया ही क्या है' - इस मानसिकता को जन्म देती है. माँ बाप कितना ही करें बच्चे अपने नजरिये से अपनी नाकामी का दोष माँ बाप पर मढने में नहीं चूकते परन्तु सभी ऐसे नहीं होते -

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  13. विडंबनायुक्त मर्मस्पर्शी लघुकथा. पर ऐसा लगता है कि कालांतर में भी इसके विडंबनापूर्ण और त्रासद बिंब, समय की मार झेलने के बाद भी धुंधले और फ़ीके नहीं हुए वरन आज भी उतने ही जीवन्त और सजीव प्रतीत होते हैं. आभार.
    सादर
    डोरोथी.

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  14. आम आदमी के दर्द की सफल अभिव्यक्ति है यह लघु कथा।

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  15. maut ka vikalp pariwaar ke liye ... zindagi ko khote hue bhi maut ka saamrthya....

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  16. der se aane ke liye maafee chahtee hoon... parantu yah lekh padhkar bahut hi achha laga... sach kitna majboor hai aj ka aadmee...

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  17. सामाजिक विडंबना दर्शाती लघु कथा
    ---------

    फिर छिड़ी बहस.........

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  18. कितना कटु सत्य है ....
    पर सत्य तो सत्य है ... ज़माने का सत्य है ... कितने कितने लोगों का सत्य है ...

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  19. RAJESH JI,
    AB TO HAALAAT AISE HO GAYE HAI KI ANUKAMPA NIYUKI BHI MUSHKIL.....
    KHAIR.....
    RAJENDRJI NE COMENT ME SAHI BAAT UTHAI HAI.
    UDAY TAMHANEY.
    BHOPAL.
    9200184289

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