Monday, August 2, 2010

दामोदर तुम कहां हो : भूले-बिसरे दोस्त(1)

दामोदर यानी दामोदर प्रसाद शर्मा।

हम दोनों 1973-74 में मप्र मुरैना जिले की सबलगढ़ तहसील के हायरसेंकडरी स्कूल के सहपाठी हुआ करते थे। तुम्हें याद है न मैं रेल्वे स्टेशन मास्टर का बेटा वहां संटर नम्बर तीन में रहा करता था। तुम पुलिस हवलदार के बेटे थे,सो बीटीआई रोड पर पुलिस लाइन में रहते थे। हमारा स्कूल भी पुलिस लाइन के आगे ही पड़ता था। इसलिए रोज आते-जाते समय तुम्हारे घर आना तो होता ही था।



तुम्हारे घर के पीछे पहाड़ी थी,जहां हम बेर खाने जाया करते थे। तुम्‍हें याद है, एक बार हम स्‍कूल के पीछे की तरफ एक खेत में होले यानी हरे चने खाने के लिए घुस गए थे। तभी खेत के मालिक की नजर हम पर पड़ गई थी। हमने कम से कम दो मील लम्‍बी दौड़कर लगाकर अपनी जान बचाई थी। पर अगले दिन हमें स्‍कूल के प्रिसिंपल साहब की डांट तो खानी ही पड़ी थी। क्‍योंकि खेत के मालिक ने हमारा हुलिया जो बयान कर दिया था।ऐसा ही एक वाक्‍या गन्‍ने के एक खेत में हुआ था। तब तो हम चार दोस्‍त थे। हां गन्‍ने का खेत स्‍कूल से बहुत दूर था। इसलिए खेत मालिक स्‍कूल तक नहीं पहुंच सका था। पर वह दिन भी हमेशा याद आता है। हम लोग दो साइकिलों पर थे। वापसी में तेज चलाने के चक्‍कर में एक सायकिल की चेन टूट गई थी। तब तुमने एक सायकिल चलाने का जिम्‍मा लिया था और मैंने दूसरी। तुम्‍हारी सायकिल के पीछे जो बैठा था उसने एक मजबूत गन्‍ना हाथ में पकड़ा था। वह गन्‍ना मैंने अपनी सायकिल के हैंडिल में बांधा था। बस इस तरह दोनों सायकिल चल रही थीं।

सायकिल से ही याद आया कि छुट्टी के दिन अपनी  सायकिलों  के पुर्जे-पुर्जे  खोलकर उनकी ओव्‍हरआयलिंग करना हमारा प्रिय काम हुआ करता था। यह तो मैंने तुम्‍हें से ही सीखा था। पंचर तो खैर बनाते ही थे।

तुम दसवीं के विद्यार्थी कभी लगते ही नहीं थे।  क्योंकि इतने ऊंचे-पूरे थे कि लगता था जैसे बीटीआई यानी बुनियादी शिक्षक प्रशिक्षण संस्‍थान से निकलकर कोई छात्र अध्यापक टहलते हुए दसवीं कक्षा में आ बैठा हो। एनसीसी की परेड में भी तुम अलग ही नजर आते थे।  कभी तुम खेल खेल में अपनी पिताजी की वर्दी पहनकर पुलिसवाले बनकर लोगों को धमकाया करते थे।  तुम्हारी शादी भी तो हो गई थी। हां गौना नहीं हुआ था। तुम्हारे -हमारे बीच दोस्ती ऐसी थी कि तुम मुझ से कुछ नहीं छिपाते थे। और असल में तो यह उम्र छिपाने की थी ही नहीं। हमें जो भी नई बात पता चलती वह तुरंत ही एक-दूसरे को बताते थे।  यही वह उम्र थी जब हम एक नई दुनिया में प्रवेश कर रहे थे।

तुमने बताया था तुम्हारी बहुरिया मुरैना जिले के ही अम्बाह,पोरसा के पास कहीं गांव में थी। तुमने कहा था कि जब तुम लाओगे तो सबसे पहले मुझसे ही मिलवाओगे। पर यह तो कभी संभव नहीं हुआ,क्योंकि मैं दसवीं पास करते ही वहां से निकल लिया।

हां, तुम्हारी सुंदर हैंडरायटिंग में तुम्हारे पोस्टकार्ड कई दिनों तक मुझे मिलते रहे। फिर वे भी बंद हो गए। मैंने तुम्हें बाद में बहुत खोजा पर नहीं मिले। जब मैं भोपाल में बच्चों की पत्रिका चकमक का संपादन कर रहा था तो उन दिनों मुरैना जिले से ही एक शिक्षक दामोदर प्रसाद शर्मा के पत्र आते थे। मुझे लगा शायद तुम ही हो। मैंने उनसे पूछ लिया। उन्होंने कहा नहीं वे वो नहीं हैं।

उम्मीद करता हूं तुम जहां भी हो खुश हो, और खुश रहो।


                                                                        0 राजेश उत्साही

6 comments:

  1. ब्लागिंग करते रहिए. हो सकता है दोस्त से भेंट हो जाय.

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  2. Bhule-bisare dost ko blogging ke madhyam se yaad karne aur bhuli-bisari yaado ko taaja karne ka aapka yah andaaj bahut achha laga.... vqkt gujarne par bhale hi sahpathi ya dost bhale hi bahut door rahte hon aur kabhi mel mulakaat nahi hoti ho lekin unki yaad der-sabr, bhule-bhatke kai maukon par aa hi jaati hai..
    Bahut achha laga aapka dost ko yaad karne ka chitinuma andaaj..
    Haardik shubhkamnayne

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  3. यादों का बहुत खूबसूरत सफ़र रहा ………………कुछ यादें ता-उम्र जेहन मे बस जाती है। आशा है आपको आपका दोस्त इसी ब्लोगिंग के सहारे मिल जाये।

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  4. भूले मित्रों को याद करने का यह प्रयत्न लगता है ब्लाग जगत में नया है , इससे दोस्त मिलें या न मिलें कम से कम प्रयास और कलमबंद तो हो ही गया ! शुभकामनायें

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  5. पुराने दोस्त को बहुत शिद्दत से याद किया है आपने...एक दिन जरूर मिलेगा...ये पक्का है...
    नीरज

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  6. बहुत अच्छी प्रस्तुति।
    राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।

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