‘‘अच्छा तो आप हैं
चकमक के एडीटर।’’
‘‘जी..।’’
‘‘तो आपको एक काम करना
है।’’
‘‘बताइए।’’
‘‘आपको हमारी पेंटिंग
चकमक में छापनी होगी।’’
‘‘ये तो मुश्किल काम
है।’’
‘‘मुश्किल हो कि न हो, पर नामुमिकन नहीं
होना चाहिए।’’
मैं हतप्रभ था। ये प्रत्यूष थे मात्र पांच साल के। पर उनकी आवाज में
गजब का आत्मविश्वास था। बिलकुल दो टूक। हर शब्द का स्पष्ट उच्चारण। बिना
किसी अवरोध के धाराप्रवाह। कोई झिझक नहीं, कोई नखरा नहीं।
अंजली मालवीय और राकेश मालवीय के बेटे हैं प्रत्यूष।
7 सितम्बर,2014 की दोपहर मैं रायपुर में अवंति विहार में उनके घर में बैठा था। प्रत्यूष को
राकेश ने जब यह बताया कि उनके घर चकमक के एडीटर आ रहे हैं, तो प्रत्यूष ने
मोहल्ले के अपने सारे दोस्तों को यह खबर बहुत गर्व से बताई थी। कहा था कि अब मैं
उनसे आटोग्राफ लूंगा और मेरे लाखों फैन बन जाएंगे। प्रत्यूष की एक सहेली को चकमक
के बारे में कुछ नहीं पता था। तो प्रत्यूष ने चकमक की प्रति दिखाकर उसे समझाया
था। राकेश खुद एक अखबार में संपादकीय दायित्वों से जुड़े हैं, तो प्रत्यूष इस पद
की महिमा से परिचित हैं।
जाहिर है कि जब चकमक के एडीटर सामने बैठे हों तो फिर उनके सामने
चित्रों का प्रदर्शन तो होना ही था। एक-एक करके प्रत्यूष की स्कूल की ड्रांइग
कॉपी खुलती गईं। हम देखते गए और हां हूं करते गए। उनमें ऐसा कुछ नहीं था कि उन पर
कुछ बातचीत की जाए। क्योंकि वे परम्परागत ड्रांइग कॉपियां ही थीं, जिनमें बनी-बनाई
आकृतियों पर पेंसिल घुमानी थी। या फिर रंग भरना था।
फिर वे सामने रखी अलमारी के कागजों के बीच से निकालकर एक चित्र ले आए।
यह होजियरी के साथ आने वाले गत्ते पर बना था। इसमें ऊपर सूरज चमक रहा था। दूर
पहाड़ भी बना था। नीचे ऊंची-ऊंची घास थी और उसमें एक लंबी रंग-बिरंगी डंडी भी नजर
आ रही थी। प्रत्यूष ने कहा यह टाईगर का चित्र है। मैंने कहा, पर इसमें टाईगर तो
है ही नहीं। प्रत्यूष बोले, टाईगर घास के अंदर छिपा है और यह उसकी पूंछ है। तो जिसे हम डंडी समझ
रहे थे, वह टाईगर की पूंछ थी।
पर असल चित्र तो घर की रफ कॉपियों में बने थे। आओ कुछ चित्र देखते
हैं।
बिल्ली या शेर कुछ भी कह सकते हैं। लाइनदार कॉपी के पन्ने पर काले
और पीले स्केच पेन से शेर का ऐसा चेहरा बना है, जैसे वह कुछ कहने ही वाला हो।
नदी में लहरों के साथ उतराते कमल के फूल। हम बड़े तो यह कल्पना कर ही
नहीं सकते। तुरंत ही इसमें तर्क लगाने बैठ जाएंगे। प्रत्यूष जैसे बच्चे ही यह
कल्पना कर सकते हैं।
घरों में पाए जाने वाले कीड़े का चित्र देखें। उसमें उसके आकार और
पैरों का अनुपात देखें। एकदम नपा तुला।
केवल एक चेहरा। रंगों का इतना संतुलित उपयोग और वह भी बालों में। हम
तो अमूमन काले,सफेद या अधिक से
अधिक भूरे बालों के बारे में ही सोच सकते हैं।
मोर का यह परम्परागत चित्र यह बताता है कि इस नन्हीं उमर में भी
प्रत्यूष में गजब का धीरज है। इस धीरज के चलते ही वे उसके पंखों को यह रूप दे पाए
हैं।
सबसे अच्छी बात मुझे यह लगी कि प्रत्यूष के चित्रों में विषयों की
विविधता है। ट्रेफिक लाइट, साइनबोर्ड पर बने आदिवासी, तालाब में चलती नाव या फिर कृष्ण।
अपने तमाम चित्र दिखाने के बाद एक बार फिर प्रत्यूष ने पूछा, ‘‘तो ये चकमक में
छपेंगे न।’’
मैंने कहा भई देखो, ‘‘जब आपके पापा और मम्मी चकमक पढ़ते थे, तब हम चकमक में काम करते थे।’’
‘‘अब नहीं करते।’’
‘‘नहीं।’’
‘‘तो आप चकमक के एडीटर
नहीं हैं।’’
‘‘नहीं।’’
‘‘तो फिर।’’
‘‘तो अब जो चकमक के
एडीटर हैं, हम उनको आपके चित्र भेज सकते हैं। और कहेंगे कि हमने प्रत्यूष के
बनाए बहुत सारे चित्र देखे हैं। वे अच्छे चित्र बनाते हैं और अगर आपको भी अच्छे
लगें तो आप उन्हें चकमक में छापें।’’
‘‘ठीक है।’’
और फिर प्रत्यूष अपनी बालसुलभ गतिविधियों में मशगूल हो गए। थोड़ी देर
बाद न जाने क्या सूझा, बोले मैं आपको जोधा-अकबर का डायलॉग सुनाता हूं। घर के दीवान पर चढ़कर
उन्होंने अभिनय करते हुए जो डायलॉग सुनाया वह समझ में नहीं आया। उनके बोलने से
ऐसा लगा जैसे वे मुगले-आजम के पृथ्वीराज कपूर का अभिनय कर रहे हैं। अब अपन ने तो
वही देखा है। जाहिर है प्रत्यूष इन दिनों टीवी पर आ रहे धारावाहिक का डायलॉग सुना
रहे थे। हालांकि उनके यहां पिछले कुछ दिनों से टीवी नहीं है। पर वे उत्साह घर की
एक दीवार की तरफ इशारा करके बताते हैं कि यहां एलसीडी स्क्रीन वाला टीवी लगाएंगे।
फिर थोड़ी देर के लिए वे वहां से गायब हो गए। लेकिन जब हाजिर हुए तो
अपने पिता का एक जैकेट पहने हुए। लगभग दौड़ते हुए प्रत्यूष ने कहा कि वे सुपरमैन
हैं। और फिर उन्होंने कुछ एक्शन करके हमें दिखाईं।
घर की परछत्ती पर बहुत से गमले रखे हैं। नीचे जाने वाली सीढ़ी के एक
कोने में दीवार से उगता हुआ पीपल का पौधा है। मुझे थोड़ा ताज्जुब हुआ कि वह खासा
बड़ा है और अब तक सलामत है। मैंने अंजली से कहा कि लगता है प्रत्यूष तोड़-फोड़
में विश्वास नहीं करते। उन्हें मेरी पहेली समझ नहीं आई। जब मैंने अपना आशय स्पष्ट
किया तो उन्होंने बताया कि वह उसका दोस्त है। पौधे और प्रत्यूष दोस्त हैं।
इतना ही नहीं प्रत्यूष अपने इन दोस्तों से बतियाते भी हैं।
अंजली और राकेश दोनों ही होशंगाबाद के पास के एक गांव के रहने वाले
हैं। दोनों ने अपने स्कूल में होशंगाबाद विज्ञान पढ़ा और चकमक भी। जाहिर है कि
अपरोक्ष रूप से उनकी शिक्षा कुछ इस तरह से हुई है जिसमें बच्चों की अभिव्यक्ति,उनकी अपनी इच्छाओं
को जगह देने की बात कही जाती रही है। प्रत्यूष अभी एलकेजी में पढ़ने जाते हैं।
राकेश बताते हैं कि उन्होंने जानबूझकर प्रत्यूष के लिए कोई आटो या अन्य वाहन का
प्रबंध नहीं किया। वे मां के साथ पैदल जाते हैं और वापस आते हैं। लेकिन इस दौरान
जो कुछ भी रास्ते में देखते हैं उस पर रोज राकेश से चर्चा होती है। राकेश इस
चर्चा को अपनी डायरी में दर्ज कर रहे हैं। यहां मुझे समझ आया कि प्रत्यूष के
चित्रों का कैनवास बड़ा क्यों है।
कुल मिलाकर मुझे इस छोटे से परिवार से मिलकर अच्छा लगा। इसलिए भी कि
चकमक के माध्यम से हम जो करना चाहते थे..करना चाहते हैं..वास्तव में वह वैचारिक
रूप से कहीं होता हुआ दिख रहा है। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में जाता हुआ।
0 राजेश उत्साही