Monday, June 28, 2010

बिखरा कथानक : शादी लड्डू(5)

एक मित्र का पत्र
प्रिय राजेश भाई
शादी के लड्डू तथा तब तक छब्बीस.. देखा और पढ़ा।
मुझे लगा मैं गुलशन नंदा या रानू के उपन्यास पढ़ रहा हूं।
सरकारी नौकरी वाले दामाद की चाहत, गौ जैसी बहू की चाह, लड़के और घर वालों की पसंद का मेल न खाना, बेबस लड़का जैसे मुद्दे तो सच्चाई हैं लेकिन मुझे लगा कि आप लगातार इन मुद्दों को डायलूट करके, थोड़ा मसाले का पुट देते चल रहे हैं।
यदि यह खुद पर या सामाजिक व्यवस्था पर व्यंग्य है तो उसे भी मैं महसूस नहीं कर पा रहा हूं।
यह टिप्पणी ब्लाग के लिए नहीं है। इसे अपने तक ही सीमित रखेंगे इस अपेक्षा के साथ।

यह टिप्पणी एक मित्र ने ईमेल से भेजी है। मित्र मैं माफी चाहता हूं कि इसे मैं अपने तक सीमित नहीं रख पा रहा हूं। क्योंकि यह टिप्पणी ब्लाग पर प्रकाशित सामग्री पर है और ब्लाग तो सार्वजनिक है। हां मैं आपका नाम यहां नहीं दे रहा हूं।



मित्र आपने बिलकुल सही आकलन किया है। सचमुच लिखते हुए और फिर उसे ब्लाग पर पढ़कर मुझे भी ऐसा ही लगा कि यह सब सत्तर के दशक के इन लोकप्रिय उपन्यासकारों के किसी उपन्यास का अंश या उनके नोटस् ही लगते हैं। बल्कि मैं तो यहां तक सोच बैठा कि कहीं मैं सत्यकथा या मनोहर कहानियां तो नहीं लिख रहा।

लेकिन सच्चाई यह भी है कि हमारा किशोर जीवन तो इन्हीं के उपन्यासों और सत्यकथाएं पढ़कर ही बीता है। यह शायद अविश्वसनीय लगे कि मैंने दसवीं(1974) कक्षा तक आते-आते 500 से अधिक उपन्यास पढ़ डाले थे। शायद पढ़ने का चस्का इन्हीं उपन्यासों की वजह से लगा था। खैर यह एक अलग कहानी है। इस पर चर्चा फिर कभी ।

सच्चाई यह भी है कि ब्लाग पर जो लिख रहा हूं यह मेरे जीवन की हकीकत है। इसमें बिलकुल नमकमिर्च नहीं है। आप यह भी कह सकते हैं कि ये एक तरह से मेरे नोटस् हैं। ये नोटस् अब तक मेरी स्मृतियों में ही थे, कागज पर या कहीं लिखित रूप में नहीं थे। जैसा कि भाई सुभाष राय ने अपनी टिप्पणी में लिखा है कि उन्हें इन  स्मृतियों को पढ़कर लगता है कि मेरे अंदर एक कहानीकार मौजूद है। उनका कहना है कि मुझे इन सबको कहानी के रूप में कहने की कोशिश करनी चाहिए। मुझे भी लगता है। अस्सी के दशक की शुरुआत में मैंने लेखन का आरंभ एक कवि और कहानीकार के रूप में ही किया था। तीन कहानियां लिखीं वे प्रकाशित भी हुईं। फिर जब चकमक शुरू हुई तो सारा ध्यान,ऊर्जा और अपना लेखकीय कौशल मैंने उसमें झोंक दिया। मेरा अपना लेखन कहीं पीछे छूट गया।

अब जिस पड़ाव पर मैं पहुंच गया हूं, वहां मुझे लगता है क्या यह सब मेरे अंदर ही रह जाएगा। इसे बाहर आना चाहिए।यह छटपटाहट ही मुझे ब्‍लाग तक ले आई। निश्चित ही यह पूर्ण नहीं है, यह एक तरह से नोटस् ही हैं।

मित्र आपका यह अवलोकन भी सही है कि यह सामाजिक व्यवस्था के साथ-साथ खुद पर व्यंग्य जैसा ही है। सच है कि इन टिप्पणियों में व्यंग्य की धार इतनी तीखी नहीं है, जो आपको छील दे। उसका भी एक कारण है। आप देख ही रहे होंगे कि मुझे न केवल अपने निजी जीवन की तुरपाई उधेड़नी पड़ रही है, वरन परिवार भी उसकी चपेट में आ रहा है। यह कहने और करने की हिम्मत भी मैं पच्चीस साल के बाद ही जुटा पाया हूं। चुनौती यह भी है कि मैं बात इस तरह से कह पाऊं, जिससे किसी को व्यक्तिगत रूप से कोई ठेस नहीं पहुंचे।
*
तो यह सिलसिला अभी जारी है। अगली किस्त उनके बारे में जिन पर मेरी कोलम्बसी तलाश खत्म हुई।

10 comments:

  1. राजेश भैया, मैने भी आपके शादी के लड्डू वाली पोस्ट पढ़ी यह बात सही है की उसमें आपने जीवन की सच्चाई लिखी है पर साथ ही साथ यह भी यह की प्रस्तुति बहुत ही रोचक अंदाज में है...

    मुझे यह अंदाज बहुत पसंद आया जीवन के सीधे-टेढ़े जीतने भी रास्ते है उस पर जब हम चलने लगते है तो एक रोमांच करी यात्रा बन जाती है कुछ लोग चुपचाप इस यात्रा को अपने तक ही सीमित रख लेते है कुछ लोग दूसरों से भी शेयर करते है..

    आपकी यह भावना मुझे बहुत पसंद आई...धन्यवाद कहना चाहूँगा..नमस्कार

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  2. आज गुल्लक फिर खोली। पिछली कडियाँ भी पढीं।सहजता से अभी संस्मरण लिखे गये हैं। कई बार इन्हें याद करना और दूसरो के साथ बाँटना असीम सुख देता है। बहुत बहुत शुभकामनाये

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  3. rajesh ji , pachchis sal bad ,sahaj sapaat aur badi bebaki se aapne apne man ki granthi ko khola hai .kitna achchha hota ki ise kuchh kalatmak roop de dete .aatmkatha to sahitya ki ek sashakt vidha hai.hum to ummid kar rahe the ki aapka dard (agar dard hai)koi phool ban kar khilega. aur haan anjaane hi sahi thes to aap lagaa hi rahe hai kisi n kisi ko . yahaan aapne apni chahat batai hai par kai aisa bhi hoga jo aapko chahta poojata hoga .nahi?kya apni feelings ko ,vah bhi itne mamooli tarike se gana thik hai?

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  4. Sahaj magar prabhavpurn dhang se aapne jidagi kee kitab likhi hai... Apne mitra ke email ke bahane aapne yatharth ke bhavpurn chitran kiya hai.. .
    Aapka lekh behad pasad aaya... dhanyavaad

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  5. उत्साही जी,
    बहुत दिनों बाद आना हुआ..... पर मज़ा फिर आया!
    आपका फोटो भी देखा! वक़्त की धूप में रंग पक्का सा पड़ गया है शायद!
    हा हा हा हा.....
    माफ़ कीजिये.... मैं पैदा भी हँसता हुआ ही हुआ था!
    -----------------------------
    इट्स टफ टू बी ए बैचलर!

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  6. @शुक्रिया विनोद भाई,निर्मला जी,कविता जी।
    @ आशीष भाई धूप में केवल रंग की पक्‍का नहीं हुआ है हम भी पक्‍के हो गए हैं। इसलिए उर्मि जी की बात का बुरा नहीं मानेंगे।

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  7. आपका अंदाज़ पसंद आया राजेश जी ! शुभकामनायें !

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  8. यह टिप्पणी ब्लाग के लिए नहीं है। इसे अपने तक ही सीमित रखेंगे इस अपेक्षा के साथ।

    छाप कर एहस्सान कर दिय्या है अब शर्म कौन्न करे

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  9. achha kiya jo dost ka patra hume bhi padhwaya !

    Laddu khane ko mann machal raha hai.

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  10. उत्साह जी मुझे तो सहज लिखी हुई बात लगी। जो एक मन में था उसी तरह आपने उसे उतार दिया। मुझे इसमें अतिरेक नजर नहीं आया। उस समय जो आपने किया वो उस दौर में नहीं आज भी सच्चाई है। कितने लोग हैं जो आज भी मां बाप के खिलाफ नहीं जाते। इसमें लडके लड़की दोनो हैं। लड़की आज भी जानती है कि वो विद्रोह कर सकता है अगर लडका साथ दे। पर अगर लड़का बीच में मैदान छोड़ दे तो उसके लिए आझ भी जीना आसान नहीं है। हर शहुर दिल्ली मुंबई या बैंगलोर नहीं बन गया है आज भी। पहले ज्यादा पढ़ी लिखी लड़की मंजूर नहीं थी तो आज लोगो भी जरा सा उल्टा है। लडकी को कम पढ़ा लिखा ल़ड़का कतई मंजूर नहीं। आज अगर जाति की बेड़ी कुछ टूटी है तो धर्म की बेड़ी में जरा सी दरार पड़ी है जो जल्द टूटेगी भी नहीं।

    मेरे ख्याल से बेहतर है कि जो जिस रुप में हो उसे उसी रुप में लिखें। लोग अलग अलग नजरिया ऱखेंगे ही। हां कभी कभी अपने पर ही हंसने का मन करता है। तो अलग बात है।
    आज भी थोडे बदलाव के साथ समाज वहीं का वहीं है। भले ही कहीं समाज बच्चों के आगे हार रहा हो।

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जनाब गुल्‍लक में कुछ शब्‍द डालते जाइए.. आपको और मिलेंगे...