1972 में ग्वालियर में दौलतगंज के एक स्टूडियो में ली गई तस्वीर बाएं से दाएं : राजेश, गीता, रीता,बाबू जी, सुनील, अम्मां, बबीता, दादी और अनिल ( रीता,सुनील,बबीता और दादी भी अब इस दुनिया में नहीं हैं) |
स्कूल सर्टीफिकेट के
हिसाब से एक अप्रैल को पिता जी का जन्मदिन है। वरना दादी का कहना था कि वे दिवाली
की दोज को पैदा हुए थे। और इसीलिए उनका नाम दुर्जन पड़ गया था, जिससे वे लम्बे समय तक खासे परेशान भी रहे। असल नाम उनका
प्यारेलाल था।
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प्यारेलाल के
माता-पिता बुंदेलखंड के छतरपुर जिले की हरपालपुर तहसील के बिजावर रियासत के बारबई
कस्बे से काम की तलाश में कभी इटारसी आ गए थे। प्यारेलाल का जन्म बरबई में ही हुआ
था। इटारसी की आठवीं गरीबी लाइन में उनका बचपन बीता। उनके पिता रेल्वे में खलासी
थे। वे अक्सर ट्रेन में दौरे पर जाया करते थे। प्यारेलाल जब तेरह चौदह साल के
रहे होंगे तो एक ट्रेन एक्सीटेंड में उनके पिता की मृत्यु हो गई। प्यारेलाल से
बड़ी एक बहन थी, और एक छोटी। प्यारेलाल की मां पर उनके लालन-पालन की सारी
जिम्मेदारी आ गई। प्यारेलाल शायद उन दिनों पढ़ रहे थे। उनकी मां ने हत्था बाजार
यानी अनाज मण्डी में नौकरी कर ली। जहां अनाज को छानना-बीनना,बटोरना जैसे आदि काम होते थे। जिस मैदान में अनाज की ढेरियां
लगाई जाती थीं, उसे गोबर से लीपना होता था। मण्डी में आए लोगों को पानी पिलाना
होता था। उनकी मां सोलह गज की साड़ी पहनती थीं। जिसे टांगों के बीच से निकालकर कछोटे
की तरह बांधा जाता है। इस तरह से साड़ी पहनना संभवत: उन्हें ज्यादा सहज और काम करने
के लिए आरामदायक लगता होगा। जाहिर है उन्हें हाड़तोड मेहनत करनी पड़ती थी।
ऐसे में आसपड़ोस और
जानने वालों का सुझाव होता था कि प्यारेलाल की पढ़ाई छ़ुड़वाकर उन्हें काम पर
लगाया जाए, ताकि वे घर की जिम्मेदारियां उठा सकें। पर प्यारेलाल की
मां यानी जानकीबाई चाहती थीं कि वे अपनी पढ़ाई पूरी करें। वे खुद तो पढ़ नहीं सकीं
थीं। स्कूल वे गईं थीं, पर किसी बात पर मास्टर ने उनकी
हथेली पर छड़ी से मारा। उनकी एक उंगली में इतनी चोट लगी कि उनसे बरदाशत नहीं हुई। उसके
बाद स्कूल उन्होंने स्कूल का कभी मुंह नहीं देखा। प्यारेलाल ने अपनी मां का
कहना माना। पढ़ाई पूरी की यानी दसवीं की परीक्षा पास कर ली। 1950 में दसवीं की
परीक्षा पास करने के बाद प्यारेलाल ने मूंगफली बेची। सब्जी मण्डी में आढ़तिए का
काम किया। इटारसी की भारत टॉकीज में टिकट काटी।
उन दिनों रेल्वे की
कुछ नौकरियों के लिए दसवीं पास होना ही पर्याप्त होता था। स्टेशन मास्टर, तारबाबू और टिकट कलेक्टर की नौकरी के लिए एक संयुक्त
परीक्षा होती थी। प्यारेलाल ने यह परीक्षा दी और वे चयनित हो गए। बहुत सोचने के
बाद उन्होंने तारबाबू बनना स्वीकार किया। 1952 में तारबाबू के रूप में उनकी पहली
पोस्टिंग नागपुर में हुई। इसी बरस उनकी शादी नागपुर में ही गणेशी बाई से हुई। गणेशी
बाई के माता-पिता भी बुंदेलखंड से नागपुर जाकर बस गए थे। गणेशीबाई के पिता नागपुर की
कपड़ा मिल में काम करते थे। प्यारेलाल को यह नाम कुछ जमा नहीं, सो उन्होंने उसे बदलकर प्रेमलता कर दिया। प्यारेलाल की
मां तथा बहनें इटारसी में थीं। इसलिए कुछ दिनों के बाद उन्होंने नागपुर डिवीजन से
अपना तबादला झांसी डिवीजन में करवा लिया।
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यह सारी कहानी और
बातें उनकी मां यानी दादी ही हमें बताया करतीं थीं।
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प्यारेलाल रेल्वे में
आने के बाद पीएल पटेल हो गए। पीएल पटेल से भी पटेल साहब या पटेलबाबू। फिर यहीं से
धीरे धीरे वे बाबू जी में तब्दील हो गए। उनका अंग्रेजी और हिन्दी दोनों भाषाओं पर
अच्छा नियंत्रण था।
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तो पीएलपटेल और
प्रेमलता पटेल की मैं कुल मिलाकर तीसरी और जीवित रूप में पहली संतान था। पिता यानी
बाबू जी की पहली याद मुझे अपनी पांच साल की उमर की है। उन दिनों हम बीना में थे। तीन
घटनाएं मुझे याद आती हैं।
हम रेल्वे क्वार्टर
में रहते थे। गुब्बारे,फिरकनी, पुंगी बेचने वाले फेरीवाले अक्सर रेल्वे कालोनी में चक्कर
लगाया करते थे। ऐसे ही एक दिन फेरीवाले को देखकर मैंने उससे पुंगी मांग ली। फेरीवाले
ने कहा बेटा, पुंगी तो पैसे से आती है। पैसे ले आओ। मैं भागकर गया। घर
में पावडर के खाली डिब्बे में पैसे रखे होते थे। उसमें पांच का नोट था। मैं वही
लेकर चला गया। पुंगी ली और बाकी पैसे लाकर उसी डिब्बे में रख दिए। अम्मां (मां को
हम अम्मां कहते हैं, आज भी) कहीं पड़ोस में गईं थीं। बाबूजी डयूटी पर। दोनों एक
साथ लौटे और मेरा सामना दोनों से एक साथ हुआ। मेरे हाथ में पुंगी देखकर, उनका सवाल हुआ कि पुंगी कहां से आई। मैंने उन्हें सच सच बता
दिया।
उन्होंने तब बस शायद
इतना कहा था, ऐसे चुपचाप पैसे नहीं लेते हैं, पूछ कर लेते हैं। अच्छे बच्चों की तरह हमने भी सिर हिला दिया
था। यह मेरे लिए उनका पहला सबक था।
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सबक भी ऐसा था कि बाद
में मैंने उन्हें इस बारे में कभी शिकायत का मौका नहीं दिया। हम कुल सात भाई-बहिन
हुए, जिनमें से आज चार जीवित हैं, दो भाई और
दो बहनें। तो मैंने ही नहीं इस मामले में हम सबने यही सीखा कि जब भी जरूरत हो, बताओ, पैसे मिल जाएंगे। बाद में अम्मां-बाबू जी
ने यह प्रयोग किया था कि जब बाबू जी वेतन लेकर आते और अम्मां को देते। अम्मां उसे
एक बक्से में रखतीं। हम सबको बताया जाता कि कितना वेतन आया है। उस वेतन से महीने भर
क्या-क्या खर्च होना है। अब हमारी जरूरतें कितनी महत्वपूर्ण हैं हम तय करें, और आवश्यकता अनुसार पैसे लें लें। यह प्रयोग खासा सफल रहा।
हम सब भाई-बहनों में पैसों को लेकर एक तरह के आत्मअनुशासन की नींव पड़ी। मैंने अपने
बेटों के साथ इस प्रयोग को दोहराया और मैं भी सफल रहा।
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वहीं एक शाम घर के आगे
वे मेरे साथ गिल्ली-डंडा खेल रहे थे। उन्होंने गिल्ली को उछालकर उस पर शाट मारा।
गिल्ली सामने मैदान में जाकर गिरी। वहां बरसात का पानी जमा था। मैं दौड़कर गया। पानी
में कहीं किसी टूटी बोतल का कांच पड़ा हुआ था, वह मेरे दाएं तलुए में
गड़ गया। मैं गिर पड़ा और रोने लगा। वे दौड़कर आए, गोद में उठाया
और पास की रेल्वे डिस्पेंसरी ले गए। कई दिनों तक पैर में पट्टी बंधी रही। उस चोट
का निशान अब तक है।
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वे गिल्ली-डंडा ही नहीं, वॉलीबाल और हॉकी के बहुत अच्छे खिलाड़ी थे। कुश्ती लड़ते
थे। खिलाड़ी तो वे ताश के भी थे। बीना के रेल्वे
इंस्टीटयूट में दिवाली पर जुआ होता था। वे उसमें शामिल होते थे। ताश खेलने की उनकी
यह आदत वर्षों तक रही। मजेदार बात यह भी है कि ताश खेलने को बुरा माना जाता था और इस वजह से हमारे घर में कभी ताश नहीं खेला गया। बीच में एक समय ऐसा भी आया जब वे खाली समय में सट्टे का नम्बर
खोजने के लिए तरह-तरह के गुणा-भाग करते रहते थे। पता नहीं कभी कोई नम्बर लगा कि नहीं।
लॉटरी के टिकट खरीदने का शौक भी उन्हें था। पर कभी कोई लॉटरी नहीं लगी। हां, इन सबके बीच यह जरूर अच्छी बात रही कि घर की जरूरतों के लिए
पैसों की कमी उन्होंने कभी नहीं होने दी।
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बीना के रेल्वे इंस्टीटयूट
में एक नर्सरी स्कूल चलता था। मुझे भी उसमें भरती करवाया गया। शायद पहले या दूसरे
दिन ही वहां से किसी समारोह के लिए चंदे की मांग आ गई। यह मांग बाबूजी को नहीं भाई।
नतीजा यह कि हम स्कूल से बाहर।
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बाबूजी अब नहीं हैं। वे
आज होते तो उनकी आयु उन्यासी साल की होती। उनके व्यक्तित्व के कई श्वेत-श्याम
पक्ष हैं। फिलहाल इतना ही। अगली किसी पोस्ट में कुछ और बातों पर चर्चा करूंगा।
0 राजेश उत्साही