याद आता है..मैं
भोपाल में रोज की दिनचर्या से उकता कर कहता था... मन करता है...सब कुछ छोड़कर कहीं अज्ञातवास में चले जाना चाहिए।
नीमा कहती थीं कि तो किसने रोका है चले जाओ।
और देखिए सचमुच ऐसा
समय भी आ गया..जब एक तरह का निर्वासित जीवन बिताने के लिए बंगलौर की यह खुली जेल
आवंटित हुई। इस खुली जेल में परिवार को छोड़कर बाकी सब कुछ उपलब्ध है।
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लालबाग में मासूम (और उत्सव) के साथ *फोटो :उत्सव | | |
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मोबाइल है जिस पर आप जब
चाहें परिवार से बात कर सकते हैं। पर मुश्किल यह है कि परिवार वाले भी आपसे कितनी बात
करें। चौदह सौ किलोमीटर दूर उन्हें अपनी समस्याओं से खुद ही निपटना होता है । अधिक
से अधिक आप कॉलसेंटर में बैठे किसी सलाहकार की तरह अपने उपदेश ही उन्हें दे सकते हैं। क्या खाया, क्या पिया, क्या फाड़ा और क्या
सिया के अलावा बहुत कुछ कहने सुनने को होता नहीं है। सो रात को सोने से पहले एक निश्चित
समय पर इस सूचना का आदान-प्रदान भर होता है।
अब ये शनिवार..इतवार
का अवकाश काटने को दौड़ता है। जब तक भोपाल में था..तो ये नसीब नहीं
होता था..घर के ही तमाम काम होते थे...उन्हें निपटाते निपटाते ही अपन निपट
अ-अवकाशित रह जाते थे...और सोमवार से फिर वही मारा..मारी..। अब यहां बंगलौर में हूं
तो यह अवकाश काटे नहीं कटता। घर के सारे काम सफाई से लेकर कपड़े धोने, प्रेस करने का काम बचपन से करने की आदत रही है, सो वे यहां
भी करता ही हूं।
पर न तो यहां आटा
पिसाने जाना होता है, न बाथरूम या वेसिन के टपक रहे नल को ठीक करना होता है, न गैस के धीमे जल रहे बर्नर की बीमारी का पता लगाना होता
है, न मिक्सी ठीक करनी होती है, न खराब
हो गए स्विच बदलने होते हैं और न हर हफ्ते वाशिंग मशीन के पास आसन लगाकर बैठना
होता है। न स्कूटर की सर्विसिंग का झंझट, न नीमा को हर शनिवार
सब्जी हाट ले जाने की किलकिल, न आते-जाते शक्कर,दाल,चावल खरीदने का टंटा। कुछ भी
तो नहीं। हां, रसोई में पीने का पानी भरने में मदद करने और कभी कभार
बरतन साफ करने तक अपना नाता था। खाना बनाना सीखने का कभी अवसर ही नहीं आया और न करने दिया गया। जब भी कभी कोशिश करता तो नीमा एक कहावत से उसका स्वागत करतीं,'रहने दो, जिस दिन तुम खाना बनाने लगोगे, उस दिन कुतियाएं सलवार-कमीज पहनकर घूमने लगेंगी।' पता नहीं कहावत बनाने वाले को किस से चिढ़ थी, कुतियाओं से या सलवार-कमीज से? पर इतना तो तय है कि नीमा को कम से कम सलवार-कमीज से कोर्इ चिढ़ नहीं थी,क्योंकि वे खुद भी वही पहनती हैं। बहरहाल
इन चार सालों में मैंने खाना बनाना सीख लिया है, पर अब तक मुझे मुहावरा चरितार्थ होते नहीं दिखा है।
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आंचलिक विज्ञान केन्द्र,बंगलौर में *फोटो : मासूम |
शुरू-शुरू में तो इन
दिनों में शहर में घूमने निकल जाया करता था। तब इस आवारागर्दी में सैयद मुनव्वर
अली मासूम का साथ होता था। कुछ ऐसी आवारागर्दियों में यशवेन्द्र सिंह रावत भी साथ
होते थे। अब दोनों ही उत्तराखण्ड की तरफ निकल गए हैं। लालबाग, बनरगट्टा, साइंस म्यूजियम, कब्बन पार्क, विधानसभा, वसवनगुड़ी, इस्कान, एमटीआर, मैजिस्टिक,केआर मार्केट, बंगलौर सेन्ट्रल
मॉल, फोरम, एमजी रोड और तो और सरजापुर
गांव तक घूमने निकल जाते थे। अब कोई इन जगहों को भी कितनी बार देखे।
शहर की चकाचौंध बार-बार
अपनी ओर खींचती है। अपन को सिवाय मोहब्बत के कोई और नशे की लत नहीं। खाने-पीने
का शौक नहीं। फिर भी एक बार जब शहर को अपनी ऊंगली थमाओ तो वह कोंचा पकड़कर जेब से
कम से कम पांच सौ रुपए तो निकाल ही लेता है। और अगर पैर किसी मॉल में मुड़ गए तो
कोई न कोई सामान आपके कंधे पर लटककर साथ चला ही आएगा। खासकर कपड़े। कभी अपने
पास केवल चार जोड़ी कपड़े होते थे..अब कुछ नहीं तो कम से कम दस जोड़ी कपड़े हैं।
कभी-कभी इतने कपड़े देखकर ग्लानि होने लगती
है।
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केआर मार्केट में अप्सरा सिनेमा |
फिल्में देखने का
शौक रहा है। जब सिनेमाघरों में साठ पैसे टिकट होती थी, तब से अपन सिल्वर स्क्रीन के दीवाने रहे हैं। कभी-कभी एक
दिन में दो अलग-अलग सिनेमाघरों में दो फिल्में भी देखी हैं। हालांकि शादी के बाद
यह लगभग छूट ही गया था। साल भर में दो-चार फिल्में वह भी परिवार के साथ देख लेता
था। पर यहां बंगलौर आकर एक बार फिर से वह शौक जिंदा हुआ। पर ज्यादा दिन नहीं चला।
शहर में अब सिंगल स्क्रीन सिनेमाघर गिने-चुने हैं। जो हैं उनमें से भी एकाध में
हिन्दी फिल्म लगती है। मल्टीप्लैक्स में टिकट 200 से शुरू होती है। यहां टीवी
को घर में नहीं घुसने दिया। पर बिल्डिंग में साथ रहने वाले साथियों के पास टीवी
है तो कभी-कभार उसके चैनल बुला ही लेते हैं।
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कर्नाटक विधानसभा, यश के साथ *फोटो : मासूम |
यहां बंगलौर में
यह लैपटॉप कि नैकटॉप बन गया है। अब यह तो... वह क्या कहते हैं प्रोफेशनल
हैजार्ड है। इस नौकरी में तो सब काम इसी पर होते हैं। तो इससे कैसे बचे रह सकते
हैं। लिखने का हर काम इसी पर। जेब में पेन रहता जरूर है, पर उसकी एक रिफिल अब छह-छह महीने चलती है। जहां एकलव्य
में हर दिन कुछ नहीं तो सौ-पचास हस्ताक्षर करने होते थे, अब यहां सौ-पचास दिन में एकाध हस्ताक्षर करने का मौका आता
है। अब इसी नैकटॉप में से कभी कभी फिल्म भी चली आती है।
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खुली जेल की चाय : दूसरा गिलास मासूम का है |
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कुछ शुभचिंतक कहते हैं कि
यह समय पढ़ने-लिखने में लगाओ। मुश्किल यह है कि बाकी पांच दिन भी इसी काम में जाते
हैं। सो इन दिनों में बैठकर फिर से वही करना ऐसा लगता है जैसे किसी बच्चे से कहो
कि रोज नियम से स्कूल जाओ और फिर छुट्टी के दिन भी पढ़ाई करने बैठ जाओ। फिर भी इन
चार सालों में तीन ब्लागों के माध्यम से कुछ कुछ लिख डाला है। उसमें कितना काम
का है यह तो मुझे भी नहीं मालूम। हां, ब्लाग के माध्यम
से ही पहला कविता संग्रह ‘वह जो शेष है’ सामने आया है। इसी माध्यम से बहुत सारे ऐसे दोस्त बने हैं, जिनमें कुछ से तो मुलाकात भी हुई है और कुछ ऐसे हैं जिनसे
शायद मुलाकात की उम्मीद है।
तो मैं कह रहा था कि अब
ये शनिवार...इतवार का अवकाश काटने को दौड़ता है। नहीं.. इसे इस तरह पढ़ें कि ...अब बंगलौर
में शनिवार...इतवार का अवकाश काटने को दौड़ता है।
0 राजेश उत्साही