Tuesday, August 10, 2010

उदय ताम्‍हणे : भूले-बिसरे दोस्‍त (5)

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इस सूची में उदय तुम्‍हारा नाम भी आ ही जाता है। हालांकि तुम से पिछली मुलाकात कुछ साल भर पहले ही हुई थी। पर अब हम जिस तरह से मिलते हैं, वह भूले-बिसरे मिलना ही है। हमारी दोस्‍ती भी स्‍कूल या कॉलेज की दोस्‍ती नहीं थी। बल्कि वह भी इस ब्‍लाग जगत की तरह अस्‍सी के दशक में अखबार की दुनिया में पैदा हुई एक लहर की दोस्‍ती थी।


उन दिनों मैं होशंगाबाद में था और तुम भोपाल में। आज का एक जाना-माना अखबार तब अपने को स्‍थापित करने की कोशिश कर रहा था। उसने युवाओं को अपने अखबार के विभिन्‍न स्‍तम्‍भों में जगह देना शुरू किया था। हम जो भी लिखते वह सब इसमें छप जाता। बस इतना करना होता कि लिखो और भेजो। इसका एक ऐसा ही लो‍कप्रिय पन्‍ना था फिल्‍मों की सामग्री का। हम लोग इसमें भी लिखते थे। बस हमारी दोस्‍ती यहीं से पनपी थी। पहले हम पत्र-मित्र बने और फिर सचमुच के।

पत्र तो खैर हम एक-दूसरे को लिखते ही थे। मुझे याद है तुम मेरे जन्‍मदिन पर होशंगाबाद ही चले आए थे। बधाई देने। तुम भी कविताएं किया करते थे। उन दिनों लघुकथा आंदोलन का बहुत जोर था। मैं भी लघुकथाएं लिखता था और तुम भी।

फिर मैं भोपाल आ गया। संयोग कुछ ऐसा हुआ कि मैं चकमक के संपादन से जुड़ा था और तुम उसके वितरण के काम से। मैं जहां रहता था, वहीं से वितरण का काम होता था। हर महीने वितरण वाले दिनों में कम से कम प्रतिदिन तुम्‍हारे दो तीन घंटे वहीं गुजरते थे। सो तुम बच्‍चों के लिए उदय चाचा और नीमा के उदय भाई भी बन गए थे। इस कारण से लगभग चार-पांच साल हम नियमित रूप से मिलते ही रहे। तुम हनुमान मंदिर के सामने ग्‍यारह सौ क्‍वार्टर में दुष्‍यंत जी के पड़ोस में रहा करते थे। 

तुम्‍हें सचिवालय में नौकरी मिल गई। हमारा मिलना कम होता गया। बस कभी कहीं हाट-बाजार में टकरा जाते। एक-दूसरे के हाल पूछते और घर आने का वादा करते। पर घर आना-जाना साल छह महीने में एकाध बार ही संभव हो पाता। तुमने दूर शाहपुरा में एक ईडब्‍ल्‍यूएस घर लिया था। फिर उसी में जम गए। अच्‍छा किया।

बीच में सुना था कि तुम मानसिक रूप से कुछ अस्‍वस्‍थ्‍य हो गए थे। पर जल्‍द ही तुम उसे अजाब से निकल भी आए। पर हां तुम पहले भी बहुत धीरे-धीरे बोलते थे और अब तो और धीरे-धीरे बोलने लगे हो। ईश्‍वर में तुम्‍हारी आस्‍था पहले भी कम नहीं थी, अब तो और अधिक बढ़ गई है।
  
जब से मैं बंगलौर में हूं,तुम्‍हारे एसएमएस मुझे लगातार मिलते रहे हैं। चाहे मैं जवाब दूं या नहीं। तुम्‍हारे संदेश आध्‍यात्मिक बातों से जुड़े होते हैं। हां मुझे जो एक एसएमएस याद आता है। पिछले साल तुम्‍हारे बड़े बेटे का एडमीशन कालेज में हो गया था। तुमने लिखा था कि तुम आज बहुत खुश हो। तुम कभी कॉलेज जाना चाहते थे, पर नहीं जा पाए थे।  आज तुम्‍हारा बेटा जब कॉलेज गया तो तुम्‍हें लगा जैसे तुम ही चले गए हो। सच ही है हमारी कितनी इच्‍छाएं हम औरों में पूरी होती देखते हैं। 

कम्‍प्‍यूटर तुम्‍हारे पास नहीं है, पर तुम मेरे ब्‍लाग मोबाइल पर पढ़ते रहे हो। और अपनी प्रतिक्रिया भी देते रहे हो। उम्‍मीद है तुम अपने बारे में यह पोस्‍ट भी पढ़ ही रहे होगे। 
                                               0 राजेश उत्‍साही 

5 comments:

  1. चलिए दोस्त आपको कहीं तो पढ़ ही रहे हैं..यानि की आप उनकी और वो आपकी यादों से निकले नहीं है....पर एक बात है....मैने पढ़ा था कि लड़कियां कितना भी गहरी दोस्त हों शादी के बाद अलग होने पर वर्षों नहीं मिलती या चिठ्ठी पत्री भी नहीं कर पाती....पर अब तो लड़के भी दोस्तो को एक ही शहर एक ही जगह रहते हुए भी मोबाइल पर ही मिलते हैं.....औऱ मुझे ये पसंद नहीं..पर क्या करें....

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  2. आपकी यादों की गुल्लक में ढेरों अशर्फियाँ खनक रही हैं. खनक सुनवाने का आभार.... हम भी किसी रोज अपनी गुल्लक खोल कर बैठेंगे!

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  3. aapki yaadon ki gullak to bahut hi badiya hai..

    Meri Nayi Kavita par aapke Comments ka intzar rahega.....

    A Silent Silence : Zindgi Se Mat Jhagad..

    Banned Area News : I'm terrified of sharks: Jessica Simpson

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  4. AAJ PADH PAYA HOO AAPKE AUR AAPKE SATHIYO KEE MERE BAARE ME BHAWANAYE. JEHAN ME BAHOOT KOOCHH HAI PHIR KABHI. @ UDAY TAMHANEY.

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जनाब गुल्‍लक में कुछ शब्‍द डालते जाइए.. आपको और मिलेंगे...