यूनीवर्स्टी में दोपहर के खाने के समय जब कैंटीन में बहुत भीड़ हो जाती है तो कुछ लोग अपनी थाली लेकर बाहर बास्केटबाल ग्राउंड में निकल जाते हैं। मैं खाना खाकर निकला तो ग्राउंड में भोजन करती एक परिचित युवती ने कहा.. आइए यहां बैठिए हमारे पास..अभी तो आप जवान हैं..और फिर अपने एक अन्य मित्र से परिचय कराते हुए तारीफ में कसीदे काढ़ दिए..ये वो हैं, ये तो हैं, सम्पादक हैं, लेखक हैं...और भी न जाने क्या..क्या...फिर मुझ से मुखातिब होते हुए पूछा...मैंने ठीक ही कहा न। मैंने कहा...पता नहीं...मैं तो अभी पहले ही वाक्य में अटका हुआ हूं....(पचपन की उमर में सोच रहा हूं दिल बहलाने को ख्याल अच्छा है)।
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मई
में उदयपुर में था। नोटिस किया कि शरीर पर अचानक ही कुछ ददोरे उभर आते थे, कुछ देर बाद अपने आप ही बैठ
जाते थे। पर जितनी देर रहते, उनमें खुजली होती रहती। लगा कि शायद मच्छरों के काटने से हो रहा है। मच्छर भगाने
का इंतजाम किया। पर ददोरे कम नहीं हुए। उदयपुर से भोपाल आया। भोपाल में वही हाल। लगा
कि शायद घर में खटमल हो गए हैं। लकड़ी की जिस चौकी पर बैठता था, उसे बाहर ले जाकर पटका, ठोका, उसकी दरारों को खटकाया। पर खटमल
का ख भी नहीं नजर नहीं आया। भोपाल से इंदौर, सेंधवा और फिर देवास गया। सब जगह यह समस्या ज्यों
की त्यों रही। नीमा ने कहा, यह तो ‘शीत’ लगती है।
भोपाल
से देहरादून जाना था। देहरादून पहुंचा तो वहां भी वही स्थिति। लगा कि एलर्जी होगी, तो मेडीकल स्टोर में एविल खरीदने
गया। एविल का नाम सुनकर दुकानदार ने बुरा सा मुंह बनाया और कहा नहीं है। उसने धीरे
से किसी और गोली का नाम लिया, इतने धीरे से कि मैं सुन भी नहीं सकता था। मैं भी चुपचाप लौट आया। देहरादून आफिस
में बंगलौर के पुराने साथी मासूम हैं। उनके पिताजी डॉक्टर थे और चाचा का मेडीकल स्टोर
है, सो
उन्हें दवाओं की अच्छी खासी जानकारी है। उन्हें समस्या बताई, तो बोले एविल तो अब बैन हो गई
है। उसके बदले में एक दूसरी दवा ली जाती है। उसका नाम एक पर्ची पर लिखकर दिया। ऑफिस
के सामने ही मेडीकल स्टोर है। वहां से दवा खरीदी। पांच गोलियों का दाम दस रूपए। गोलियों
के पत्ते पर दस गोलियों का दाम पैंतीस लिखा था। मैंने सोचा,शायद दुकानदार ने ठीक से नहीं
देखा और कम पैसे लिए हैं। लौटकर मैंने उससे कहा। वह बोला, नहीं यह गोली हमें इतने में
ही पड़ जाती है। इस दवा से फौरी आराम हो गया।
बंगलौर
लौटा तो इसी सिलसिले में एक निजी अस्पताल में दिखाने गया। वहां महिला डाक्टर
थीं। उन्होंने ब्लड प्रेशर देखा, तुरंत किया जाने वाला सुगर टेस्ट किया। सब कुछ सामान्य था। उन्होंने कहा, गुड। दवाइयां लिखते हुए
पूछा,
स्मोकिंग करते हैं, मैंने न में सिर हिलाया। पूछा, रात को ड्रिंक करते हैं। मैंने कहा, दिन में भी नहीं करता। उन्होंने मेरी तरफ देखा और मुस्कराते
हुए कहा,
वेरी गुड।
दोनों
बार उन्होंने कुछ इस अंदाज में गुड कहा, जैसे एक अच्छी टीचर कक्षा में अपने किसी विद्यार्थी को
सवाल सही हल करने पर शाबाशी दे रही हो। सचमुच खुशी हुई। असल में तो स्कूल में कभी
ऐसा मौका ही नहीं आया कि अपन को गुड मिले..और वह भी किसी महिला टीचर से...। अव्वल
तो महिला टीचर ने पढ़ाया ही नहीं।
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देहरादून
ऑफिस में एक और सहकर्मी हैं। जब मौका मिलता, मुझे बुढऊ कहने से नहीं चूकते। मुझे पता है कि वे यह मजाक
में ही कहते हैं। पर एक मैं हूं कि मुझे इस बात का अहसास ही नहीं होता है कि मैं
अब पचासपार हो गया हूं। असल में सिर पर सफेद कालों बालों की खिचड़ी सत्रह की उमर
में ही पक गई थी। इसलिए इस बात का कभी अंदाजा ही नहीं हुआ कि अपना बुढ़ापा कब शुरू
हो रहा है या कि हो गया है। कभी-कभी सोचता हूं सहकर्मी सचमुच मजाक कर रहे होते हैं या इस
बात से कहीं अंदर ही अंदर जल रहे होते हैं कि ये जनाब तो अभी भी कई बातों में
जवानों को मात करते हैं।
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तीन
बरस पहले का एक और वाकया है। विप्रो कैंटीन में मैं अपने एक युवा सहकर्मी के साथ
खाने के लिए जाता था। वहां एक समय पर एक साथ पांच-छह सौ लोग भोजन कर रहे होते हैं।
जाहिर है कि उनमें सभी उम्र के महिला-पुरुष होते हैं। अब अपन....मैं हर हंसी चीज
का तलबगार हूं... वाली नजर रखते हैं....सो किसी का चेहरा, किसी की चाल, किसी ढाल और किसी की पोशाक, किसी की सादगी, किसी की संवाद अदायगी, किसी की मुस्कान और किसी
के नैनों के बाण अपना ध्यान खींच ही लेते थे। यह बात हमारे युवा साथी को कुछ
नागवार गुजरती थी। एक दिन उसने कहा,'उत्साही जी,
अब आपकी उमर इधर-उधर नहीं, भगवान में ध्यान लगाने की है।' मैंने कहा, वही
तो कर रहा हूं। उसने पूछा, 'कैसे।' मैंने 'रब ने बना दी जोड़ी' में जयदीप साहनी का लिखा उसका प्रिय गाना उसे सुना दिया, 'तुझमें रब दिखता है।'
0 राजेश उत्साही