Saturday, July 20, 2013

अभी तो मैं जवान हूं...




यूनीवर्स्‍टी में दोपहर के खाने के समय जब कैंटीन में बहुत भीड़ हो जाती है तो कुछ लोग अपनी थाली लेकर बाहर बास्‍केटबाल ग्राउंड में निकल जाते हैं। मैं खाना खाकर निकला तो ग्राउंड में भोजन करती एक परिचित युवती ने कहा.. आइए यहां बैठिए हमारे पास..अभी तो आप जवान हैं..और फिर अपने एक अन्‍य मित्र से परिचय कराते हुए तारीफ में कसीदे काढ़ दिए..ये वो हैं, ये तो हैं, सम्‍पादक हैं, लेखक हैं...और भी न जाने क्‍या..क्‍या...फिर मुझ से मुखातिब होते हुए पूछा...मैंने ठीक ही कहा न। मैंने कहा...पता नहीं...मैं तो अभी पहले ही वाक्‍य में अटका हुआ हूं....(पचपन की उमर में सोच रहा हूं दिल बहलाने को ख्‍याल अच्‍छा है)।
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मई में उदयपुर में था। नोटिस किया कि शरीर पर अचानक ही कुछ ददोरे उभर आते थे, कुछ देर बाद अपने आप ही बैठ जाते थे। पर जितनी देर रहते, उनमें खुजली होती रहती। लगा कि शायद मच्‍छरों के काटने से हो रहा है। मच्‍छर भगाने का इंतजाम किया। पर ददोरे कम नहीं हुए। उदयपुर से भोपाल आया। भोपाल में वही हाल। लगा कि शायद घर में खटमल हो गए हैं। लकड़ी की जिस चौकी पर बैठता था, उसे बाहर ले जाकर पटका, ठोका, उसकी दरारों को खटकाया। पर खटमल का ख भी नहीं नजर नहीं आया। भोपाल से इंदौर, सेंधवा और फिर देवास गया। सब जगह यह समस्‍या ज्‍यों की त्‍यों रही। नीमा ने कहा, यह तो शीत लगती है।

भोपाल से देहरादून जाना था। देहरादून पहुंचा तो वहां भी वही स्थिति। लगा कि एलर्जी होगी, तो मेडीकल स्‍टोर में एविल खरीदने गया। एविल का नाम सुनकर दुकानदार ने बुरा सा मुंह बनाया और कहा नहीं है। उसने धीरे से किसी और गोली का नाम लिया, इतने धीरे से कि मैं सुन भी नहीं सकता था। मैं भी चुपचाप लौट आया। देहरादून आफिस में बंगलौर के पुराने साथी मासूम हैं। उनके पिताजी डॉक्‍टर थे और चाचा का मेडीकल स्‍टोर है, सो उन्‍हें दवाओं की अच्‍छी खासी जानकारी है। उन्‍हें समस्‍या बताई, तो बोले एविल तो अब बैन हो गई है। उसके बदले में एक दूसरी दवा ली जाती है। उसका नाम एक पर्ची पर लिखकर दिया। ऑफिस के सामने ही मेडीकल स्‍टोर है। वहां से दवा खरीदी। पांच गोलियों का दाम दस रूपए। गोलियों के पत्‍ते पर दस गोलियों का दाम पैंतीस लिखा था। मैंने सोचा,शायद दुकानदार ने ठीक से नहीं देखा और कम पैसे लिए हैं। लौटकर मैंने उससे कहा। वह बोला, नहीं यह गोली हमें इतने में ही पड़ जाती है। इस दवा से फौरी आराम हो गया।

बंगलौर लौटा तो इसी सिलसिले में एक निजी अस्‍पताल में दिखाने गया। वहां महिला डाक्‍टर थीं। उन्‍होंने ब्‍लड प्रेशर देखा, तुरंत किया जाने वाला सुगर टेस्‍ट किया। सब कुछ सामान्‍य था। उन्‍होंने कहा, गुड। दवाइयां लिखते हुए पूछा, स्‍मोकिंग करते हैं, मैंने न में सिर हिलाया। पूछा, रात को ड्रिंक करते हैं। मैंने कहा, दिन में भी नहीं करता। उन्‍होंने मेरी तरफ देखा और मुस्‍कराते हुए कहा, वेरी गुड।

दोनों बार उन्‍होंने कुछ इस अंदाज में गुड कहा, जैसे एक अच्‍छी टीचर कक्षा में अपने किसी विद्यार्थी को सवाल सही हल करने पर शाबाशी दे रही हो। सचमुच खुशी हुई। असल में तो स्‍कूल में कभी ऐसा मौका ही नहीं आया कि अपन को गुड मिले..और वह भी किसी महिला टीचर से...। अव्‍वल तो महिला टीचर ने पढ़ाया ही नहीं।
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देहरादून ऑफिस में एक और सहकर्मी हैं। जब मौका मिलता, मुझे बुढऊ कहने से नहीं चूकते। मुझे पता है कि वे यह मजाक में ही कहते हैं। पर एक मैं हूं कि मुझे इस बात का अहसास ही नहीं होता है कि मैं अब पचासपार हो गया हूं। असल में सिर पर सफेद कालों बालों की खिचड़ी सत्रह की उमर में ही पक गई थी। इसलिए इस बात का कभी अंदाजा ही नहीं हुआ कि अपना बुढ़ापा कब शुरू हो रहा है या कि हो गया है। कभी-कभी सोचता हूं सहकर्मी सचमुच मजाक कर रहे होते हैं या इस बात से कहीं अंदर ही अंदर जल रहे होते हैं कि ये जनाब तो अभी भी कई बातों में जवानों को मात करते हैं।
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तीन बरस पहले का एक और वाकया है। विप्रो कैंटीन में मैं अपने एक युवा सहकर्मी के साथ खाने के लिए जाता था। वहां एक समय पर एक साथ पांच-छह सौ लोग भोजन कर रहे होते हैं। जाहिर है कि उनमें सभी उम्र के महिला-पुरुष होते हैं। अब अपन....मैं हर हंसी चीज का तलबगार हूं... वाली नजर रखते हैं....सो किसी का चेहरा, किसी की चाल, किसी ढाल और किसी की पोशाक, किसी की सादगी, किसी की संवाद अदायगी, किसी की मुस्‍कान और किसी के नैनों के बाण अपना ध्‍यान खींच ही लेते थे। यह बात हमारे युवा साथी को कुछ नागवार गुजरती थी। एक दिन उसने कहा,'उत्‍साही जी, अब आपकी उमर इधर-उधर नहीं, भगवान में ध्‍यान लगाने की है।' मैंने कहा, वही तो कर रहा हूं। उसने पूछा, 'कैसे।' मैंने 'रब ने बना दी जोड़ी' में जयदीप साहनी का लिखा उसका प्रिय गाना उसे सुना दिया, 'तुझमें रब दिखता है।'
                                                                            0 राजेश उत्‍साही
     

Thursday, July 18, 2013

कैसी अमीरी, कैसी गरीबी


सन् 1933 का साल। इंदौर में हिंदी साहित्‍य सम्‍मेलन का अधिवेशन हो रहा था। अध्‍यक्ष थे महात्‍मा गांधी। वे रायबहादुर हीरालाल कल्‍याणमल की डायमंड कोठी में ठहरे हुए थे। इस सम्‍मेलन के पीछे श्री माखनलाल चतुर्वेदी के अपार परिश्रम और सर हुकमचंद के अपारधन का संबल था। हर व्‍यवस्‍था सम्‍मेलन के सूत्रधार बाबू पुरुषोत्‍तम दास जी टंडन की निजी देखभाल में हो रही थी। सम्‍मेलन अत्‍यंत सफल रहा। गांधीजी को खुश करने के लिए सभी संभव प्रयत्‍न किए गए थे। परंतु गांधीजी की दृष्टि तो दुनिया के बड़े से बड़े चक्रवर्तियों की शानशौकत से भी चकाचौंध होनेवाली नहीं थी। उन्‍हें प्रभावित करने के लिए तो कार्यनिष्‍ठा,चरित्रसंपन्‍नता और हृदयधर्म से शोभायमान मानवता की आवश्‍यकता थी। उनकी तीक्ष्‍ण दृष्टि इन्‍ही गुणों की तलाश में रहती ।

विषय निर्णायक समिति में बापू का ध्‍यान समाज-कल्‍याण के कार्यों में साहित्‍य किस हद तक सहायक हो सकता है, इसी बात पर केन्द्रित रहा। सारे प्रस्‍तावों की परीक्षा इसी कसौटी पर होती। सारे भाषणों का मूल्‍यमापन भी इसी हिसाब से होता। उनका प्रारंभिक प्रवचन भी इसी आधार पर हुआ। साहित्‍य को उन्‍होंने प्रजाधर्म के मध्‍य में लाकर खड़ाकर दिया। सामान्‍य जनता के दारिद्रय को दूर करना,उसकी दीनता को नष्‍ट करना, उसमें मानवीय गुणों का विकास करना,उसे पुरुषार्थी बनाना, उसकी शक्ति को जाग्रत करना और उसके तेज को बढ़ाना ही साहित्‍य और साहित्‍यकारों का धर्म माना गया। यह नूतन जीवनदर्शन बापू ने अपनी सन्निष्‍ठ अमृतवाणी में प्रस्‍तुत किया। देखते-देखते सम्‍मेलन की हवा बदल गई। कवियों के मुख उदास हो गए,कहानीकार मौन हो गए। बड़े-बड़े लब्‍धप्रतिष्‍ठ साहित्‍यकारों का दम सूख गया।

इतने में एक प्रस्‍ताव के समय कानपुर के श्री बालकृष्ण शर्मा नवीन उठ खड़े हुए। कुंकुमके इस कवि ने कविता की अभिराम बंसी छेड़ दी। वे एक बाद एक कविता गांधी जी को सुनाने लगे। जनता से कहते जाते कि साहित्‍य उसकी चरणसेवा करने वाली दासी नहीं है। साहित्‍य प्रजा की ही उपज है। जैसी प्रजा वैसा साहित्‍य। गांधीजी जैसी विभूति ने इस प्रजा में जन्‍म लिया,अत: उसका साहित्‍य भी सर्वोच्‍च शिखर पर पहुंचेगा। खुद गांधीजी का साहित्‍य इस बात की पुष्टि करता है। नवीनजी के विधानों से साहित्‍यकार के अभिव्‍यक्ति स्‍वातंत्र्य की पुनर्स्‍थापना हुई ।

इस प्रकार हिंदी साहित्‍य सम्‍मेलन के इस अधिवेशन ने जनसाधारण और साहित्‍य के बीच के संबंध को दृढ़ बनाया। नवीनजी की मस्‍ती और आजादी को देख गांधीजी भी प्रसन्‍न हुए। उन्‍हें जहां भी शक्ति और सन्निष्‍ठा के दर्शन होते थे वहां उनका स्मित सुगंध छलकाए बिना नहीं रहता था।

लेकिन कुछ ही घंटों बाद यह स्मित म्‍लान हो गया। दूसरे दिन बापू को सर हुकमचंद के यहां भोजन करने जाना था। उनकी निकटस्‍थ मंडली को भी निमंत्रण था। सर हुकमचंद के विशाल महल आनंद भवन में बापू भोजन करने पधारे। सेठ साहब के हर्ष का पार नहीं रहा। भोजनगृह में कोई पचासेक पाटे लगे हुए थे। प्रत्‍येक पाटे पर चांदी का थाल, चांदी की कटोरियां और चांदी के लोटे, गिलास रखे हुए थे। बापू के पाटे पर सोने का थाल, सोने की कटोरियां और सोने के लोटे-गिलास की सजावट थी। बापू ने आंगन से ही यह ठाठ देखा और मुस्‍करा दिए। कस्‍तूरबा साथ थीं।

बापू ने उनके हाथ से झोला लिया और जेल में जिनका इस्‍तेमाल करते थे, वे बर्तन निकाले। अलमुनियम का एक कटोरा और एक छोटा-सा गिलास। सोने के बर्तनों के पास ही यह वैभव सजा। हुकमचंद जी हड़बड़ाए हुए आए। बापू से सोने के थाल में भोजन करने की आग्रहभरी विनती करने लगे। बापू ने हंसते-हंसते कहा कि खाने के बाद बर्तन भी साथ ले जाने की अनुमति हो तो उनमें खा सकता हूं। सेठ साहब चुप हो गए। बापू ने सोने के बर्तन हटवा दिए और जेल के बर्तनों में अपना विशिष्‍ट खाना खाया। बापू ने भोजन किया, पर उनके दरिद्रनारायण भूखे रहे। शर्म के मारे हम मुश्किल से दो-चार कौर खा सके। सर हुकमचंद जाने-माने करोड़पति थे। पर उनके करोड़ों ने उनकी अल्‍पता को काबू में नहीं रखा।

(गांधी-मार्ग के जुलाई-अगस्‍त 2013 से साभार। श्री किशनसिंह चावड़ा की गुजराती पुस्‍तक अमास ना तारा का हिंदी अनुवाद अंधेरी रात का तारा श्री कृष्‍णगोपाल अग्रवाल ने किया है। सौमैया प्रकाशन ने इसे 1973 में प्रकाशित किया था। यह प्रसंग इसी पुस्‍तक से है। इस पुस्‍तक की दुर्लभ प्रति गांधी मार्ग को मसूरी,लैंढोर,उत्‍तराखंड के श्री पवन कुमार गुप्‍ता के सौजन्‍य से प्राप्‍त हुई है।)
                                  0 प्रस्‍तुति : राजेश उत्‍साही

Thursday, July 4, 2013

फिर मुलाकात हुई एक 'फैन' से..


अभी पिछले महीने ही उत्‍तरकाशी में अपनी कविताओं की फैन रेखा चमोली से मुलाकात हुई थी। अपने एक और फैन से मिलने का मौका इतनी जल्‍दी दुबारा आ जाएगा, मैंने सोचा नहीं था। मैं रुद्रपुर में अज़ीम प्रेमजी फाउण्‍डेशन ऑफिस के बड़े हाल में बैठा हुआ था। थोड़ी ही देर पहले एक बैठक समाप्‍त हुई थी। धीरे-धीरे वहां कुछ युवा और किशोर जमा होने शुरू हो रहे थे। पता चला कि वे सब अगले रविवार को मंचित किए जाने वाले नाटक दरिंदे की रिहर्सल के लिए आ रहे हैं। मैं वहां से जाने के लिए अपना सामान समेटने लगा।

अचानक ही एक किशोर मेरे पास आकर बैठ गया। उसने छूटते से ही कहा,  सर, मैंने आपको पहले भी देखा है । मैं उसे पहचानने की कोशिश कर ही रहा था कि वह बोला, ‘आपका नाम राजेश है। मैंने हामी भरी। मुझे कुछ भी और कहने का मौका दिए बिना वह बोला, मैंने यहां कि लायब्रेरी में आपकी किताब पढ़ी है। जिसमें आपने छोकरा एक, छोकरा दो, छोकरा तीन कविताएं लिखीं हैं। आपने उसमें अपनी पत्‍नी पर भी कविता लिखी है।

तीन-चार और कविताओं के शीर्षक उसने बता दिए। मैं हतप्रभ था और वह गदगद। वह मुझसे मिलकर खुशी से फूला नहीं समा रहा था। उसने लायब्रेरी में मेरा कविता संग्रह वह जो शेष है पढ़ा था। संग्रह के पिछले आवरण पर मेरा फोटो भी था। शक्‍ल तो उसने वहीं देखी होगी। उसे यकीन नहीं हो रहा था कि वह किसी लेखक से मिल रहा है। उसने अपने दो-तीन और साथियों को बुलाया और बताया कि मैं वह कवि हूं जिसकी किताब भी छपी। उसने कहा कि वह भी कविताएं लिखता है और मुझे पढ़वाना चाहता है। पर आज तो वह लाया नहीं है।

नाटक की रिहर्सल शुरू हो चुकी थी। मैं उसमें बाधा नहीं बनना चाहता था। मैंने उससे कहा कि मैं दो-तीन दिन यहां हूं। कल वह अपनी कविताएं लाए और मुझे दिखाए।

मैं अन्‍य साथियों के साथ हाल से बाहर निकल आया। वह भी मेरे साथ साथ ही बाहर तक आया। उसके दोस्‍त भी साथ थे। मैंने उनसे कहा, हम कल मिलेंगे । उसके दोस्‍त तो चले गए....पर वह जैसे मेरा साथ छोड़ना ही नहीं चाहता था। मैंने अपने साथी मुजाहिद से कहा कि हमारा एक फोटो ले ले। पांच मिनट बाद मोबाइल पर उसका संदेश आया कि फिर मिलेंगे।

अगले दिन उसके हाथ में मेरा संग्रह था। वह अपनी कविताएं भी लेकर आया था। बेटी, भ्रूण हत्‍या, कश्‍मीर, देश जैसे विषयों पर कविताएं उसने लिखीं हैं। मुझे उसकी कविताएं पढ़कर अपने किशोर दिन याद आ गए। शुरुआत तो मैंने भी ऐसे ही की थी। पर ज्‍यों ज्‍यों समझ बनती गई, धुंध छटती गई। मैंने उसे अपने अनुभव से कुछ बातें कहीं। एक बार फिर उसने मुझे चौंकाया। उसने कुछ और बातों का जिक्र किया जिससे मुझे पता चला कि केवल कविताएं ही नहीं, उसकी किताब की भूमिका भी पढ़ी थी, जिसमें ज्ञानरंजन जी और मेरे बीच हुए पत्रव्‍यवहार का जिक्र था।

अपनी कविताओं के इस किशोर पाठक से मिलना सचमुच एक अनोखा अनुभव रहा। यह पाठक दसवीं कक्षा में पढ़ने वाला विश्‍वास कुमार है।                                0 राजेश उत्‍साही