Tuesday, August 3, 2010

बनवारी रे...: भूले-बिसरे दोस्‍त (2)

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‘बनवारी रे जीने का सहारा तेरा नाम रे...’ सुमन कल्‍याणपुर द्वारा गाया यह गीत मेरे प्रिय गीतों में से रहा है। इसलिए भी कि इसे सुनकर मुझे बनवारी यानी बनवारी लाल श्रीवास्‍तव तुम्‍हारी याद हो आती है। तुम यकीन करोगे कि मैं सुमन कल्‍याणपुर को तुम्‍हारे नाम से ही याद रखता हूं।


तुमने यह कैसे मान लिया कि मैं दामोदर को याद रखूंगा और तुम्‍हें भूल जाऊंगा। तुम भी तो मप्र,मुरैना जिले की सबलगढ़ तहसील के हायरसेंकडरी स्‍कूल के सहपाठी थे, ठीक दामोदर की तरह। पर तुम दोनों में जमीन-आसमान का अंतर था। कहां दामोदर दबंग और तुम विनम्र। वह उस जमाने की फिल्‍मों के गबरू खलनायकों की तरह लगता था और तुम आज के चॉकलेटी हीरो की तरह।

जहां तक मुझे याद है तुम सुमावली के पास के किसी गांव के रहने वाले थे।
सबलगढ़ में तो तुम मेरे घर से कुछ सौ कदम की दूरी पर ही रहते थे। शायद तुम्‍हारी मां या दादी तुम्‍हारे साथ रहती थीं। सबलगढ़ तो तुम पढ़ने के लिए ही आए थे न। याद है मुझे कि तुम्‍हारी गिनती सबसे पढ़ाकू लड़कों में होती थी। हमारी दोस्‍ती इसी वजह से थी। वरना तुम कभी हमारे साथ न तो होले खाने गए, न गन्‍ने तोड़ने। एनसीसी में भी तुम कहां थे। तुम इंजीनियर बनना चाहते थे। तुम्‍हारी अंग्रेजी बहुत अच्‍छी थी, इसलिए तुम सक्‍सेना सर के प्रिय छात्र थे। मेरी हिन्‍दी अच्‍छी थी इसलिए मैं त्रिपाठी सर का प्रिय छात्र था। तुम्‍हें याद है न त्रिपाठी सर ने हमें हिन्‍दी में एक निबंध लिखने के लिए दिया था। कहा था सब कुछ अलग सा विषय चुनें। मैंने भ्रष्‍टाचार पर लिखा था और तुमने दस्‍यु उन्‍मूलन पर।

जब मैं दसवीं करके होशंगाबाद आ गया तो हमारे बीच पत्र व्‍यवहार होता रहा। तुम पोस्‍टकार्ड नहीं अंतर्देशीय लिखा करते थे। उस जमाने में यानी 1974 में वह पंद्रह नए पैसे का आता था। मैं भी तुम्‍हें पत्र लिखता था। हम दुनिया-जहान की बातें लिखते। पर इस दुनिया-जहान में तब तक प्रेम ने प्रवेश नहीं किया था। इसलिए उसके बारे में तो कुछ होता ही नहीं था। और तुम तो वैसे भी झेंपू थे। रहा भी होगा तो तुमने कभी नहीं लिखा उस सबके बारे में। मैंने भी नहीं लिखा। अरे यार होता तब तो लिखते न।

पत्रों के दो खास फीचर होते थे। एक कि हमने इस बीच में कौन-सी फिल्‍में देखीं। क्‍योंकि उस समय फिल्‍म देखना हमारे लिए किसी उपलब्धि से कम नहीं होता था। तब तक टेलीविजन नहीं आया था न। और दूसरा यह कि घर में माताजी-पिताजी को चरण स्‍पर्श कहना। बड़े भाई-बहनों को प्रणाम कहना और छोटों को प्‍यार। और कई बार हम पत्र इस जुमले से खत्‍म करते कि थोड़ा लिखा है बहुत समझना।

अब देखो न, मैं कितने समय तक तुम्‍हारे पत्र संभाल कर रखे रहा,फिर पता नहीं कब वे सब इधर-उधर हो गए। आज होते तो उनसे और कितनी चीजें हमें पता चलतीं उस जमाने की।

बनवारी, मैंने तुम्‍हें भी ढूंढने की बहुत कोशिश की। मुझे विश्‍वास है कि तुम इंजीनियर तो बन ही गए होगे। इसलिए मुझे लगा कि इंटरनेट भी उपयोग करते होगे। सो नेट पर भी ढूंढा। ग्‍वालियर के आसपास की टेलीफोन डायरेक्‍टरी भी खंगाल डाली। चकमक की संपादकी के दौरान  ग्‍वालियर की एक लेखिका टकराईं जो श्रीवास्‍तव घराने से संबंध रखती हैं, सो उनसे भी पूछ डाला। पर अंत में धर्मेन्‍द्र की फिल्‍म आंखें के एक गीत की पंक्ति ही जेहन में आई,  ‘कहां छुप गया है कठोर,तेरे चाहने वाले दर-दर भटक रहे हैं।’

आशा है तुम भटक नहीं रहे होगे। समय रहते कहीं-न-कहीं अटक ही गए होगे और अब चटक और ठसक के साथ अपना जीवन व्‍यतीत कर रहे होगे। कभी करो तो हमें भी याद कर लेना।
                                                     
      0 राजेश उत्‍साही    


4 comments:

  1. पुराने दोस्तों को ढूँढने का यह तरीका बढ़िया है ...

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  2. शायद आपका दोस्त मिल जाए.....शुभकामना और प्रार्थना आपके लिए की आपकी कोशिश कामयाब हो जाए

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  3. भूली बिसरी यादें, दिल को हल्का और मन को ताज़ा कर डालती हैं, इसे पढकर बहुत सुकून मिला और अपने पुराने भूले बिसरे दोस्त भी याद आ गए... प्रार्थना है आपके दोस्त जल्द ही आस मिलें...

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जनाब गुल्‍लक में कुछ शब्‍द डालते जाइए.. आपको और मिलेंगे...