Sunday, November 8, 2009

अलविदा बिस्‍वास साहब !

हिमांशु बिस्‍वास यानी एचके बिस्‍वास यानी बिस्‍वास साहब यानी बाबा नहीं रहे। 7 नवम्‍बर की सुबह भोपाल से कार्तिक ने मोबाइल पर यह सूचना दी। 6 नवम्‍बर की रात लगभग दस बजे से साढ़े दस बजे के बीच उन्‍होंने आखिरी सांस ली। पिछले कुछ समय से वे बीमार चल रहे थे। इस 20 नवम्‍बर को वे 86 साल पूरे करके 87 वें वर्ष में प्रवेश करते।

1980 के आसपास वे भोपाल के भारत हैवी इलेक्ट्रिकल लिमिटेड से वे प्रिटिंग मैनेजर के पद से सेवानिवृत हुए थे। स्‍क्रीन प्रिटिंग उनका शौक भी था और आय का साधन भी। वे घर में ही विजिटिंग कार्ड बनाया करते थे। बस उसी सिलसिले में एक दिन घूमते हुए एकलव्‍य, भोपाल के कार्यालय जा पहुंचे। तब एकलव्‍य अरेरा कालोनी के ई-1 में अर्जुन तरण पुष्‍कर के सामने 208 में होता था। एकलव्‍य में किसी ने विजिटिंग कार्ड  बनवाने में रूचि नहीं दिखाई। पर हां, बिस्‍वास साहब में जरूर दिखाई। उन दिनों यानी 1985 में चकमक पत्रिका निकालने की तैयारी चल रही थी। चकमक के प्रशासनिक कामों खासकर वितरण और मार्केटिंग के  लिए एक अनुभवी व्‍यक्ति की जरूरत थी। बस वे भी चकमक का हिस्‍सा हो गए। 

ऊंचे पूरे बंगाली बाबू अपनी लाल रंग की मैजेस्टिक लूना पर बैठकर एकलव्‍य आया करते थे। लंबे होने के कारण चलते वक्‍त उनकी कमर पर हल्‍का सा झुकाव आता था। उनके मुंह से बंगाली अंदाज में हिन्‍दी सुनना बहुत अच्‍छा लगता था। वे हंसते तो उनकी हंसी देर तक गूंजती रहती। एक कान से उन्‍हें थोड़ा कम सुनाई देता था,सो वे कान में मशीन लगाते थे। इसलिए कभी किसी वाक्‍य या शब्‍द को सुनने के लिए वे अपनी गरदन थोड़ी तिरछी करके अपनी आंखें फैला देते। चश्‍मे से झांकती उनकी बड़ी-बड़ी आंखें और बड़ी लगने लगतीं। जहां तक मुझे याद पड़ता है वे मैं शब्‍द का उपयोग बहुत कम करते थे। उनके मुंह से हम ही ज्‍यादा निकलता था।  

चकमक को रेल्‍वे स्‍टेशन पर व्‍हीलर बुक स्‍टाल पर रखने की बात चली तो मैं और बिस्‍वास साहब व्‍हीलर के मालिकों से मिलने इलाहाबाद गए थे। और फिर कुछ पुरानी किताबें खरीदने इंडियन प्रेस भी।

नब्‍बे–इक्‍यानवें के आसपास उन्‍होंने चकमक छोड़ दी थी। उनका स्‍वास्‍थ्‍य ठीक नहीं रहने लगा था। पर बिस्‍वास साहब की छोटी बिटिया टुलु यानी टुलटुल उनके साथ कभी-कभी एकलव्‍य आया करती थी। चकमक के पहले अंक का जब लोकापर्ण हुआ तो टुलटुल दसवीं में पढ़ती थी। लोकापर्ण समारोह में चकमक की प्रतियां टुलटुल ने ही मुख्‍य अतिथि के सामने प्रस्‍तुत की थी़। बिस्‍वास साहब ने एकलव्‍य आना छोड़ दिया, लेकिन टुलटुल ने जारी रखा। नतीजा यह कि टुलटुल बाद में चकमक की संपादकीय टीम की सदस्‍य बनी।

बिस्‍वास साहब चलती-फिरती वर्कशाप थे। कागज से,मिटटी से,कबाड़ी चीजों से वे तरह-तरह के खिलौने और  माडल बनाते थे। वे किताबों में नए-नए खिलौने ढूंढते रहते और जब कोई खिलौना पसंद आ जाता तो उसे बनाकर ही दम लेते। उनके बनाए खिलौनों में से कुछ हमने चकमक में भी छापे थे। स्‍क्रीन प्रिटिंग तो वे जानते ही थे। फोटोग्राफी का भी उन्‍हें शौ‍क था। उनके खींचे कुछ फोटो भी चकमक में प्रकाशित किए थे।  एकलव्‍य में उन्‍होंने स्‍क्रीन प्रिटिंग का पूरा सामान जुटाया था और कुछ लोगों को सिखाया भी था। फोटो डेवलप करने के लिए ऑफिस के एक बाथरूम को उन्‍होंने डार्करूम में बदल डाला था।  

बिस्‍वास साहब की न जाने कितनी बातें हैं जो याद आ रही हैं। पर एक घटना मुझे अक्‍सर याद आती है। चकमक में गांव के किसी बच्‍चे ने एक लोकगीत लिखकर भेजा था। गीत दिअर्थी शब्‍दों वाला था। संभवत: गीत भेजने वाला बच्‍चा भी यह बात नहीं जानता था। चकमक के संपादक रेक्‍स डी रोजारियो को यह गीत बेहद पसंद आया था। वे उसे चकमक में छापना चाहते थे। मैं उनकी राय से सहमत नहीं था और मैंने  प्रतिरोध किया था। संपादक जी ने पूरी चकमक टीम के सामने वह गीत रखा और पूछा कि बताएं लोग क्‍या सोचते हैं। बाकी सब लोगों ने गोलमोल जवाब दिए थे। पर बिस्‍वास साहब का जवाब मुझे आज भी याद है। उन्‍होंने कहा था कि 'हर चीज को पढ़ने की एक उम्र होती है। मुझे नहीं लगता कि यह गीत बच्‍चों को पढ़ने के लिए दिया जाना चाहिए।' बात केवल यहीं नहीं रूकी। वह गीत एकलव्‍य के कुछ और लोगों को भेजा गया। उन्‍होंने क्‍या कहा मुझे नहीं पता। पर अंतत: वह गीत चकमक में नहीं छपा।

गीत से याद आया कि चकमक के पहले अंक में छपा मेरा गीत आलू मिर्ची चाय जी बच्‍चों के बीच बहुत लोकप्रिय हुआ था। पिछले कुछ दिनों से वे मुझे उस गीत के जरिए ही याद रखते थे। वे मुझे देखकर कहते आलू मटर जी। बिस्‍वास साहब भोपाल में अरेरा कालोनी के ई-7 सेक्‍टर में रहते थे। कुछ संयोग ऐसा हुआ कि मेरा परिवार भी 2002 उनके घर के पास ही रहने लगा था। वे सुबह-सुबह घूमने जाते थे और मैं छोटे बेटे को छोड़ने स्‍कूल। अक्‍सर उनसे मुलाकात हो जाती। पिछले लगभग एक डेढ़ साल उनका सुबह का घूमना कम हो गया था। अपने आपको कैसे चुस्‍त दुरूस्‍त रखें इसके लिए वे सदा सतर्क रहते थे। योग करते थे। मेरी पत्‍नी निर्मला योग सिखातीं हैं। जब निर्मला से भेंट होती तो वे योग आसनों के बारे में पूछते और बताते भी।

पिछले साल जब वे अस्‍पताल में भर्ती थे तो मैं उनसे मिलने गया। वहां उन्‍होंने जिक्र किया कि निर्मला ने योग की किसी किताब की प्रति देने का वादा किया था। पर वह किताब उन्‍हें अब तक नहीं मिली। मैंने उनसे वादा किया कि मैं किताब लाकर उन्‍हें दूंगा। फिर मैं भी भूल गया। एक दिन जब शाम को घर पहुंचा तो पता चला कि बिस्‍वास साहब किताब लेने आए थे। मुझे बहुत शर्मिन्‍दगी महसूस हुई कि मैंने वादा करके भी नहीं निभाया। असल में किताब की प्रति निर्मला के पास भी नहीं थी। अंतत: अगले दिन मैंने किसी तरह किताब की एक प्रति ढूंढकर बिस्‍वास साहब तक पहुंचायी। किताब पाकर वे बहुत प्रसन्‍न हुए।

मैं दिवाली पर भोपाल गया था। अक्‍टूबर की 22 तारीख की शाम को ही उनसे मिला था। उनका चलना-फिरना बंद था। अपने तख्‍त पर लेटे-लेटे उन्‍होंने अपने पुराने अंदाज में ही आलू मटर जी कहकर मुझे पहचाना। गोलू-मोलू (मेरे बेटे) के बारे में पूछा,निर्मला के बारे में पूछा। यह भी संयोग ही था कि उसी दिन मैंने एकलव्‍य में अपना औपचारिक इस्‍तीफा लिखकर दिया था। मालूम नहीं था कि बिस्‍वास साहब से भी आखिरी मुलाकात हो रही है। और मालूम भी क्‍योंकर होता। क्‍योंकि चलते समय मैंने जब उनसे हाथ मिलाकर कहा कि फिर मिलेंगे। तो उनकी सफेद दाढ़ी में से झांकते होंठों पर वही मुस्‍कान थी और हाथ में वही मजबूत पकड़ जो जीने की उत्‍कंठा से भरे किसी व्‍यक्ति में होती है। लगता नहीं था कि वे इतनी जल्‍दी अलविदा कह देंगे। सच कहूं तो उनके हाथ कि गर्मी मैं अभी तक महसूस कर रहा हूं।

बिस्‍वास साहब आपको बहुत-बहुत सलाम । 

 (बाबा के दोनों फोटो राजेश खिन्‍दरी के सौजन्‍य से। प्रसंगवश यह उल्‍लेखनीय है कि राजेश बाबा के दामाद यानी टुलटुल के पति हैं।)

4 comments:

  1. Achchhi shradhanjali hai Utsahi ji

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  2. व्यक्तित्व के धनी विश्वास साहब जी को सादर श्रद्दांजलि....

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  3. राजेश भाई कई चीजों की हम कल्‍पना भी नहीं कर पाते । वि‍श्‍वास बाबा चले
    गये । एकलव्‍य के साथी संगी हमारे जीवन में खूब आये । आज संदीप हरदा आया
    था । उससे यही सवाल कि‍या कि‍ यदि‍ हम एकलव्‍य में न गये होते तो क्‍या
    होते । कैसे होते । उसी से पता चला वि‍श्‍वास बाबा नहीं रहे। एकलव्‍य
    छोड़ने के कई बरस बाद भोपाल में मकान तलाश रहा था। एक दि‍न पता नहीं
    कैसे उन तक जा पहुंचा।



    उन्‍हीं से कभी एकलव्‍य में कागज के खि‍लौने बनाना कुछ अन्‍य चीजें सीखी थी । बडे सक्रि‍य थे तब तक । बडे धीर गंभीर । ऐसे व्‍यक्तित्‍व कम होते हैं । हाय तौबा करते तो बहुत देखे पर
    वि‍श्‍वास साहब जैसा सक्रि‍य शांत धीर व्‍यक्ति नहीं। एकलव्‍य में काम
    करते हुए पता नहीं घुट्टी में जैसे कुछ पि‍ला दि‍या गया। मसलन सच का साथ दो
    चोरी चबाडी मत करो। गलत बात का वि‍रोध करो । कमजोर सताये के पक्ष में रहो। न जाने क्‍या -क्‍या बातें जाने अनजाने हमारे जीवन में दाखि‍ल होती गयीं। हम जैसे इनके कट्टर
    अनुयायी भगत बन गये। आज हम एकलव्‍य में नही हैं। पर हम जमाने के
    हि‍साब से खुद को बदल नहीं पाये।



    एकलव्‍य में हम अंजली-अनवर सहि‍त कई साथि‍यों से लंबी बहस करते थे, लड़ते थे, झगड़ते थे पर घृणा नहीं करते थे। प्रति‍शोध तो कतई नहीं । आज एक अजीब दुनि‍या में काम कर
    रहे है सब पैसे की तरफ भाग रहे हैं ।चोरी कर रहे हैं। सीनाजोरी भी ।कई जगह
    हास्‍यास्‍पद हैं हम। वि‍श्‍वास साहब जैसे लोग शांत धीर गंभीर कभी
    व्‍यग्र या उत्‍तेजि‍त न होने वाले कहां हैं हमारी आज की दुनि‍या में ।
    बहुत सीखा एकलव्‍य में हमने। कभी भूल नहीं सकेगें। सुना है अब तो
    एकलव्‍य भी बदल रहा है। बदलने दो हम कुछ अच्‍छी बाते तो सीख सके ।
    वि‍श्‍वास बाबा को मेरा सत सत नमन सत सत सलाम ।

    0 धर्मेन्‍द्र पारे, हरदा

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  4. LAGBHAG DUS VARSH KE ANTARAL KE BAAD MUJHE VISHWAS SAHAB KE DARSHAN HOOYE THE SHAHPOORA JHIL KE PAAS TAB MAI KISI KAM KI JALDI ME THA. PAR KYA JAANTA THA KI VISHWAS SAHAB DOONIYA SE JAANE KI JALDI ME THE. MAINE UNKE UNDER ME BAHOOT KARY KIYA. ISHWAR UNKI AATMA KO SHANTI DE. @ UDAY TAMHANEY.

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