मतलब कि फिल्म देख ली। फिल्म जब रिलीज हुई तो किसी ने
लिखा था फिल्म चाहे जैसी हो पर उसकी टाइमिंग एकदम सही है। ‘घर वापसी’ की
चर्चाओं के बीच। इस बात में तो दम है। सच कहूं तो इंटरवल तक तो फिल्म
जोड़-तोड़ के चुटकुलों या थोड़ी गंभीरता से कहूं तो व्यंग्य लघुकथाओं पर
चलती नजर आती है। कुछ और गंभीरता से कहूं तो ये कथाएं हमें हरिशंकर परसाई,
शरद जोशी और उनके समकालीन व्यंग्यकारों की रचनाओं में बहुतायत में मिल जाएंगी। उनके बाद के भी।
इसमें तो कोई शक नहीं कि इसमें लगभग सब धर्मों के आडम्बरों की चर्चा की गई है या उन पर तंज कसा गया है। हां अब अगर किसको कितना फुटेज मिला है, तो निसंदेह हिन्दू धर्म के हिस्से ज्यादा गया है। लेकिन हल्ला वे लोग मचा रहे हैं जिनका इससे कोई लेना-देना नहीं है। वे बड़े-बड़े देवालय वाले तो चुप ही हैं जिनके यहां हर साल करोड़ों का चढ़ावा आता है। वे टीवी वाले बाबा भी चुप ही हैं जो शैम्पू की बोतल या फिर ब्रेड में सॉस लगाकर किसी को दान करने का सुझाव देते हैं। फिल्म का असली असर तो मैं तब ही मानूंगा जब उनकी दुकानदारी बंद हो जाए। वास्तव में यह सोचना खामख्याली ही होगा, क्योंकि फिल्म भी यही कहती है। जब तक डर का व्यापार चलेगा तब तक सबका दरबार चलेगा। और ये कोई आज से नहीं चल रहा है। इसको फैलाने में भी फिल्मों का हाथ रहा है। याद करें ‘जय संतोषी माता’ फिल्म। सिनेमाहाल में लोग बिना जूते-चप्पल के जाते थे। हाल के बाहर गुड़ और चने का प्रसाद बंटता था।
मुझे यह फिल्म आस्थाओं को ठेस पहुंचाती हुई कहीं से भी नजर नहीं आई। आस्था और आडम्बर में अंतर होता है। आस्था अमूर्त है जबकि आडम्बर दिखाई देता है। शिवलिंग पर दूध चढ़ाना आस्था नहीं है। लुढ़कते हुए,घुटनों के बल चलते हुए देवालयों में जाना आस्था नहीं है। ये उसके प्रतीक हो सकते हैं। जो लोग इन्हें अपनी आस्था मानते हैं, उन्हें फिर से इस पर विचार करना चाहिए।
इसमें तो कोई शक नहीं कि इसमें लगभग सब धर्मों के आडम्बरों की चर्चा की गई है या उन पर तंज कसा गया है। हां अब अगर किसको कितना फुटेज मिला है, तो निसंदेह हिन्दू धर्म के हिस्से ज्यादा गया है। लेकिन हल्ला वे लोग मचा रहे हैं जिनका इससे कोई लेना-देना नहीं है। वे बड़े-बड़े देवालय वाले तो चुप ही हैं जिनके यहां हर साल करोड़ों का चढ़ावा आता है। वे टीवी वाले बाबा भी चुप ही हैं जो शैम्पू की बोतल या फिर ब्रेड में सॉस लगाकर किसी को दान करने का सुझाव देते हैं। फिल्म का असली असर तो मैं तब ही मानूंगा जब उनकी दुकानदारी बंद हो जाए। वास्तव में यह सोचना खामख्याली ही होगा, क्योंकि फिल्म भी यही कहती है। जब तक डर का व्यापार चलेगा तब तक सबका दरबार चलेगा। और ये कोई आज से नहीं चल रहा है। इसको फैलाने में भी फिल्मों का हाथ रहा है। याद करें ‘जय संतोषी माता’ फिल्म। सिनेमाहाल में लोग बिना जूते-चप्पल के जाते थे। हाल के बाहर गुड़ और चने का प्रसाद बंटता था।
मुझे यह फिल्म आस्थाओं को ठेस पहुंचाती हुई कहीं से भी नजर नहीं आई। आस्था और आडम्बर में अंतर होता है। आस्था अमूर्त है जबकि आडम्बर दिखाई देता है। शिवलिंग पर दूध चढ़ाना आस्था नहीं है। लुढ़कते हुए,घुटनों के बल चलते हुए देवालयों में जाना आस्था नहीं है। ये उसके प्रतीक हो सकते हैं। जो लोग इन्हें अपनी आस्था मानते हैं, उन्हें फिर से इस पर विचार करना चाहिए।
वास्तव में फिल्म धर्म के जरिए व्यवस्था पर भी तंज कसती है। और व्यवस्था से नाउम्मीद होते जनसामान्य के लिए ले-देकर एक धर्म ( अपरोक्ष रूप से भगवान) का सहारा ही बचता है...भले ही वह जानता है कि यह झूठा है। लेकिन इसमें विश्वास करने के लिए उसे एप्लीकेशन नहीं लगानी है। अब व्यवस्था पर तंज कसने वाली तो एक नहीं सैंकड़ों फिल्में बनी हैं...उनसे कोई क्रांति नहीं हुई, तो पीके से भी उम्मीद करना बेकार है। हां, उम्मीद एक ही है वह है उस पीढ़ी से जिसका अभी कोई तय मानस बना नहीं है। जिसे सवाल पूछना अच्छा लगता है, सवालों के जवाब खोजना अच्छा लगता है, उसे यह फिल्म भी अच्छी लगेगी, लगनी भी चाहिए।
यह सही है कि तथाकथित भगवान (या खुदा या गॉड) की अवधारणा को जड़ से ही समाप्त कर देना आसान नहीं है। अगर हम सचमुच किसी सर्वशक्तिमान में विश्वास करते हैं तो हमें यह मानना चाहिए कि उसने सबको बनाया है। दुनिया को उससे खतरा नहीं है, खतरा है हमारे बनाए हुए भगवानों से, पीके की भाषा में कहें तो भगवानों के मैनेजरों से। अगर फिल्म का संपादन कुछ इस तरह होता कि यह बात सबसे अंत में आती तो फिल्म दर्शकों में एक सकारात्मक प्रभाव छोड़ती। अभी जो अंत है, वह फिल्म के पूरे प्रभाव को कम कर देता है। जाने या अनजाने फिल्म खत्म होते-होते दर्शकों को अनुष्का और आमिर का बिछुड़ना या अंत में आए एक और नंगे-पुंगे (लेकिन टिंगे नहीं, लम्बे) हीरो रणवीर कपूर ही याद रह पाते हैं। या यों कहें कि आखिर के पांच-सात मिनट की फिल्म सारे किए कराए पर पानी फेर देती है।
फिर भी मैं कहूंगा यह फिल्म अनिवार्य रूप से बच्चों को दिखाई जानी चाहिए। जो दो-चार ए-ग्रेड वाले सीन हैं,वे तो बच्चे यूं भी टीवी पर देखते ही रहते हैं। फिल्म बच्चों का मनोरंजन तो करेगी ही, पर सवाल पूछने के लिए भी उकसाएगी। लेकिन बच्चों को दिखाएं तो उनके सवाल सुनने की तैयारी रहे, और न केवल सुनने की बल्कि जवाब देने की भी।
मुझे लगता नहीं है कि फिल्म कोई राष्ट्रीय पुरस्कार जीत पाएगी। हां बहुत संभव है कि इसे लोकप्रिय फिल्म का सम्मान मिल जाए।
और अंत में : फिल्म के विरोध की खबरों के बीच खबर यह भी रही थी कि फिल्म आडवाणी जी को पसंद आई। आनी ही ठहरी। फिल्म के आरंभ में ही उन्हें तथा अमिताभ बच्चन को धन्यवाद ज्ञापित किया गया है। धर्म गुरु श्रीश्री रविशंकर जी और एनडीटीवी के प्रणवराय भी इस सूची में हैं। जाहिर है कि ये सब नाम संबंधितों की सहमति के बिना तो नहीं दिए गए होंगे।
0 राजेश उत्साही
बहुत ही सुंदर रचना।
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