विनोद रायना : 1950-2013 |
(जाने-माने समाजविज्ञानी और
शिक्षाविद् डॉ.विनोद रायना का गत 12 सितम्बर को दिल्ली में निधन हो गया। पिछले चार
साल से वे प्रोस्टेट कैंसर से लड़ रहे थे। विनोद रायना मध्यप्रदेश में शैक्षिक संस्था
एकलव्य के संस्थापक सदस्यों में से एक हैं। चकमक बाल विज्ञान पत्रिका के वे
संपादक रहे हैं। मैंने उनके साथ एकलव्य
में 1982 से 1997 तक काम किया है। मेरा यह आत्मालाप उस अवधि के अनुभवों पर ही
आधारित है।)
23 सितम्बर, 2013 की सुबह बंगलौर में
अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के सातवें माले पर लिफ्ट से बाहर निकलते हुए रश्मि
पालीवाल ने जब मुझे सामने पाया तो उनका पहला वाक्य था, ‘राजेश, हम विनोद को खोकर मिल
रहे हैं।’
अचानक ही मुझ में जैसे
किसी दार्शनिक ने प्रवेश कर लिया और मैंने कहा, ‘रश्मि, हम हर बार जब मिलते हैं
तो वास्तव में कुछ न कुछ खो ही चुके होते हैं।’
(एकलव्य की हमारी साथी रश्मि ऋषिवैली से
होशंगाबाद लौट रही थीं। आंध्रप्रदेश में चल रहे आंदोलन के कारण उन्हें बंगलौर से
अपनी ट्रेन पकड़नी थी। उनके पास दिन भर का समय था, इसलिए वे मिलने चली आईं
थीं।)
सच तो यह है विनोद भाई, कि किसी को खोकर ही हम उसका वास्तविक महत्व जान पाते हैं। पर यह आपके बारे में सच नहीं है, आपके रहते हुए भी हम सबने आपको बहुत कुछ जाना। केवल विनोद कहकर तो मैंने आपको कभी संबोधित नहीं किया और आज भी नहीं कर पाऊंगा। हालांकि आपका लगातार यह आग्रह रहता था।
ठीक से याद नहीं, आपसे पहली मुलाकात कब
हुई थी। संभवत: होशंगाबाद में। हां, यह याद आता है कि 1982
या 1983 में उज्जैन में आयोजित होशंगाबाद विज्ञान प्रशिक्षण शिविर में हम साथ-साथ थे। मेरा
काम प्रयोगशाला में किट संभालना और शाम की फीडबैक मीटिंग में आप सबको चाय पिलाने
का होता था।
1983 में भोपाल के ई-1/208 में एकलव्य का कार्यालय खुल गया था। लगभग तीन-चार वर्षों तक उसी के एक कमरे में आपका डेरा था। उसी में गेस्ट हाऊस का एक कमरा भी हुआ करता था। मैं उन दिनों होशंगाबाद में होता था। होशंगाबाद विज्ञान बुलेटिन के काम के सिलसिले में लगातार भोपाल आना होता था। कई बार रात को वहां रुकना भी होता था। जब भी आप वहां होते, हम देर रात तक बातें करते। इन बातों में सब कुछ होता था। फिल्म, राजनीति, साहित्य, समाज और संस्था की बातें। पहले मुझे लगता था यह केवल गप्पबाजी है। बाद में धीरे-धीरे समझ आया यह एक तरह का प्रशिक्षण था, अपने आसपास के परिवेश को जानने के लिए समझ की तैयारी। एकलव्य तो तब बना ही था। लोग जुट रहे थे। इस तरह की समझ देने का कोई व्यवस्थित कार्यक्रम नहीं था। पर मुझे लगता है किसी भी व्यवस्थित कार्यक्रम से ज्यादा प्रभावशाली तरीका था यह।
आपसे असली पहचान तब शुरू हुई जब ‘चकमक’ आरंभ हुई। पढ़ने-लिखने में मेरी रुचि और ‘होशंगाबाद विज्ञान बुलेटिन’ में मेरा काम देखकर मुझे भी इसकी संपादकीय टीम में शामिल किया गया। चकमक का सपना संभवत: रेक्स भाई ने देखा था, पर उसे साकार करने का बीड़ा आपने उठाया था। मध्यप्रदेश सरकार के संस्थान माध्यम के साथ मिलकर चकमक निकालने की योजना बनी थी। लेकिन भोपाल गैस त्रासदी पर एकलव्य के स्टैंड को देखकर सरकार ने अपने हाथ वापस खींच लिए। लेकिन आपने हार नहीं मानी। तय किया गया कि चकमक तो निकलेगी ही।
चकमक शुरू हुई तो पहले एक साल रेक्स भाई ने संपादक की भूमिका निभाई। लेकिन फिर वे मुंबई चले गए। संपादक के रूप में आपने जिम्मेदारी उठाई। और फिर 1986 से लेकर 1995 के आसपास तक आप यह भूमिका निभाते रहे। यूं तकनीकी कारणों से तो आपका नाम बतौर संपादक 2007 के आसपास तक चकमक में छपता रहा। मैं स्वयं चकमक में 1985 से 2000 तक संपादन कर रहा था। कविता और टुलटुल के रूप में दो साथी और थे। कला पक्ष जया संभालती ही थीं। चूंकि आपके पास संस्था के अन्य तमाम कामों की जिम्मेदारी भी होती थी, इसलिए हर अंक की एक मोटी रूपरेखा बनाने के बाद आगे के काम की जिम्मेदारी लगभग मुझ पर ही होती थी।
आप आमतौर पर चकमक की आवरण कथा तैयार करते थे। आपकी हिन्दी अच्छी थी, लेकिन लिखने में वर्तनी की गलतियां आप करते थे। उन्हें सुधारने की जिम्मेदारी मेरी ही होती थी। पर एक बात कहूं कि आपके लिखे हुए से कई बार मुझे ईर्ष्या होने लगती थी। वह इसलिए कि जितनी सहजता से आप बोलते थे, उसे वैसा का वैसा ही लिख भी देते थे।
चकमक में साहित्य का पक्ष लगभग मेरे ही जिम्मे था। कहानियां और कविताएं चुनते हुए, मैंने कभी यह नहीं पाया कि मेरे किसी चुनाव को आपने नकारा हो। हां हम रचनाओं पर बातचीत करते थे। बहस करते थे। कम से कम चकमक को लेकर हमारे बीच में कभी झगड़ा नहीं हुआ। हालांकि आपसे झगड़ा करने की मेरी हैसियत ही कहां थी। पर आप इस मुगालते में न रहें। बीच में ऐसी स्थितियां भी बनीं कि मैं आपसे हद दर्जे की नफरत भी करने लगा। यह और बात है कि उसे मैंने कभी जाहिर नहीं होने दिया। हो सकता है आप इस बारे में जानते रहे हों। यह नफरत कोई व्यक्तिगत नहीं थी, यह संस्था में आपकी रीति-नीति को लेकर उपजी थी। निश्चिंत रहें, इसके लिए मैं आपसे माफ-वाफ करने का कष्ट करने के लिए नहीं कहूंगा।
1992 में जब चकमक का सौवां अंक निकला तो उसका विमोचन समारोह भोपाल के बालभवन में बड़े पैमाने पर आयोजित किया गया। तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने उसका विमोचन किया। कार्यक्रम को संचालित करने का जिम्मा आपने मुझे सौंपा था। मेरे लिए वह एक बड़ी उपलब्धि थी। हालांकि आप और रेक्स भाई तो इससे ही खुश थे कि संचालन करते हुए मैं बिलकुल भी भैराया नहीं था।
आपके अंग्रेजी मुहावरों से कभी-कभी मुझे चिढ़ भी हो जाती थी। मुझे ऐसी एक घटना कभी नहीं भूलती। चकमक का एक अंक प्रतिबंधित दवाओं पर केन्द्रित था। उसकी आवरण कथा के लिए शीर्षक सोचा जा रहा था। मैंने सुझाया, ‘दवा, खुद एक लाइलाज मर्ज’। शीर्षक आपको पसंद आया। आपने रेक्स भाई से कहा, ‘दिस इज नॉट बेड।’ शीर्षक तो यही चुना गया था, पर मेरा मन हुआ था कि अपना सिर पीट लूं। ऐसा भी नहीं है कि आप हमेशा इसी अंदाज में सराहते थे। एक बार जब मैंने चकमक के लिए एक संपादकीय लिखा और आपको पढ़ने को दिया तो आपने उसके कोने पर लिखा था, ‘बधाई, बहुत बढि़या।’
विनोद भाई, अंग्रेजी और हिंदी पर आपकी अच्छी पकड़ थी। एकलव्य के आरंभिक दिनों में अकादमिक परिषद की बैठकों में मैं एक मात्र ऐसा व्यक्ति होता था, जिसे अंग्रेजी समझने में मुश्किल होती थी। आपकी कोशिश होती कि आप अपनी बात हिन्दी में ही कहें। लेकिन जब भी आपको लगता कि आप अपनी बात अंग्रेजी में ज्यादा अच्छे से कह सकते हैं तो आप मुझसे क्षमा मांगते और कहते, ‘राजेश मैं यह बात अंग्रेजी में ही कह पाऊंगा।’ मुझे यह याद नहीं पड़ता कि ऐसा और कौन करता था।
1997 के आसपास ‘समावेश’ बनने की बात चली। उसमें एक प्रस्ताव यह भी था कि चूंकि आप समावेश में रहेंगे, इसलिए चकमक भी समावेश में चली जाएगी। उस दौरान अकादमिक परिषद की चर्चा में आपने यह बात रखी कि अब चकमक ‘प्रोफेशनल’ तरीके से निकाली जाएगी। मैं तो तब प्रोफेशनल का अर्थ भी नहीं समझता था। आपने बताया कि इसका मतलब यह है कि अगर आपका काम प्रूफरीडिंग करना है तो आप केवल प्रूफरीडिंग करेंगे। लेआउट करने वाले को सिर्फ लेआउट करना है, लेख लिखने वाले को सिर्फ लेख लिखना है। अन्य कामों में उसका कोई दखल नहीं होगा। मुझे याद है कि चकमक की टीम से पूछा गया था कि कितने लोग इस तरह की व्यवस्था से सहमत हैं। सोचने के लिए एक दिन का समय दिया गया था। मुझे तो यह प्रस्ताव सिरे से ही खारिज करने योग्य लगा था। लेकिन शायद यह मेरे वश में नहीं था। इसलिए मैंने अपने बारे में निर्णय लिया था। मैंने कहा था, ‘मैं इस ‘प्रोफेशनल’ चकमक में काम नहीं करना चाहूंगा। मैंने एक कदम आगे बढ़कर यह भी कहा था कि, ‘आप लोग यह न सोंचे कि फिर मैं एकलव्य में क्या करूँगा। अगर मेरे लिए जगह नहीं होगी तो एकलव्य छोड़ दूंगा। इसलिए आप मेरी चिंता छोड़कर आगे की बात करें।’
लेकिन विनोद भाई, जब आपने मेरा यह फैसला
सुना तो आपने कहा, ‘राजेश मैं तुम्हें सलाम करता हूं। इतनी बड़ी बात कहने के
लिए बहुत हिम्मत चाहिए। मैं तो तुम्हारे बिना चकमक की कल्पना भी नहीं कर सकता। राजेश तुम और तुम्हारे साथी अब चकमक का भार खुद संभालो, जैसे उसे चलाना चाहो, वैसे चलाओ। मैं अब इसमें
बहुत समय नहीं दे पाऊंगा। जहां मदद की जरूरत होगी, करूंगा।’ विनोद भाई क्या कहूं...आपके
ये शब्द आज भी मेरे लिए किसी पुरस्कार से कम नहीं हैं। शायद यह चकमक के प्रति मेरी
प्रतिबद्धता का सम्मान था।
आप मूलत: कश्मीर के रहने वाले थे। ज्यादातर लोग आपके सरनेम को ‘रैना’ लिखते या बुलाते हैं। जबकि वास्तव में वह ‘रायना’ है। आपको यही लिखना हमेशा पसंद रहा। खाने के आप शौकीन थे। जब भी आपको मौका मिलता एकलव्य के मेस में आप अपनी पसंद का खाना बनाते थे। खासकर कश्मीरी मटन, जिसमें आप फूलगोभी भी डालते थे। कितनी भी व्यस्तता रही हो, दोपहर के खाने के बाद कम से कम आधा घंटे की झपकी लेना आपकी दिनचर्या में शुमार था।
आपके साथ कई बार महेन्द्रा जीप में बैठने का मौका मिला। मैंने नोटिस किया कि जब भी आप किसी गाड़ी से साइड मांगकर आगे निकलते तो हाथ हिलाकर उसके ड्रायवर का धन्यवाद अदा करना नहीं भूलते। एकलव्य में वर्षों से जीप का कारभार संभालने वाले शफीक भाई आपकी ड्रायवरी और जीप के बारे में आपकी समझ की हमेशा तारीफ करते थे। कई बार हमने यह भी देखा कि आप ही शफीक भाई को जीप के किसी नुक्स के बारे में बता रहे होते थे। आपका सहगल प्रेम जगजाहिर है। जब भी कभी मौका होता आप सहगल के गीत गुनगुनाने से बाज नहीं आते थे। फ़ैज अहमद फ़ैज आपके पसंदीदा शायर थे। उनकी किताब 'सारे सुखन हमारे' मैं अक्सर आपकी मेज पर रखी देखता था। मेज से याद आया कि जिस तरह आप स्वयं बहुत व्यवस्थित रहते थे, वैसे ही आपकी मेज और कमरा दोनों बहुत व्यवस्थित होते थे।
1983 होविशिका शिविर,उज्जैन : किट रूम में विनोद भाई के साथ |
मुझे याद है कि आप एकलव्य में बिताए आपके आखिर के दिनों में अक्सर चकमक टीम से यह सवाल करते थे कि, ‘मैं नहीं होऊंगा तो चकमक का क्या होगा, एकलव्य का क्या होगा?’ आपको भी याद होगा कि मेरा जवाब होता था,‘ विनोद भाई, मध्यमवर्गीय परिवारों में अक्सर यह चिंता होती है कि अगर एक दिन घर का मुखिया नहीं होगा तो क्या होगा? एक दिन ऐसा आता है कि वह सचमुच नहीं होता। बहुत से परिवार बिखर जाते हैं और बहुत से फिर भी अपना अस्तित्व बनाए रखते हैं। शायद ऐसा ही यहां भी होगा।’
विनोद भाई, इसीलिए इस सबके बावजूद मुझे आपके व्यक्तित्व का यह पक्ष सबसे अच्छा लगा कि जब आप एकलव्य से असहमत होने लगे या एकलव्य में अप्रासंगिक होने लगे तो संस्था को बिना कोई क्षति पहुंचाए अपने को उससे धीरे-धीरे अलग किया।
विनोद भाई, इस दुनिया से विदा होते हुए आपके मन में यह संतोष जरूर रहा होगा कि आपका कुनबा ‘एकलव्य’ और आपकी बिटिया ‘चकमक’ अब भी है।
पहली पंक्ति में बाएं से तीसरी अनीता रामपाल विनोद भाई की जीवन संगनी |
विनोद भाई, आप जहां भी रहें, जैसे भी रहें, हम नहीं भूल पाएंगे, क्योंकि आपको भूलना अपने आपको भूलने जैसा है।
(मेरा यह पत्र भोपाल में 28 सितम्बर को विनोद भाई की स्मृति में आयोजित एक कार्यक्रम में पोस्टर की शक्ल में लगाया गया था। ऊपर का चित्र उसी अवसर का है। विनोद भाई पर बनी एक फिल्म इस लिंक पर है।)
0 राजेश उत्साही