भोपाल गैस त्रासदी को देखते ही देखते 25 साल गुजर गए। गैस त्रासदी से जुड़ी जितनी बातें हैं उससे कहीं अधिक उससे जुड़ी यादें हैं। मैं उन दिनों होशंगाबाद में था। पिताजी की पोस्टिंग भोपाल में रेल्वे में कंट्रोलर के पद पर थी। कंट्रोल आफिस भोपाल स्टेशन से लगा हुआ था। वे रोज भोपाल आना-जाना करते थे। उन्हीं दिनों मेरी दादी की तबीयत बहुत खराब थी। कुछ ऐसा संयोग बना कि 2 दिसम्बर 1984 की उस रात पिताजी भोपाल नहीं गए। उनके स्थान पर जिन सज्जन ने मोर्चा संभाला, वे इस त्रासदी का शिकार हो गए। वे ही नहीं उस रात भोपाल रेल्वे स्टेशन पर जितने लोगों की डयूटी थी उनमें से अधिकांश अब नहीं हैं। हम आज भी उस दिन को याद करके सिहर उठते हैं।
मुझे याद पड़ता है कि तीन दिसम्बर की सुबह हमने होशंगाबाद रेल्वे स्टेशन के आसपास बहुत सारे लोगों को बदहवास घूमते देखा था। किसी के पास कुछ भी नहीं था। कई लोगों ने पूरे कपड़े भी नहीं पहने थे। और थोड़ी ही देर बाद आकाशवाणी पर समाचार सुनने पर यह पता चला था कि भोपाल में किसी फैक्टरी में गैस रिसने से भारी अफरा-तफरी मची है। और फिर धीरे-धीरे एक बाद एक कहानियां बाहर आती गईं। पर ये कहानियां काल्पनिक नहीं थीं,हकीकत थीं। गैर सरकारी अनुमान के अनुसार बीस हजार से ज्यादा लोग काल-कलवित हो गए थे।
एकलव्य चूंकि शिक्षा और जनविज्ञान के क्षेत्र में कार्य कर रहा था। इसलिए एकलव्य ने गैस त्रासदी पर एक वैज्ञानिक अध्ययन करने का फैसला किया। अध्ययन किया गया। अखबारों में छपी तमाम रिपोर्टों को एकत्र कर ‘सिटी आफ डेथ’ नाम से एक पुस्तिका प्रकाशित की गई। यह तय किया गया कि इस दुर्घटना से संबंधित वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर एक पोस्टर प्रदर्शनी बनाई जाए।
एकलव्य के होशंगाबाद कार्यालय में एक अध्ययन केन्द्र संचालित किया जाता था। इस प्रदर्शनी को अध्ययन केन्द्र की एक गतिविधि के तौर पर बनाने का निर्णय लिया गया। प्रदर्शनी बनाने के लिए एकलव्य के होशंगाबाद कार्यालय में जमावड़ा लगा। उन दिनों एकलव्य का कार्यालय सदर बाजार में होमगार्ड आफिस के पास था। लगभग 40 पोस्टरों की इस प्रदर्शनी का 60 प्रतिशत हिस्सा मैंने स्वयं बनाया था। पोस्टर की परिकल्पना उसमें लिखा जाने वाला कथ्य और तमाम बातें सोची थीं। मैंने अपनी हैंडरायटिंग में बहुत सी बातें लिखीं थीं। प्रदर्शनी में यह बताने का प्रयास किया गया था कि यह दुर्घटना क्यों घटी। उसके संभावित कारण क्या हो सकते हैं। आज के जाने-माने पत्रकार राजकुमार केसवानी उन दिनों भोपाल से एक साप्ताहिक अखबार निकालते थे। वे इस संभावित दुर्घटना के बारे में कई दिनों से अपने अखबार में चेता रहे थे। पर जैसा कि होता है किसी ने उस पर ध्यान नहीं दिया। प्रदर्शनी में इस पर भी उठाया गया था। देश भर में कई अन्य जगह पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले ऐसे कई उदाहरणों को सामने रखने का प्रयास किया गया था। प्रदर्शनी एक कविता के पोस्टर से शुरू होती थी- तू इधर उधर की बात न कर यह बता कि काफिला लुटा कैसे। ये पंक्तियां किसी शायर की थीं। पर नाम नहीं मालूम। और प्रदर्शनी का अंत भी एक कविता से ही होता था। यह कविता थी शलभ श्रीरामसिंह की।
प्रदर्शनी का पहला प्रदर्शन होशंगाबाद के सेठानी घाट पर नगरपालिका के भवन में किया गया था। डॉ. सुरेश मिश्र के आग्रह पर यह प्रदर्शनी लेकर मैं और राघवेन्द्र तैलंग (जाने-माने कवि राग तैलंग) मंडला गए थे। उन दिनों डॉ.सुरेश मिश्र कान्हा नेशनल पार्क में वार्डन थे। वे बरसों होशंगाबाद के नर्मदा महाविद्यालय में इतिहास के प्राध्यापक रहे थे और एकलव्य से भलीभांति परिचित थे। मंडला के नगरपालिका भवन में यह प्रदर्शनी लगाई गई थी। निश्चित रूप से इस प्रदर्शनी से कुछ लोग नाराज भी थे क्योंकि इसमें तत्कालीन सत्ता पक्ष पर उंगली उठती थी। मंडला में हमें प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। कुछ लोगों का समूह प्रदर्शनी को बंद करने पर उतारू था। पर हम लोग उन्हें अपनी यह बात समझाने में सफल रहे थे कि यह प्रदर्शनी किसी दल विशेष के खिलाफ नहीं है।
जहां भी प्रदर्शनी लगाई जा रही थी, उसे हज़ारों की ताताद में लोग देख रहे थे। लेकिन प्रदर्शनी एक ही थी। एकलव्य के देवास केन्द्र ने तय किया कि प्रदर्शनी का एक और सेट बनाया जाए। ताकि प्रदर्शनी को देवास के आसपास के गांवों में दिखाया जा सके। इस प्रदर्शनी को बनवाने की जिम्मेदारी मुझे ही सौंपी गई। प्रदर्शनी बनाने के लिए देवास के कुछ चित्रकारों की मदद ली गई। देवास की रज्जब अली गली में गणित के अध्यापक श्री यतीश कानूनगो के घर ‘समाधान’ की ऊपरी मंजिल पर 15 दिन तक लगातार प्रदर्शनी बनाने का काम चला। यतीश जी उन दिनों डेपुटेशन पर एकलव्य में थे। एकलव्य का कार्यालय तब राधागंज में था। मैं पूरे समय वहां मौजूद था। चित्रकारों में से जो एक नाम मुझे याद है वह है अजीर्जुहमान शेख का।
प्रदर्शनी जब बनकर तैयार हुई तो हम उसे जीप में लेकर देवास के गांवों में निकले। जहां भी प्रदर्शनी लगाई जाती वहां उसका प्रचार जीप में लाउडस्पीकर लगाकर किया जाता था। प्रदर्शनी को नाम दिया गया था -जनविज्ञान का सवाल। मैं खुद भी प्रचार करने निकलता था। उज्जैन के एक शिक्षक कमलनयन चांदनीवाला भी एकलव्य में डेपुटेशन पर थे। जैसा उनका नाम था, उनका बोलने का अंदाज भी उसी तरह कुछ खास था। वे खातेगांव में जीप में प्रदर्शनी का प्रचार कर रहे थे। शायद उनका प्रचार का तरीका पुलिस वालों को पसंद नहीं आया और या उन्हें यह समझ नहीं आया कि यह प्रदर्शनी है क्या। नतीजा ये हुआ कि वे उन्हें पकड़कर थाने ले गए। चांदनीवाला जी लगभग दो-तीन घंटे थाने में बैठे रहे। जब एकलव्य के अन्य साथियों ने जाकर पुलिसवालों को समझाया तब जाकर उन्हें छोड़ा गया।
यह प्रदर्शनी लोगों के बीच पर्यावरण,विज्ञान और समाज के बीच उनके संबंधों की चर्चा करने के लिए एक सशक्त माध्यम के रूप में उभरी थी।
जैसा मैंने कहा कि इस त्रासदी से जुड़ी न जाने कितनी यादें हैं। तीन और बातें जो मुझे याद आती हैं। पहली तो यह कि जब यह घटना घटी उन्हीं दिनों मेरे विवाह की बातचीत चल रही थी। जो इस घटना के कारण लगभग छह माह टल गई। जब मैं देवास के आसपास के गांवों में प्रदर्शनी के साथ घूम रहा था तो नीमा (अब मेरी पत्नी) के भाई और मशहूर कहानीकार डॉ.प्रकाशकांत ने मुझे नजदीक से देखा और परखा। वे उन दिनों अरलावदा में अध्यापक थे। और यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं कि उन्होंने नीमा को यह सलाह दी कि मैं उनके लिए उपयुक्त हूं।
दूसरी यह कि चकमक बाल विज्ञान पत्रिका, जिसमें मैंने सत्रह साल लगाए,पहले मप्र शासन के संस्थान माध्यम के बैनर में प्रकाशित होने वाली थी। शासन के साथ करार हो गया था। इसके अनुसार पत्रिका का संपादन एकलव्य को करना था,जबकि प्रकाशन और वितरण का काम शासन को करना था। तभी यह घटना घटी गई। इस घटना के संदर्भ में एकलव्य का जो रूख था,वह शासन को नागवार गुजरा। करार रद्द कर दिया गया। लेकिन एकलव्य ने तय किया कि वह खुद चकमक का प्रकाशन करेगा। चकमक के पहले अंक यानी जुलाई,1985 में पहले ही पन्ने पर त्रासदी पर सम्पादकीय लिखा गया था। नतीजन तत्कालीन शिक्षा मंत्री से विमोचन पहले अंक का नहीं, बल्कि अगस्त 1985 में प्रकाशित दूसरे अंक का करवाया गया।
तीसरी बात यह कि एकलव्य होशंगाबाद में एक साथी थे-महेश शर्मा। लगभग चार साल पहले उनका निधन हो गया। जब यह दुर्घटना घटी तो वे अपने किसी परिचित का हालचाल पूछने भोपाल गए थे। लेकिन बस में उनके साथ भी एक घटना घट गई। भोपाल से लौटकर उन्होंने मुझे सारा हाल सुनाया। मैंने उसके आधार पर एक कहानी लिख डाली। यह कहानी भोपाल से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘नई कहानियां’ में प्रकाशित हुई। इसे जाने-माने कहानीकार सत्येन कुमार सम्पादित करते थे। कहानी छपी तो शर्मा जी नाराज हो गए।
यह त्रा-सदी नहीं बल्कि न बीतने वाली सदी है। यह हल न होने वाले सवाल के रूप में सदा हमारे सामने मौजूद रहेगी।
(जनविज्ञान का सवाल पुस्तिका के ये फोटो भोपाल एकलव्य के साथी अम्बरीष सोनी ने उपलब्ध कराए हैं।)
No comments:
Post a Comment
जनाब गुल्लक में कुछ शब्द डालते जाइए.. आपको और मिलेंगे...