Tuesday, August 18, 2009

बिन नाम सब सून : राजेश उत्साही

शेक्सपीयर ने कहा था कि ‘नाम में क्या रखा है।’ सवाल वास्तव में यही है कि आपने उसमें रखा क्या है। अगर कुछ नहीं रखा है तो कुछ नहीं दिखेगा। सच तो यह कि हम हर किसी को नाम से ही तो याद करते हैं। आजकल तो नाम का ही दाम है। मैं नई जगह, नए लोगों के बीच आया हूं। हर कोई जानना चाहता है कि मेरा यह नाम कैसे बना,किसने रखा। पहले भी लोग मुझसे पूछते रहे हैं। मैं बताता भी रहा हूं। मैंने सोचा एक नाम पुराण भी हो जाए। लेकिन जब बात निकली है तो दूर तलक जाएगी।


बात पिता से शुरू करता हूं। उनका नाम है प्यारेलाल पटेल। अपनी रेल्वे की नौकरी के दौरान वे नाम से कम सरनेम ‘पटेल’ से ज्यादा जाने जाते रहे हैं। वहीं अपने परिचितों और रिश्तेदारों के बीच वे घरेलू नाम ‘दुर्जन’ से मशहूर थे। दुर्जन यानी बुरा आदमी। इस अर्थ को जानने वाले लोग उनके बारे में कुछ ऐसी ही राय बना लेते थे। पिता इससे बहुत परेशान थे। अक्सर अपनी मां से कहते कि ये कैसा नाम रख दिया। कुछ और नहीं मिला। मेरी दादी जिनका अपना नाम-जानकी-बहुत सुंदर था बेचारी नाम के इस अर्थ से अपरिचित थीं। असल में पिता का जन्म दीवाली की दूज को हुआ था,सो उन्हें दूजन कहा जाने लगा। यह दूजन ही बिगड़ते-बिगड़ते दुर्जन हो गया। अब चूंकि नाम की बात चल रही है इसलिए आगे बढ़ने से पहले एक बहुत ही दिलचस्प संयोग की चर्चा भी करता चलूं। दादी का नाम जानकी था, तो नानी का देवकी। मां का नाम गणेशी और मौसियों के नाम दुर्गा और शारदा। बात यहीं नहीं रूकी। विवाह हुआ तो सासूजी का नाम पार्वती निकला। यानी आसपास देवियां ही देवियां।

तो पिता अपने इस घरेलू नाम से बहुत दुखी रहे। इसलिए शायद उन्होंने तय किया होगा कि वे बच्चों के नाम सोच समझकर रखेंगे। जब मेरा जन्म हुआ तो मेरा नाम राजेश रखा गया। यह वह जमाना था जब ज्यादातर लोग अपने बच्चों के नाम फिल्म एक्टरों के नाम पर रखते थे। लेकिन तब तक राजेश खन्ना का उदय नहीं हुआ था। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि मेरा नाम किसी फिल्म एक्टर से प्रभावित था। यहां भी एक दिलचस्प तथ्य है कि मेरे बाद जो बच्चे हुए उनके नाम एक लय में रखे गए। जैसे बेटियों के नाम गीता,रीता,बबीता और ममता। बेटों के नाम सुनील और अनिल। मेरा नाम इनमें कहीं भी फिट नहीं होता है। बहरहाल मेरा भी एक घरेलू नाम है-मुन्ना। इस नाम से मुझे पिता और मां ही संबोधित करते थे। यह भी पन्द्रह-सोलह साल तक चलता रहा।

स्कूल में नाम लिखवाया गया राजेश कुमार पटेल। साठ के दशक में अगर लड़कों का नाम कुछ आधुनिक किस्म का होता था तो उसके साथ कुमार जरूर जोड़ा जाता था। इसी तरह लड़कियों के नाम के साथ कुमारी। राजेश कुमार पटेल आठवीं तक यानी 1972 तक चलता रहा। दोस्तों और स्कूल में पटेल के नाम से पुकारा जाता रहा। बचपन मुरैना जिले की सबलगढ़ तहसील में बीता। माधोसिंह और माखनसिंह के नाम उस समय वहां दस्यु के रूप में कुख्यात थे। मन में तय किया अपन भी या तो प्रख्यात होंगे या फिर कुख्यात ।‍ उसी समय साहित्य में कुछ रुचि जागी तो लगा नाम भी कुछ अलग होना चाहिए। बस राजेश कुमार पटेल के पीछे ‘उत्साही’ जोड़ दिया। इनवरटेड कोमा लगाकर।

याद नहीं कि उत्साही कैसे सूझा। हां इसकी प्रेरणा पिता से मिली। जब-तब। मैं चुपके से उनके कागजात और डायरी उलटता-पलटता रहता था। उनमें मुझे कहीं-कहीं उनके नाम के साथ ‘रजवाड़ा’ लिखा हुआ मिला। उसी से यह भी समझ आया कि पिता कविताएं ही नहीं कहानियां भी लिखते थे। हालांकि वे कहीं प्रकाशित नहीं हुईं। उनमें कुछ कविताएं ऐसी भी थीं जो शायद उस समय तो कहीं प्रकाशित हो भी नहीं सकती थीं। और ईमानदारी से कहूं तो उन्हें पढ़ने की मेरी उम्र भी नहीं थी। पर मैंने पढ़ डालीं। उनका कहना है कि एक कहानी उन्होंने पचास-साठ के दशक की मशहूर पत्रिका मनोहर कहानियां में प्रकाशन के लिए भेजी थी। तब मनोहर कहानियां अपराध कथाओं की पत्रिका नहीं थी,बल्कि अपने नाम के अनुरूप उच्च कोटि के साहित्य की पत्रिका थी। पत्रिका की ओर से उन्हें कोई जवाब नहीं मिला। लेकिन कुछ दिनों बाद उन्होंने देखा कि उनकी कहानी पर आधारित एक फिल्म सिनेमाघरों में धूम मचा रही है। यह फिल्म थी मदनमोहन के संगीत से सजी अदालत। जिसके गाने आज भी उतने ही कर्णप्रिय हैं। दो गाने तो मुझे भी बहुत अच्छे लगते हैं, ‘यूं हसरतों के दाग मोहब्बत में धो लिए और जाना था हमसे दूर बहाने बना लिए ।‘ दोनों ही लता जी ने गाए हैं और राजेन्द्र कृष्ण ने लिखे हैं। इस बात में कितनी सच्चाई है यह पिता ही जानते हैं। पर हां मैंने उनके पास रेल्वे के पुराने कागजों पर पेंसिल से लिखी यह कहानी देखी है।

तो राजेश कुमार पटेल ‘उत्साही’ चल पड़ा। जहां मौका मिलता अपन यह नाम लिखने से नहीं चूकते। लिखते-लिखते लगा कि यह कुछ ज्यादा ही लंबा है। क्यों न इसे छोटा किया जाए। मैंने सोचा ‘कुमार’ तो बहुत ही आम है। और यह हर किसी के नाम में है। इसके नाम में होने न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। तो कुमार साहब को चलता किया। रह गया राजेश पटेल ‘उत्साही’।

सबलगढ़ से इटारसी,खंडवा होते हुए मैं होशंगाबाद जा पहुंचा था। 1980 के आसपास तक मेरी पहचान होशंगाबाद कस्बे में एक छोटे-मोटे लेखक के रूप में स्थापित हो गई थी। जब भी किसी को परिचय देना होता तो राजेश पटेल
‘उत्साही’ कहना बड़ा उबाऊ-सा लगता। जो मेरी साहित्यिक अभिरुचि से परिचित नहीं होते वे पूछते ये पटेल तो ठीक है पर ये ‘उत्साही’ क्या है। क्या यह गोत्र है? धीरे-धीरे मुझे भी अपने नाम में पटेल कुछ अखरने लगा। कभी-कभी लगता कि पटेल बोलना कुछ ऐसा हो जाता है जैसे हम सामने वाले के सिर पर हथौड़ा मार रहे हों। शायद यह ट वर्ण की वजह से महसूस होता था। मैंने विचार किया कि पटेल की वाकई जरूरत है क्या। मुझे इसका केवल एक ही उपयोग समझ आया कि यह जाति का कुछ-कुछ अंदाजा देता है। इसको हटाने का केवल एक नुकसान है कि जात-बिरादरी में जो लोग अपनी कन्या के लिए योग्य वर तलाशते रहते हैं,आप उनकी नजरों से दूर हो जाएंगे। लेकिन मेरे लिए यह कोई अफसोस की बात नहीं थी। क्योंकि न तो जात-बिरादरी में मेरा विश्वास था (और न अब है) और न तब मैं इतना योग्य था कि किसी कन्या के‍ अभिभावक की नजरों में चढ़ पाता। तो मैंने बिना देर किए अपने नाम से ‘पटेल’ साहब को भी विदा कर दिया। अब रह गया राजेश ‘उत्साही’। कुछ मुश्किल अब भी बाकी थी। लोग पूछते कि राजेश के बाद क्या छूटा हुआ है। मुझे समझ आया कि यह सारी गड़बड़ उत्साही को इनवरटेड कोमा में रखने से हो रही है। तो एक दिन उत्साही को इनवरटेड कोमा से आजाद कर दिया। लेकिन कहानी यहां खत्म नहीं होती।

शादी हुई तो उसके निमंत्रण पत्र में भी मैंने केवल राजेश उत्साही ही लिखा था। लिखा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि निमंत्रण पत्र मैंने अपने हाथ से बनाया था। असल में निमंत्रण पत्र सायक्लोस्टाइल करके बनाया गया था। स्टेशिंल मैंने ही काटा था। एकलव्य में काम शुरू किया तो वहां के सब कागजों में भी यही नाम है। मेरे नाम से पटेल साहब तो ऐसे गायब हुए जैसे गधे के सिर से सींग। एकलव्य में कभी कोई पुराना दोस्त या परिचित फोन पर कह देता कि पटेल से बात कराओ तो फोन सुनने वाला पूछता कौन पटेल। यहां तो कोई पटेल नहीं है। कभी तो वे मुझ से ही पूछ लेते कि अपने यहां पटेल कौन है। सामने वाला कहता कि राजेश पटेल। तो भी मुश्किल होती। क्योंकि एकलव्य में एक दो नहीं सात राजेश थे। अंतत:सामने वाला या तो कहता कि चकमक वाला राजेश या होशंगाबाद वाला राजेश, या उसे भी याद आ जाता कि अरे यह बंदा अपने नाम में उत्साही भी लगाता है,तब जाकर मामला निपटता। अब तो एकलव्य में मेरे नाम से राजेश भी गायब हो गया है, केवल उत्साही ही लोगों की जबान पर होता है। हां, स्कूल, कॉलेज के सारे कागजों में राजेश कुमार पटेल विराजमान हैं। यहां तक कि मेरे हस्ताक्षर में भी इनका ही संक्षिप्त रूप होता है।

राज की बात यह भी है कि मेरे दो और नाम थे, जो कुछ ही दिन रहे। बात 1979-80 की है। अपन कालेज में थे-होशंगाबाद के नर्मदा महाविद्यालय में। बीएससी करने की कोशिश कर रहे थे। कोशिश इसलिए कि इसकी एक अलग कहानी है, जो फिर कभी। कालेज में लायब्रेरी थी। लायब्रेरी को लेकर कुछ शिकायतें थीं। चूंकि सीधे-सीधे कालेज वालों से नहीं भिड़ा जा सकता था। सोचा क्या करूं। उन दिनों अखबार में सम्पादक के नाम पत्र लिखने का जुनून सवार था। हर दूसरे-तीसरे दिन एकाध पत्र दैनिक भास्कर,भोपाल में छपता ही था। पर वास्तविक नाम से भी पत्र नहीं लिखा जा सकता था। मैंने एक और नाम बनाया-यूआर भारतीय। यानी कि उत्साही राजेश भारतीय। और इस नाम से लायब्रेरी में फैली अराजकता का लंबा चिट्ठा लिख भेजा। पत्र छपते ही लायब्रेरी में हड़कम्प मच गया। व्यवस्थाएं ठीक होने लगीं। मुझे लगा कि यह तो कारगर तरीका है। जिसके बारे में खुलकर नहीं लिख सकते उसके बारे में इस नाम से लिखो।

उसके बाद हाल यह था कि अखबार में एक ही दिन राजेश उत्साही और यूआर भारतीय के नाम से पत्र छपते थे। दोस्तों को भी नहीं मालूम था कि वह भी मैं ही हूं। यूआर भारतीय का इतना चर्चा था कि जहां-तहां लोग पूछने लगे कि यह कौन बंदा है। क्योंकि कस्बे में अखबार में पत्र लिखने वाले सब एक-दूसरे को जानते थे। और सबमें यह होड़ लगी रहती थी कि किसके ज्यादा पत्र छपेंगे। ‍इस नाम से मैंने कुछ लेख भी लिखे,जो अखबारों में छपे। लोकप्रियता का आलम यह था कि होशंगाबाद के एक लल्ला भारतीय नामक सज्जन ने अपने आपको यूआर भारतीय कहना शुरू कर दिया। बाद में मैंने भारतीय जी को भी विदा कर दिया। फिर सोचा अगर उत्साही नहीं होता तो दूसरा नाम क्या होता। दूसरा नाम मैंने रखा राजेश सीमांती। अब आप यह मत पूछिए कि यह सीमांती क्या बला है। यह बिलकुल निजी है और इसे सार्वजनिक नहीं किया जा सकता। कुछ पत्र इस नाम से भी अखबारों में छपे।

अभी भी मैं किसी के लिए मैं ‘राज’ हूं,तो किसी के लिए ‘राजू’ भी। अपने रंग के कारण ‘कालिया’ नाम से भी मुझे पुकारा जाता रहा। मेरी ससुराल में मुझे ‘माथापच्ची’ कहा जाता है। माथापच्ची चकमक बाल विज्ञान पत्रिका का नियमित और लोकप्रिय कालम रहा है,जिसका मैंने वर्षों संपादन किया। अब लोग मिलते हैं जो नाम का अर्थ जानते हैं, वे तुरंत कहते हैं अरे आप तो नाम से भी और स्वभाव से भी उत्साही हैं। मैं बस मुस्कारा देता हूं।

यह नाम पुराण पूरा नहीं होगा यदि मैं अपने बेटों के नाम रखने की कहानी बयां न करुं। शादी हुई। पत्नी का नाम निर्मला है। उन दिनों यानी 1985 में बाजार में निरमा वांशिग पावडर का जितना नाम था, उससे कहीं ज्यादा हल्ला टेलीविजन पर उसके विज्ञापन गीत का था। मेरी एक मौसेरी बहन सरस्वती उर्फ सरू ने निर्मला को निरमा-ला कहकर ही पुकारना शुरू कर दिया था। इसलिए मैंने निर्मला को नीमा में संक्षिप्त कर दिया। हालांकि उसे मायके में पहले से ही नीमू कहा जाता था।

बहरहाल तो जब पहला बच्चा होने वाला था तो हमने लड़की और लड़के दोनों के लिए नाम सोचे। लड़की हुई तो नाम रखेंगे नेहा या आस्था। लड़का हुआ तो उत्सव। पहला बच्चा बेटा हुआ। लेकिन बहुत तकलीफ के साथ । नीमा रात भर दर्द से परेशान रहीं। एक प्रायवेट अस्पेताल में लेबर रूम में टेबिल पर लगी राड को पकड़े-पकड़े उसकी बांहों में सूजन आ गई। बेटा हुआ तो उसके गले में गर्भनाल की आंटे लगे हुए थे। पैदा होने के बाद छह घंटे तक उसे आक्सीजन पर रखा गया। मैंने उम्मीद छोड़ दी थी। सोचा ऐसे बच्चे का नाम उत्सव कैसे रखा जा सकता है। तब मुझे कबीर याद आए। उनकी जीवटता याद आई। मैंने तय किया कि इसका नाम कबीर रखेंगे। नीमा को बताया। नीमा हिन्दी साहित्य में एमए हैं। पांच साल कालेज में पढ़ाती रही हैं। कबीर को खूब पढ़ा और पढ़ाया था,इसलिए स्वीकारने में कोई समस्या नहीं हुई। तो इस तरह बड़े बेटे का नाम कबीर हुआ।

समय बीतता गया। जब दूसरा बच्चा गर्भ में आया तो नाम सोचने की जरूरत नहीं पड़ी। जेहन में नेहा ,आस्था और उत्सव थे। इन नामों के प्रति एक तरह का लगाव-सा हो गया था। संयोग से दूसरा बच्चा भी बेटा ही हुआ। हमने जन्मते ही उसका नाम उत्सव रख दिया। हमारे यहां तीसरा बच्चा नहीं हुआ। इसलिए नेहा और आस्था जेहन में ही रह गए। किसी परिचित या रिश्तेतदार के यहां लड़की जन्मती तो मैं उन्हें यही नाम सुझाता। छोटे भाई अनिल की शादी हुई। अनिल और रानी के यहां पहला बच्चा लड़की हुई। उन्होंने उसका नाम पूजा रखा। संयोग से उनका दूसरा बच्चा भी लड़की हुई । इसका नाम उन्होंने आस्था रखा। आखिरकार हमारे सोचे नामों ने एक-एक रूप धारण कर ही लिया। ‍

यह मुझे बहुत पहले मालूम हो चुका था कि हिन्दुस्तान में मेरे अलावा केवल एक और उत्साही हैं। वे हैं नामी गिरामी शायर बेकल उत्साही। कहा जाता है कि उनका मूल तख़ल्लुस बेकल था, उत्साही नाम उन्हें नेहरू जी ने दिया। फिर मुझे दो और उत्साही मिले। एक नटवर पटेल ‘उत्साही’, जो भोपाल में रहते थे। वे भी साहित्य में रूचि रखते थे। उनसे नाम के कारण ही मित्रता हुई। फिर वे भीड़ में कहीं खो गए। अब कहीं नजर नहीं आते। दूसरे हैं राजस्थान के महेन्द्र सिंह ‘उत्साही’। वे भी लिखने-पढ़ने से सरोकार रखते हैं। इंटरनेट पर जब गूगल पर एकाउंट खोला तो पहली ही बार में केवल उत्साही नाम से ही मिल गया। तो मैं कह सकता हूं कि कम-से-कम नाम के मामले में तो अपन कुछ ‘निराले’ हैं ही, भले ही ‘निराला’ न हों।
0 राजेश उत्साही
(इस लेख का संपादित रूप udanti.com पत्रिका के जुलाई,2009 अंक में प्रकाशित हुआ है।)

7 comments:

  1. वाह !!! अत्यंत रोचक अंदाज में लिखा आपका यह संस्मरणात्मक आलेख अति आनंदित कर गया....

    सच कहा आपने " नाम में क्या रखा है से अधिक महत्वपूर्ण है कि ,नाम में आपने क्या क्या रख छोडा है"
    यह उक्ति अविस्मृत रहेगी..

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  2. Naam me bahut kuch rakha hai..
    Aaj sara jahan naam banane ke piche padi hai..

    aur kuch log naam bhunaane ke piche..

    badhiya lekh..

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  3. सचमुच, नाम के लिए ही तो दुनिया मरती है।
    ( Treasurer-S. T. )

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  4. Rajesh,
    Nice to know you are in Blogspot. Very nice forum to keep all discussions on.

    Kapil Sibal ke anusar, Hindi mein parke, phir job karne jab hum jaate hai, woh international language English mein hi hota hai, jyada tar - is vishay mein aap ka kya rai hai?
    Julia

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  5. Rajesh bhai maja aa gaya "NAM PURAM" me. Vah! Kish andaj se kah gaye aap ye baten. maja aa gaya.

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  6. लो जी पटेल साहब, राजेश उत्साही जी ने ताव दिलाया था कि बिना लिंक के खोज लो तो हमने खोज लिया आपको, यू.आर.उत्साही और राजेश सीमांती जी को भी:)
    मस्त तरीके से परिचित करवाया है आपने, अपने इतिहास से।

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  7. RAJESH JI, AAPKI POST PADH KAR POORANE DINO KI YAAD AAGAYI. MERE SATH BHI KOOCHH AISA HI HOOAA HAI. UDAY TAMHANEY. BHOPAL.

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जनाब गुल्‍लक में कुछ शब्‍द डालते जाइए.. आपको और मिलेंगे...