सन् 1933 का साल। इंदौर में
हिंदी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन हो रहा था। अध्यक्ष थे महात्मा गांधी। वे रायबहादुर
हीरालाल कल्याणमल की डायमंड कोठी में ठहरे हुए थे। इस सम्मेलन के पीछे श्री माखनलाल
चतुर्वेदी के अपार परिश्रम और सर हुकमचंद के अपारधन का संबल था। हर व्यवस्था सम्मेलन
के सूत्रधार बाबू पुरुषोत्तम दास जी टंडन की निजी देखभाल में हो रही थी। सम्मेलन
अत्यंत सफल रहा। गांधीजी को खुश करने के लिए सभी संभव प्रयत्न किए गए थे। परंतु गांधीजी
की दृष्टि तो दुनिया के बड़े से बड़े चक्रवर्तियों की शानशौकत से भी चकाचौंध होनेवाली
नहीं थी। उन्हें प्रभावित करने के लिए तो कार्यनिष्ठा,चरित्रसंपन्नता और हृदयधर्म
से शोभायमान मानवता की आवश्यकता थी। उनकी तीक्ष्ण दृष्टि इन्ही गुणों की तलाश में
रहती ।
विषय निर्णायक समिति में बापू
का ध्यान समाज-कल्याण के कार्यों में साहित्य किस हद तक सहायक हो सकता है, इसी बात पर केन्द्रित रहा।
सारे प्रस्तावों की परीक्षा इसी कसौटी पर होती। सारे भाषणों का मूल्यमापन भी इसी
हिसाब से होता। उनका प्रारंभिक प्रवचन भी इसी आधार पर हुआ। साहित्य को उन्होंने प्रजाधर्म
के मध्य में लाकर खड़ाकर दिया। सामान्य जनता के दारिद्रय को दूर करना,उसकी दीनता को नष्ट करना, उसमें मानवीय गुणों का विकास
करना,उसे पुरुषार्थी बनाना, उसकी शक्ति को जाग्रत करना
और उसके तेज को बढ़ाना ही साहित्य और साहित्यकारों का धर्म माना गया। यह नूतन जीवनदर्शन
बापू ने अपनी सन्निष्ठ अमृतवाणी में प्रस्तुत किया। देखते-देखते सम्मेलन की हवा
बदल गई। कवियों के मुख उदास हो गए,कहानीकार मौन हो गए। बड़े-बड़े
लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकारों का दम सूख गया।
इतने में एक प्रस्ताव के
समय कानपुर के श्री बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ उठ खड़े हुए। ‘कुंकुम’के इस कवि ने कविता की अभिराम
बंसी छेड़ दी। वे एक बाद एक कविता गांधी जी को सुनाने लगे। जनता से कहते जाते कि साहित्य
उसकी चरणसेवा करने वाली दासी नहीं है। साहित्य प्रजा की ही उपज है। जैसी प्रजा वैसा
साहित्य। गांधीजी जैसी विभूति ने इस प्रजा में जन्म लिया,अत: उसका साहित्य भी सर्वोच्च
शिखर पर पहुंचेगा। खुद गांधीजी का साहित्य इस बात की पुष्टि करता है। ‘नवीन’जी के विधानों से साहित्यकार
के अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य की पुनर्स्थापना हुई ।
इस प्रकार हिंदी साहित्य
सम्मेलन के इस अधिवेशन ने जनसाधारण और साहित्य के बीच के संबंध को दृढ़ बनाया। ‘नवीन’जी की मस्ती और आजादी को
देख गांधीजी भी प्रसन्न हुए। उन्हें जहां भी शक्ति और सन्निष्ठा के दर्शन होते
थे वहां उनका स्मित सुगंध छलकाए बिना नहीं रहता था।
लेकिन कुछ ही घंटों बाद यह
स्मित म्लान हो गया। दूसरे दिन बापू को सर हुकमचंद के यहां भोजन करने जाना था। उनकी
निकटस्थ मंडली को भी निमंत्रण था। सर हुकमचंद के विशाल महल ‘आनंद भवन’ में बापू भोजन करने पधारे।
सेठ साहब के हर्ष का पार नहीं रहा। भोजनगृह में कोई पचासेक पाटे लगे हुए थे। प्रत्येक
पाटे पर चांदी का थाल, चांदी की कटोरियां और चांदी के लोटे, गिलास रखे हुए थे। बापू के
पाटे पर सोने का थाल, सोने की कटोरियां और सोने के लोटे-गिलास की सजावट थी। बापू
ने आंगन से ही यह ठाठ देखा और मुस्करा दिए। कस्तूरबा साथ थीं।
बापू ने उनके हाथ से झोला
लिया और जेल में जिनका इस्तेमाल करते थे, वे बर्तन निकाले। अलमुनियम
का एक कटोरा और एक छोटा-सा गिलास। सोने के बर्तनों के पास ही यह वैभव सजा। हुकमचंद
जी हड़बड़ाए हुए आए। बापू से सोने के थाल में भोजन करने की आग्रहभरी विनती करने लगे।
बापू ने हंसते-हंसते कहा कि खाने के बाद बर्तन भी साथ ले जाने की अनुमति हो तो उनमें
खा सकता हूं। सेठ साहब चुप हो गए। बापू ने सोने के बर्तन हटवा दिए और जेल के बर्तनों
में अपना विशिष्ट खाना खाया। बापू ने भोजन किया, पर उनके दरिद्रनारायण भूखे
रहे। शर्म के मारे हम मुश्किल से दो-चार कौर खा सके। सर हुकमचंद जाने-माने करोड़पति
थे। पर उनके करोड़ों ने उनकी अल्पता को काबू में नहीं रखा।
(‘गांधी-मार्ग’ के जुलाई-अगस्त 2013 से
साभार। श्री किशनसिंह चावड़ा की गुजराती पुस्तक ‘अमास ना तारा’ का हिंदी अनुवाद ‘अंधेरी रात का तारा’ श्री कृष्णगोपाल अग्रवाल
ने किया है। सौमैया प्रकाशन ने इसे 1973 में प्रकाशित किया था। यह प्रसंग इसी पुस्तक
से है। इस पुस्तक की दुर्लभ प्रति गांधी मार्ग को मसूरी,लैंढोर,उत्तराखंड के श्री पवन कुमार
गुप्ता के सौजन्य से प्राप्त हुई है।)
0 प्रस्तुति : राजेश उत्साही
क्या ग्राह्य है, गाँधी जी जानते थे। आत्मीय को सर्वश्रेष्ठ अर्पित करने में सेठ जी का भी दोष नहीं।
ReplyDeleteफिर भी सेठ जी यह नहीं कह पाए कि बापू जी सब कुछ आपका है।
Deleteदुर्लभ संस्मरण पढ़ाया आपने..आभार।
ReplyDeleteशुक्रिया।
Deleteसादगी से भला कोई बड़ा हो सकता है। बहुत ही प्ररेणादायक प्रसंग है। बधाई कि आपने हम तक पंहुचाया ।
ReplyDeleteशुक्रिया।
Deleteबापू जैसे आदर्श कौन रख पाता है .... इस पोस्ट के लिए आभार
ReplyDeleteशुक्रिया।
Deleteशुक्रिया।
ReplyDeleteगांधीजी को पिछले कई साल से पड़ रहा हूं...फिर भी समझ में नहीं आता कि क्या कहूं...ऐसे ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं कि हैरत होती है....अगर हम लोग विचारों की थाली अपने पास रखते हैं...मगर ये थाली अस्तव्यस्त रहती है ...मगर बापू की थाली में अनेक विचार थे और सभी करीने से रखे हुए।
ReplyDeleteउत्साही जी ,इस प्रस्तुति के लिये आभार । पढ कर श्रद्धा को और भी बल मिला । ये ही बातें तो बाबू को सबसे अलग बनाती हैं । खेद है कि आज उन्हें समझने वाले गिनतियों में रह गए हैं । सतही दृष्टि से उन्हें पूरी तरह नही जाना जासकता
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