कुछ वर्षों पहले राजश्री प्रोडक्शन की एक फिल्म आई थी 'हम साथ-साथ हैं।' इसमें एक गीत है ‘ये तो सच है कि भगवान है, है मगर फिर भी अनजान हैं, धरती पर रूप मां-बाप का उस विधाता की पहचान है’ यह गीत जब भी कानों में उतरता है मेरी आंखों से खारा समुद्र बहने को हो आता है। आप कहेंगे मैं बहुत भावुक हूं। सच है,पर इतना भी नहीं कि हर वक्त नमकीन पानी पीता रहूं। सच तो यह है कि मैं जिन्दगी में बहुत कम बार रोया हूं। मेरा खारापन बहुत मुश्किल से निकलता है। पर पता नहीं इस गीत में क्या खूबी है कि यह मेरी आंखों में ज्वार ला देता है। शायद एक तो इसमें मां-बाप की तस्वीर इस तरह खींची गई है कि अतिश्योक्ति प्रतीत होते हुए भी वह हकीकत लगती है। दूसरे संगीतकार राम-लक्ष्मण की कंपोजिंग ऐसी है कि सीधे दिल में जाती है। हरिहरन और उनके साथियों ने भी इसे ऐसे भक्ति भाव से गाया है कि मन सम्मोहित हो जाता है। वे शब्द भी बहुत महत्वपूर्ण हैं जिन्हें रवीन्द्र रावल ने चुनकर जमाया है।
आज अभिभावक यानी पालक दिवस है जब एफएम पर सुना तो यह गीत अचानक याद आ गया और फिर एक के बाद एक कई बातें। जाहिर है अभिभावक भी। यूं तो वे जेहन में हमेशा ही रहते हैं।
अभिभावकों को लेकर मेरे हर तरह के अनुभव और यादें हैं। अच्छे-बुरे,मीठे-कड़वे सब तरह के। लेकिन आज के दिन सकारात्मक बातें याद करना ही बेहतर होगा है।
शुक्रिया, कि उन्होंने मुझे यह दुनिया दी।
अम्मां की हथेली मेरे गालों तक जब भी आई वह प्यार ही लेकर आई। उनका हाथ जब-जब मेरे सिर पर आया, दुलार लेकर ही आया। मैं उनकी डांट से हमेशा वंचित रहा और पिटाई तो उनसे सपने में भी नहीं मिली। इसलिए नहीं कि मैं घर में सबसे बड़ा था या कि बहुत मन्नत का था या कि लाड़ का था। शायद अम्मां के स्वभाव में ही यह नहीं रहा। फिर भी मुझ से छोटे भाई-बहन कभी न कभी अम्मां के गुस्से का शिकार अवश्य हुए हैं। पिटाई बाबूजी से भी नहीं खाई एकाध बार को छोड़कर। कम से कम बच्चों को हाथ लगाना उनके स्वभाव में नहीं रहा। यहां भी छोटे भाई-बहन इसके अपवाद हैं। खैर आज मैं केवल दो-तीन घटनाओं और बातों को ही अपनी यादों की गुल्लक से बाहर ला रहा हूं।
1978 के आसपास जब सड़कों पर वैलबाटम डिजायन की पैंट झाड़ू लगाती नजर आती थीं, मैं उससे दूर भागता था। वह जैसे मुझे काटने को दौड़ती थी। बाबूजी थे कि जमाने के साथ चलना चाहते थे। वे वैलबाटम पहनते थे और चाहते थे कि मैं भी पहनूं। उन्होंने मुझे जबरन वैलबाटम पहनाई। इस बात को लेकर मेरे अन्दर एक तरह का रोष बहुत दिनों तक रहा।
पर दूसरी घटना ने सारा गुबार धो डाला। बाबूजी चाहते थे कि मैं घड़ी पहनूं। उस समय कलाई में घड़ी और जेब में पेन का होना आपको बाकियों से अलग करता था। पेन तो जैसे अपन लेकर ही पैदा हुए थे ,पर घड़ी मुझे बोझ लगती थी। बाबूजी ने कुछ दिन तक मुझे अपनी घड़ी पहनाई। फिर एक दिन मुझे अपने साथ होशंगाबाद से भोपाल ले गए और घोड़ा नक्कास चौराहे से थोड़ा ऊपर इब्राहीमपुरा में एक घड़ी की दुकान में जाकर ही दम लिया। तब एचएमटी घडि़यां सबसे बेहतरीन मानी जाती थीं। उन दिनों एचएमटी की पायलट घड़ी की बहुत धूम थी। कहते हैं वह सेना के लिए बनी थी। खुले बाजार में मुश्किल से मिलती थी। लोगों को उसके लिए नम्बर लगाना पड़ता था। लेकिन जैसे वह मेरे लिए बिना नम्बर ही उपलब्ध थी। रेडियम के चमकने वाले अंकों वाली काले डायल की घड़ी खरीदी गई मेरे लिए। चाबी वाली। मैंने बड़े बेमन से उसे अपनी कलाई पर जगह दी। तब उसका दाम था साढे़ तीन सौ रूपए। यह बहुत ज्यादा था। इसका अंदाजा आप इससे लगा सकते हैं कि एक साल बाद जब मैंने नौकरी शुरू की तो मेरा मासिक वेतन था मात्र एक सौ पैंतालीस रुपए। मुझे वह घड़ी नहीं हथकड़ी लगती थी। ऐसा लगता था बाबूजी हर वक्त मेरी कलाई पकड़कर मुझे लिए जा रहे हैं। फिर धीरे-धीरे मुझे उसकी आदत हो गई।
इस बात को तीस साल हो गए हैं। लेकिन वह हथकड़ी यानी घड़ी अब भी मेरी कलाई में है। मैंने उसे नहीं बदला। शादी के समय भी नहीं। जब मेरी शादी हुई थी,उस समय यानी 1985 में दूल्हा-दुल्हन के लिए घड़ी बहुत महत्वपूर्ण तोहफा होती थी। मैंने उस समय भी इसे नहीं बदला।
एक छोटी-सी बात ने उसे और महत्वपूर्ण बना दिया। होशंगाबाद के मोरछली चौक पर आवरगी के दौरान मुझे एक ऐसा कलाकार मिला जो घड़ी के केस पर (चाबी वाली साइड के विपरीत वाली साइड पर) अपनी छोटी-सी छैनी और हथौड़े से नाम लिखता था। उसने केवल एक रुपए में मेरी घड़ी पर मेरा नाम लिखा अंग्रेजी की करसिव रायटिंग में - राजेश पटेल ‘उत्साही’। फिर तो वह घड़ी मेरे लिए अनमोल हो गई। अब घड़ी कलाई में लगातार बाबूजी का अहसास दिलाती रहती है। मैंने उसे नहीं बदला है, हां वह मुझे बदलती रही है। ‘घड़ी’ ही है तो जो हमें बदलती है।
आत्महत्या समाज में हमेशा से रही है। जब कोई युवा यह करता है तो दुख होता है। हमारे जमाने में युवा प्रेम में कम, अवसाद में ज्यादा आत्महत्या करते थे। तब भी आत्महत्या की घटनाएं अखबारों की सुर्खियां बनती थीं। अखबार हमारे घर में बहुत छुटपन से आने लगा था। मुझे याद है कि बाबूजी जब ऐसी घटना को पढ़ते तो घर में हम सबके सामने चर्चा जरूर करते। वे कहते कि ‘आत्महत्या समस्या का समाधान नहीं है। सच है कि समस्या समाप्त हो जाती है,पर व्यक्ति भी समाप्त हो जाता है। यह कायरता है,पलायन है। बहादुरी इसमें है कि समस्या का सामना करो आत्महत्या नहीं।’
यह बहुत ही दुखद याद है कि मेरे एक प्रिय मित्र तुकाराम डोंगरे ने ऐसा पलायन किया था। हकीकत यह है कि मैं भी ऐसे दौर से गुजरा हूं जब मैंने तीन बार अपने को नष्ट करने का प्रयास किया। पर हर बार बाबूजी के कहे शब्द मेरे सामने आकर खड़े हो गए। और फिर एक समय ऐसा आया जब आत्महत्या शब्द को मैंने अपनी जिन्दगी के शब्दकोष से ‘डिलिट’ कर दिया।
बाबूजी से जो मैंने एक और सीखी वह है खुद्दारी। बाबूजी का सिद्धांत रहा अपने पास हो तो खाओ वरना अपने घर में भूखे भले। कभी किसी के आगे हाथ न फैलाओ। मैंने कोशिश की कि अपने जीवन में इसे उतार पाऊं।
अम्मां की क्या बात करूं। बहुत सारी बातें हैं। पर एक घटना भुलाए नहीं भूलती। शादी हुई और कुछ दिनों बाद परिस्थितियां ऐसी बनीं कि लगा कि मुझे मेरे नए परिवार के साथ भोपाल जाकर रहना चाहिए। लेकिन यह बात मैं घर में कैसे कहूं इस दुविधा में था। फिर एक दिन मैंने एक लम्बा खत अम्मां-बाबूजी के नाम लिखा और घर की टेबिल पर रखकर भोपाल चला गया। जब तीन बाद घर लौटा तो घर में बिलकुल शांति थी। मैं अपेक्षा कर रहा था कि मेरे पत्र को लेकर घर में बहुत हंगामा होगा। पर यहां उसके बिलकुल उलट था। अम्मां सामने आईं और उन्होंने पूछा कि भोपाल कब जाना चाहते हो। इतना ही नहीं क्या-क्या सामान ले जाना होगा यह भी उन्होंने सुझाया। जो घर में था वह निकालकर दिया जो नहीं था उसका इंतजाम करवाया। और अपने आंचल में से बहुत सारे प्यार और आर्शीवाद के साथ विदा किया। वह उसके बाद बढ़ता ही गया है। यह संयोग ही है कि वह भी जुलाई महीने की ऐसी ही कोई तारीख ही थी।
इससे ज्यादा क्या कहूं, शुक्रिया कि उन्होंने यह दुनिया दी।
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ReplyDeleteउत्साही जी नमस्कार
ReplyDeleteउम्मीद है आप अच्छे से होंगे, आपका आज ब्लॉग देखा बहुँत अच्छा लगा, आपको देख कर पुराने दिनों की यादे ताजा हो गई. इस समय मई भी कानपूर में प्रवासी मजदूरों के साथ काम कर रहा हूँ. मै भी ब्लॉग पर कुछ लिखने की कोशिश कर रहा हूँ अगर आपको वक्त मिले तो जरुर देखिएगा.
http://kishanvyas.blogspot.com/
शुभकामनाओं के साथ
किशन व्यास, पिपरिया, होशंगाबाद
Rajesh ji,
ReplyDeleteBadhiya sansmaran likha aapne..wo purane dino ki yaad dila di.wo bade hi manmohak din hote hai kyonki bachpan wah daur hota hai jab ham sari duniya se alag kisi lok me hote hai..jahan sukh aur dukh ka bahut hi kam asar hota hai..lobh lalach bas un cheezon ke liye hoti hai jo bas barbas hi aa jati hai..
achche din jiwan ke anmol baten aur yaden aapne sanjoye..
badhayi !!!
RAJESH JI, SAHAJTA SE AAPNE SAB KOOCHH BATA DIYA.BADHIYA. MERE JIWAN MAI BHI AISA DOUR AAYA JAB MAI NIRASH, HATASH HO GAYA. PAR AATMHATYA KARNE KA KABHI N SOCHA. PATA NAHI KYO ? UDAY TAMHANEY. BHOPAL.
ReplyDeleteएक घड़ी ने कितना अंतराल बांधा हुआ है! खुशकिस्मत हूँ कि यह संस्मरण पढ़ने का अवसर मिला।
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