Sunday, August 8, 2010

सुरेन्‍द्रसिंह पवार : भूले-बिसरे दोस्‍त (4)

1985 में पवार 
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बिसरा जरूर गए हैं,पर भूले नहीं हैं हम-एक दूसरे को। अभी-अभी तो चंद साल पहले ही मिले थे हम-तुम। इतना मुझे पता है भोपाल के बैरागढ़ इलाके में ही बस गए हो तुम। शिक्षक तो तुम बन ही गए थे। किसी स्‍कूल के हेडमास्‍टर बनने वाले थे। यह भी खबर है कि एक बेटा तुम्‍हारा पढ़ रहा है डॉक्‍टरी और एक इंजीनियरी।

मोबाइल फोन ने कुछ आसानियां की हैं तो कुछ परेशानियां भी। अब देखो न तुम्‍हारा लैंडलाइन नम्‍बर मेरे पास हुआ करता था। पर अचानक ही एक दिन वह इस दुनिया से विदा हो गया। पक्‍के तौर पर तुमने मोबाइल ले लिया होगा और उसको कटवा दिया होगा। तुमसे सम्‍पर्क करना भी मुश्किल।  


तुम-हम न तो स्‍कूल के दोस्‍त थे, न कॉलेज के। जहां तक मुझे याद पड़ता है हमारी दोस्‍ती बस यूं ही हो गई थी शायद अखबार में एक-दूसरे की रचनाएं देखकर। मैं होशंगाबाद में था और तुम सीहोर में। तुम्‍हारे चाचा होशंगाबाद के पोस्‍ट आफिस में काम करते थे। सो तुम उनसे मिलने सीहोर से सायकिल से चले आया करते थे। सीहोर में तुम्‍हारी मां और तुम ही रहते थे। पिता थे, पर कुछ ऐसा घटा था कि वे अलग रहते थे। मां शिक्षिका थीं। तुमने बहुत मुफलिसी और संघर्ष में अपना बचपन गुजारा है। तुम पढ़ते थे और साइनबोर्ड बनाते थे। जिन्‍दगी की सड़क पर चलते हुए तुम किनारे पर लगे मील के पत्‍थर रंगते थे। तुम्‍हारी जिन्‍दगी का यही पहलू मुझे तुम्‍हारे पास खींच लाया था। तुम्‍हारे अंदर एक-तरह की खुद्दारी थी। तुम कभी विलाप नहीं करते थे। तुम्‍हारी कविताओं में जीवन की आशाएं होती थीं। सीहोर में होने वाले कवि सम्‍मेलनों में तुम शिरकत किया करते थे। क्‍या संयोग है कि मुझे उनमें से एक भी कविता याद नहीं।

जब भी तुम होशंगाबाद आते तो हर शाम हम पैदल ही बातों को मीलों तक नाप डालते। हमारी बातों की पगडंडियों पर राजनीति,सिनेमा,धर्म,समाज और प्रेम की पुलिया मौजूद होती थीं। जिन पर हम बैठते तो कई बार बस बैठे ही रह जाते। हम उन दिनों प्रेम की कच्‍ची गलियों में विचर रहे थे। अपने अहसास एक-दूसरे से बांटते थे।

सिर पर तुम्‍हारे बाल बहुत कम थे और उस पर से मिचमिची आंखें। जब तुम लगभग भोपाली अंदाज में बोलते तो लगता जैसे कोई कानों में बड़े तालाब का पानी उड़ेल रहा हो। तुम्‍हारी हंसी भी जलतरंग सी बजती। तुम नाराज भी होते लगता जैसे कोई अहसान कर रहे हो।

हां तुम उन दोस्‍तों में से थे जो मेरी शादी में शरीक हुए थे। बारात में गए थे। उन दिनों तो बारात में शामिल होना ही दोस्‍ती का सबसे बड़ा सबूत माना जाता था। पर देखो न मैं तुम्‍हारी बारात में नहीं आ सका। पर तुमने दोस्‍ती नहीं तोड़ी।

दोस्‍त तो हम अब भी हैं। कभी कभी मुझे किशोर कुमार का गाया गीत याद आता है -छोटी सी ये दुनिया पहचाने रास्‍ते हैं, कभी तो मिलोगे तो पूछेंगे हाल। 
                                                    0 राजेश उत्‍साही

3 comments:

  1. दोस्तों को ब्लॉग के माध्यम से पत्र लिखकर भूली बिसरी यादों का याद करने का आपका यद् अंदाज़ बहुत अच्छा लगा. आपकी पोस्ट पढ़कर मेरे मन मष्तिष्क में भी अपनी स्कूल व कॉलेज की भूली बिसरी सहेलियों का एक चलचित्र सा उभरने लगा. कुछ तो भूले भटके याद कर लेते है लेकिन कुछ से तो यही भोपाल में रहकर भी मुलाकात नहीं हो पाती. अपनी-अपनी घर-गृहस्थी व अपनी दुनिया में सब खो से जाते है. लेकिन फिर भी याद तो देर सबेर आ ही जाती है, जैसा की आपकी पोस्ट पढ़कर ही आने लगी

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  2. आपकी गुल्लक मे लगता है अभी बहुत सी यादें हैं। बडिया पोस्ट। अभार।

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  3. PAWAR JI KEE TARIPH ROOCROO BHI AAP SE SOONI HAI. AAP SACHCHE DIL SE UNHE YAAD KARTE HAI. UDAY TAMHANEY BHOPAL.

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जनाब गुल्‍लक में कुछ शब्‍द डालते जाइए.. आपको और मिलेंगे...