Saturday, May 12, 2012

एक कार्टून कितना कुछ कहता है..


                                                         कार्टूनिस्‍ट : शंकर। चिल्‍ड्रन बुक ट्रस्‍ट के सौजन्‍य से
एनसीईआरटी द्वारा प्रकाशित कक्षा 11 वीं की ‘ भारत का संविधान- सिद्धांत और व्‍यवहार’ के पहले अध्‍याय-संविधान:क्‍यों और कैसे?- में यह कार्टून प्रकाशित किया गया है। कार्टून के नीचे लिखा है- संविधान बनाने की रफ्तार को घोंघे की रफ्तार बताने वाला कार्टून। संविधान के निमार्ण में तीन वर्ष लगे। क्‍या कार्टूनिस्‍ट इसी बात पर टिप्‍पणी कर रहा है? संविधान सभा को अपना कार्य करने में इतना समय क्‍यों लगा?


पता नहीं अब तक विद्यार्थी इसकी व्‍याख्‍या किस तरह करते रहे होंगे, पर पक्‍के तौर पर वे यह व्‍याख्‍या तो नहीं करते होंगे कि, ‘नेहरू भी ब्राह्मण थे और कार्टूनिस्‍ट शंकर भी। दो ब्राह्मण मिलकर एक दलित यानी अंबेडकर को प्रताडि़त कर रहे हैं।’ पर अब अगर यह कार्टून विद्यार्थियों को दिखाया जाएगा तो उसमें से कुछ जरूर ही इस तरह की व्‍याख्‍या करेंगे। क्‍योंकि हमारे देश के तथाकथित नेता और प्रगतिशील दलित लेखक संसद और संचार माध्‍यमों में यही व्‍याख्या कर रहे हैं।

अध्‍याय में चार और कार्टून हैं जिनमें से दो इराक और एक यूरोप के संविधान बनाने की प्रक्रिया पर टिप्‍पणी करते हैं। मजेदार बात यह है कि कार्टून के बगल में ही जो टेक्‍सट दिया गया है उसमें इस बात को स्‍पष्‍ट किया गया है कि वास्‍तव में संविधान सभा को संविधान बनाने में इतना समय क्‍यों लगा।

वहां लिखा है, ‘संविधान सभा की सामान्‍य कार्यविधि में भी सार्वजनिक विवेक का महत्‍व स्‍पष्‍ट दिखाई देता था। विभिन्‍न मुद्दों के लिए संविधान सभा की आठ मुख्‍य कमेटियां थीं। आमतौर पर जवाहरलाल नेहरू, राजेन्‍द्र प्रसाद, सरदार पटेल, मौलाना आजाद या अंबेडकर इन कमेटियों की अध्‍यक्षता करते थे। ये ऐसे लोग थे जिनके विचार हर बात पर एक-दूसरे के समान नहीं थे। अंबेडकर तो कांग्रेस और गांधी के कड़े आलोचक थे और उन पर अनुसूचित जातियों के उत्‍थान के लिए पर्याप्‍त काम न करने का आरोप लगाते थे। पटेल और नेहरू बहुत-से मुद्दों पर एक-दूसरे से असहमत थे। फिर भी सबने एक साथ मिलकर काम किया। प्रत्‍येक कमेटी ने आमतौर पर संविधान के मुख्‍य-मुख्‍य प्रावधानों का प्रारूप तैयार किया जिन पर बाद में पूरी संविधान सभा में चर्चा की गई। आमतौर पर यह प्रयास किया गया कि फैसले आम राय से हों और कोई भी प्रावधान किसी खास हित समूह के पक्ष में न हो। कई प्रावधनों पर निर्णय मत विभाजन करके भी लिए गए। ऐसे अवसरों पर हर सरोकार का ध्‍यान रखा गया और हर तर्क और शंका का समाधान बहुत ही सावधानी से किया गया। लिखित रूप में उनका जवाब दिया गया। दो वर्ष और ग्‍यारह महीने की अवधि में संविधान सभा की बैठकें 166 दिनों तक चलीं। इसके सत्र अखबारों और आम लोगों के लिए खुले हुए थे।’ 

स्‍पष्‍ट है कि लेखकों की मंशा विद्यार्थियों के सामने दोनों पक्ष रखने की रही है। इसलिए वे समकालीन समाज में हो रही प्रतिक्रिया को भी सामने रख रहे हैं। और प्रतिक्रिया रखने का एक तरीका कार्टून हो ही सकता है। और इसमें तो कुछ भी गलत नहीं है। वास्‍तव में यह इतिहास का हिस्‍सा है।
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अध्‍याय के अंत में निष्‍कर्ष के रूप में यह टिप्‍पणी है-
‘यह संविधान निर्माताओं की बुद्धिमता और दूरदृष्टि का प्रमाण है कि वे देश को ऐसा संविधान दे सके जिसमें जनता द्वारा मान्‍य आधारभूत मूल्‍यों और सर्वोच्‍च आकांक्षाओं को स्‍थान दिया गया था। यही कारण है जिसकी वजह से इतनी जटिलता से बनाया गया संविधान न केवल अस्तित्‍व में है, बल्कि एक जीवंत सच्‍चाई भी है जबकि दुनिया के अन्‍य अनेक संविधान कागजी पोथों में ही दबकर रह गए। भारत का संविधान एक विलक्षण दस्‍तावेज है जो अन्‍य अनेक देशों,खासतौर से दक्षिण अफ्रीका के लिए एक प्रतिमान हो गया। तीन वर्ष तक संविधान बनाने की प्रक्रिया का मुख्‍य उद्देश्‍य यह रहा कि एक ऐसा संतुलित संविधान बनाया जाए जिसमें संविधान द्वारा निर्मित संस्‍थाएं अस्‍त-व्‍यस्‍त या कामचलाऊ व्‍यवस्‍थाएं मात्र न हों बल्कि लोगों की आकांक्षाओं को एक लंबे समय तक संजोये रख सकें।’

लेकिन इसी संविधान की व्‍यवस्‍थाओं की पिछले साठ से दुहाई देकर राजनीति करने वाले नेताओं की अक्‍ल पर अब तो रोना ही आता है। वे वास्‍तव में संविधान द्वारा निर्मित संस्‍थाओं को अस्‍त-व्‍यस्‍त या कामचलाऊ व्‍यवस्‍था ही बनाकर छोड़ देना चाहते हैं। ये व्‍यवस्‍थाएं वास्‍तव में लोगों की आकांक्षाओं को लंबे समय तक संजोये रखने लायक ही रह गईं लगती हैं।

एनसीईआरटी भी इन्‍हीं व्‍यवस्‍थाओं में से एक है। पिछले तीस वर्षों में शिक्षा के क्षेत्र में गैरसरकारी संगठनों ने एनसीईआरटी के समांतर जो वैकल्पिक काम किया है, एनसीईआरटी द्वारा जारी 'राष्‍ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2005' उसी का नतीजा है। चर्चित पुस्‍तक इसी के तहत विकसित की गई है। उद्देश्‍य है कि स्‍कूली शिक्षा पूरी करके निकल रहे किशोरवर्ग को ठोस राजनीतिक,सामाजिक और आर्थिक समझ दी जा सके। लेकिन यही तो हमारी राजनीति शायद नहीं चाहती। वह चाहती है कि एनसीईआरटी उसी पुराने ढर्रे पर काम करे,‍ जिस पर करती रही है। इसीलिए शिक्षामंत्री ने आनन फानन में किताब से कार्टून को हटा लेने की घोषणा कर दी है। आखिर उन्‍हें भी वोट चाहिए।
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एनसीईआरटी पाठ्यपुस्‍तक निमार्ण समिति के दो सलाहकारों ने अपने पद से इस्‍तीफा दे दिया है। हालांकि अब तक उनकी तरफ से कोई बयान नहीं आया है। पर प्रचारित किया जा रहा है कि जैसे उन्‍होंने अपनी गलती स्‍वीकार करते हुए इस्‍तीफा दिया है। जहां तक मैं समझता हूं उन्‍होंने कार्टून को हटाए जाने के विरोध में इस्‍तीफा दिया होगा।
यह भी उल्‍लेखनीय है कि ये किताबें जब तैयार की गईं थीं, तब जाने माने लेखक और शिक्षाविद् कृष्‍णकुमार एनसीईआरटी के निदेशक थे।
अब देखना यह है कि तथाकथित ‘दोषियों’ को क्‍या सजा दी जाती है।
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सच तो यह है कि 63 साल पहले शंकर द्वारा बनाए इस कार्टून ने अचानक ही विमर्श के कितने नए आयाम खोल दिए हैं। इससे अधिक इस कार्टून की उपलब्धि क्‍या होगी। इसके लिए तो हमें इन राजनेताओं का शुक्रगुजार होना ही चाहिए। 
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शंकर द्वारा स्‍थापित चिल्‍ड्रन बुक ट्रस्‍ट बच्‍चों के लिए कम दाम में अच्‍छे साहित्‍य के निमार्ण के लिए सालों से अपनी पहचान बनाए हुए है। इस कार्टून का कॉपीराइट इसी ट्रस्‍ट के पास है। हो सकता है संसद जल्‍द ही इस मुद्दे पर स्‍थगित होती नजर आए कि चिल्‍ड्रन बुक ट्रस्‍ट को तत्‍काल प्रभाव से प्रतिबंधित कर दिया जाए,क्‍योंकि वह बच्‍चों को भरमाने वाला साहित्‍य प्रकाशित करती है। 
                                       0 राजेश उत्‍साही 

10 comments:

  1. जहाँ तक समझ आ रहा है , नेहरु जी चाबुक स्नेल को मार रहे हैं , न कि आंबेडकर जी को । स्वयं आंबेडकर जी ने भी हाथ में चाबुक पकड़ा हुआ है और स्नेल को चलाने की कोशिश कर रहे हैं ।
    प्रधान मंत्री होने के नाते नेहरु जी की भी जिम्मेदारी थी कि संविधान जल्दी बने ताकि देश में स्वराज से उन्नति के रास्ते खुलें ।
    ६० साल बाद इस कार्टून को अलग नज़र से देखना कहीं न कहीं राजनीति से प्रेरित लगता है । राजीनीति में कब क्या हो जाए , कोई नहीं जानता ।
    आपने अच्छी जानकारी जुटाई है ।

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  2. लड़ने वालों को,लड़ने का बहाना चाहिए.........
    कोई ना कोई मुद्दा खोज ही लेते हैं.
    सादर.

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  3. हमारी संसद सठिया गई है। सांसदों ने जिस तरह इस मुद्दे को राजनीतिक रंग दिया वह शर्मनाक है। इससे साफ है कि संसद में ऐसे कूपमंडूप बैठे हैं जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगाम कसना चाहते हैं। सुहास पलसीकर के आफिस पर हमला इसी अभियान की अगली कड़ी है। उस कार्टून में ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे किसी का अपमान हो। अंबेडकर के ये कथित चेले असल में उनके विचारों को समझना नहंी चाहते बस उनकी छवि से राजनीतिक मुनाफा कमाना चाहते हैं। अरविंद केजरीवाल गलत नहंी कहता, ऐसे सांसदों का कौन समझदार आदमी सम्मान करेगा? इस मूखर्तापूर्ण विरोध की जितनी भत्र्सना की जाए, कम है।

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  4. देश का पहला पल लिखने में वक्त तो लगता है....

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  5. राजेश जी, यह सारा हंगामा प्रायोजित था, ताकि कई महत्वपूर्ण बहसों को टाला जा सके!!अब अधिक कहना यहाँ पर संभव न हो पायेगा!

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    1. सलिल भाई, आपका कहना सही प्रतीत होता है। कुछ दिनों बाद शायद हमें किसी भी हंगामे के बाद यह सुनने को मिले इस हंगामे के प्रायोजक थे ....या यह हंगामा प्रस्‍तुत है फलां के सौजन्‍य से।

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  6. राजेश जी बहुत धन्यवाद इतना बढिया लेख प्रस्तुत करने के लिए।

    इस कार्टून के विवाद का नाटक और उस पर होती बहस तो रोज़ ही इलेक्ट्रोनिक मीडिया के माध्यम से देख रहा था। आज आपके सौजन्य से कार्टून भी देख लिया। बहुत ही निष्पक्ष राय दी है आपने।

    वोट की राजनीति जो न कराए। एक महान चित्रकार ने एक हिन्दू देवता की नंगी तस्वीरें बना दी। उस दिन संसद शायद सोया था। एक प्रचलित साहित्यिक पत्रिका ने अपनी कथा के द्वारा एक देवता की तस्वीर पर बच्चे से पैखाना करवा दिया। संसद को पता भी न चला। शायद वहां का वोट बैंक कोई मायने नहीं रखता या वह अभिव्यक्ति की आज़ादी की श्रीणी में आता रहा होगा।

    यह विवाद तो क‍इयों की बलि चढ़ायेगा।

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  7. हमारे प्रजातंत्र में अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता एकदम अनिश्चित जान पड़ती है कई मौकों पर.

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  8. विद्याथियों को समझने की कहाँ फुर्सत ..नंबर अच्छे मिल जाए ...जितना अध्यापक बता देगा ..वही सही है ..जो बताया लिख दिया ..बस हो गयी छुट्टी ..
    यह कार्टून जाने कब से धुप अँधेरे से निकलकर बाहर की दुनिया देखने को तरस गया होगा.. समय समय की बात है...एक वह समय एक अब का समय...
    बुत बढ़िया समसामयिक प्रस्तुति ..धन्यवाद

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जनाब गुल्‍लक में कुछ शब्‍द डालते जाइए.. आपको और मिलेंगे...