Monday, August 23, 2010

पीपली से रूबरू : धीमी गति के समाचार-दूसरी किस्त

पीपली पर पहली टिप्पणी  पीपली से रूबरू: कुछ बेतरतीब नोट्स  में मैंने धीमी गति के समाचार का जिक्र किया है। किसी समय आकाशवाणी से प्रसारित होने वाले इस धीमी गति के समाचार को सुनने के लिए एक तरह के कौशल और धैर्य की जरूरत होती थी।
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पीपली में नत्था की कहानी के समानान्तर एक और कहानी चलती है जो वास्तव में धीमी गति का समाचार ही है। लेकिन धीमी गति के इस समाचार की प्रकाश किरणों की गति से भागते मीडिया में कोई जगह नहीं है।

मैं बात कर रहा हूं होरी महतो की। वही जो चुपचाप मिट्टी खोदता रहता है। पूरी फिल्म में वह केवल चार या पांच दृश्यों में ही दिखाई पड़ता है। पहले ही दृश्य में उस पर नजर पड़ती है राकेश की । पर न तो उसे होरी से कोई सरोकार है और न होरी को उससे। इसलिए उनके बीच जो एक तरफा संवाद होता है, वह स्वाभाविक ही है। फिल्म में यहां राकेश ही नहीं हम भी होरी को भूल जाते हैं। फिर होरी दूसरी बार नजर आता है अपनी साइकिल धीरे-धीरे नत्था के घर के सामने लगे मेले के बीच से ले जाते हुए। पर बहुत संभव है आपने भी उस पर ध्यान नहीं दिया होगा। तीसरी बार एक बार फिर राकेश और उसके दोस्त के माध्यम से हमें होरी के बारे में पता चलता है। राकेश की तरह हम भी उसे कोई सिरफिरा ही समझते हैं। होरी मिट्टी खोदने में मशगूल है।

होरी अपनी समस्या किसी को नहीं बताता है। अपनी समस्या का हल वह जैसे खुद ही खोजने या कहें कि खोदने का प्रत्यन कर रहा है। फिल्म की कहानी भले ही यह कहे कि वह मिट्टी खोदकर बेच रहा था। लेकिन राकेश के शब्दों में कहें तो मुझे यह लग रहा था जैसे वह खजाना ही खोद रहा था। यह खजाना जल भी हो सकता है। होरी की समस्या से जब राकेश ईमानदारी से रूबरू होता है तो उसकी आत्मा जैसे उसे कचोटने लगती है। और होरी की मौत की खबर सुनकर तो जैसे वह आत्मग्‍लानि  से भर उठता है। इसीलिए वह अपना बायोडाटा भूलकर होरी की समस्या को सामने रखने की कोशिश करता है। हम जानते हैं उसे कुछ भी हाथ नहीं लगता।
जिस तरह होरी मीडिया और राजनीति की चकाचौंध में हाशिए पर रह जाता है, उसी तरह राकेश के अंदर की पत्रकारिता उस चकाचौंध की आग में जलकर अपना दम तोड़ देती है।

लेकिन हम भी न तो होरी की कहानी सुनने को राजी हैं और न राकेश को सुनाने देने के लिए। क्योंकि  दोनों ही  धीमी गति के समाचार हैं।
                                                                                                 0 राजेश उत्साही

19 comments:

  1. एक बेहद संवेदनशील तुलना...ओशो की कथा याद आती है.. कुछ मज़दूर मंदिर के निर्माण के लिए पत्थर तोड़ रहे थे..किसी ने एक से पूछा कि तुम क्या कर रहे हो. जवाब मिला, पत्थर तोड़ रहा हूँ. दूसरे से वही सवाल करने पर उत्तर मिला कि रोज़ी रोटी के इंतज़ाम कर रहा हूँ. तीसरा गाना गाता हुआ अपने काम में लगा था. जब उससे पूछा गया कि तु क्या कर रहा है तो उसका जवाब था मैं मंदिर बना रहा हूँ.
    शायद होरी ऐसा ही किसान था, जो हमारे ग्रामीण परिवेश को सच्चे रूप में प्रतिबिम्बित कर रहा था… बंजर पथरीले साज़ पर फावड़े की मूक धुन बजाता हुआ... एक ख़ज़ाने की खोज में. लेकिन उस ख़ज़ने का कोई मोल नहीं किसी की नज़र में. जिसने पहचाना उसने जान दी..एक भयानक मौत!!
    बड़े भाई, बहुत भावनात्मक वर्णन!!

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  2. उत्साही जी अभी फिल्म नहीं देखी है। देखने का इरादा भी नहीं था। पर लगातार हो रही समीक्षा के कारण अब देखने के बाद ही पोस्ट पढ़ूगा। उसके बाद ही कोई टिप्पणी दूंगा। कई पोस्टों पर टिप्पणी करनी है। इसलिए अब देखना तो पड़ेगा ही। वैसे मैं जानता हूं कि ऐसा कुछ खास नहीं देखने को मिलेगा जो मैं जानता नहीं हूं। पर कई पोस्टों को पढ़ने के बाद टिप्पणी करने के लिए देखनी पढ़ेगी। तब तक आपकी पोस्ट न पढ़ने के लिए माफी का तलबगार हूं।

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  3. अभी तो फिल्म देखी नहीं है मगर देखेंगे जरुर.

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  4. रक्षा बंधन की हार्दिक शुभकामनाएँ.
    हिन्दी ही ऐसी भाषा है जिसमें हमारे देश की सभी भाषाओं का समन्वय है।

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  5. बहुत अच्छी प्रस्तुति।
    रक्षा बंधन की हार्दिक शुभकामनाएँ.

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  6. रक्षाबंधन पर हार्दिक बधाइयाँ एवं शुभकामनायें!
    बहुत बढ़िया जानकारी मिली! अब तो ये फिल्म देखना ही पड़ेगा!

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  7. फिल्‍म देखने की इच्‍छा बलवती होती जा रही है .. रक्षाबंधन की बधाई और शुभकामनाएं !!

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  8. शायद अब समय धीमी गति के समाचारों का नहीं है, क्योंकि सबको ‘सनसनी’ की दरकार है, जो ‘नत्था’ के चरित्र मंे है। फिर भी ‘खोदने’ का महत्त्व कम नहीं हो जाता।

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  9. होरी के मध्यम से आमिर ख़ान जो बात सामने सखना चाहते हैं वो आपने बिल्कुल स्पष्ट कर दी है .... होरी जैसे कई लोग हमारे आसपास बिखरे रहते हैं ... पर अंत लगभग सभी का ऐसा ही होता है .... पर इनकी मौत धीमी गति से नही आती ...
    रक्षा बंधन की हार्दिक शुभकामनाएँ ...

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  10. राजेश उत्साही जी !!!आज मेहनत और श्रम का मूल्य ही क्या रह गया है इस तेजी से बदलती दुनिया में ? लेकिन मनुष्य को यह नहीं भूलना चाहिए कि हर बदलती हुई चीज़ किसी स्थिर धुरी पर घूमती है । होरी कितना श्रमशील है...लेकिन निश्चिंत है...संतुष्ट है...पेट सुख कर कमर से लग गया है...लेकिन फिर भी अचल है...मानों फिल्म को सारी गति वही दे रहा हो । एक अत्यंत नियतीवादी चरित्र । शायद इस बात से परिचित कि इस व्यवस्था को कोई नहीं बदल सकता ।

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  11. जिस तरह होरी मीडिया और राजनीति की चकाचौंध में हाशिए पर रह जाता है, उसी तरह राकेश के अंदर की पत्रकारिता उस चकाचौंध की आग में जलकर अपना दम तोड़ देती है। लेकिन हम भी न तो होरी की कहानी सुनने को राजी हैं और न राकेश को सुनाने देने के लिए। क्योंकि दोनों ही धीमी गति के समाचार हैं।
    ...Peepli life kee Sateek sameeksha..
    Badalte haalaton ka sateek chitran...
    रक्षा बंधन की हार्दिक शुभकामनाएँ ...

    ...

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  12. .
    बहुत सुन्दर समीक्षा । अगर हमने देखी होती तो हम भी कुछ बेहतर समझ पाते।
    .

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  13. ek nayi drishti se vishay ko dekha hai apne....
    ab yeh film dekhani hi hogi......
    badhai

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  14. आपको एवं आपके परिवार को श्री कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनायें !

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  15. ओह तो होरी महतो यहाँ हैं ! मुझे तो इस पूरी फिल्म में होरी महतो के किरदार ने सबसे अधिक प्रभावित किया। दरअसल यही है वो आम आदमी जिसकी मौत चुपचाप होती है इस देश में..जिसकी कोई चर्चा भी नहीं करना चाहता, जो करना चाहता है उसे दबा दिया जाता है!
    ..अंत का वह गीत..क्या तो बोल थे उसके..तन माटी का..जो देर तक कुर्सी पर स्तब्ध पटके रहता है दर्शकों को।
    ..शानदार चर्चा।

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  16. बहुत अच्छी समीक्षा!

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