गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पांय
बलिहारी गुरु आपकी गोविन्द दियो बताय
फोटो:राजेश उत्साही |
चरण स्पर्श यानी पैर छूना वास्तव में किसी के प्रति आदर और श्रद्धा व्यक्त करने का तरीका है। पर विभिन्न कारणों से यह सत्ता या अपनी प्रभुता
साबित करने का भी एक जरिया बनता रहा है। हमारे समाज में इसके ढेरों उदाहरण मिल जाएंगे। मुझे लगता है इसकी शुरुआत घर से ही होती है।
इसके बारे में पर्याप्त चर्चा किए बिना बच्चों से यह अपेक्षा की जाती रही है कि
वे अपने से बड़ों के पैर छूएंगे, चाहे इसके लिए उनका मन गवारा करे या न करे। दूसरी
तरफ कुछ ऐसे रिश्ते-नाते भी हैं जिनमें पैर छूना अपने आप ही तय मान लिया जाता है। और अगर आप उसका पालन न करें,तो कोपभाजन के लिए तैयार रहें। महिलाओं के साथ तो जैसे यह अनिवार्य शर्त सी हो जाती है। नई-नवेली बहू का ससुराल पक्ष अगर भरा-पूरा हो तो उसकी तो झुक झुककर कमर ही टूट
जाती है।
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बहरहाल पैर छूने की यह कवायद मेरे लिए बहुत सारी
खट्टी-मीठी यादों का सबब बन गई है। पैर छूने की कोई कट्टरता घर
में नहीं थी। हां जब किशोर हुए तो विभिन्न अवसरों पर यह अपेक्षा होने लगी कि हम
परम्परा का निर्वाह करें। जैसे जन्मदिन और दीवाली आदि पर माता-पिता,दादी और बहनों के पैर छुएं। रक्षाबंधन पर बहनों के। यह आज भी जारी है। कुछ अन्य
मौकों पर अन्य परिचितों के पैर भी छूने की अपेक्षा होती थी। पर मुझे कभी भी ऐसा नहीं लगा कि यह बहुत मन से
किया हो। या कि इनमें से किसी भी अवसर पर हम सामने वाले से इतने अभिभूत थे कि बिना
किसी आडम्बर के झुककर सायास ही पैर छू लिए हों। हर बार किसी परम्परा या लिहाज का झंडा आगे-पीछे चलता ही रहा।
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कुछ ऐसे वाकये या मौके जरूर रहे हैं, जो बरबस याद आ जाते हैं। उत्तर भारत में आमतौर पर सास अपने दामाद के पैर छूती है। लेकिन
मेरे जमीर को यह कभी गवारा नहीं हुआ। जब ऐसा मौका आया, तो मैंने इससे हरसंभव बचने का प्रयास किया। और कई मौकों पर तो उल्टे उनके ही पैर छू लिए। सभी महिलाओं से
चाहे वे रिश्ते में जो भी लगती हों, मैं हमेशा पैर छुवाने से बचता रहा हूं। दक्षिण
भारत स्त्री-पुरुष के बजाय आयु देखी जाती है। यानी
आयु में जो भी छोटा है वह अपने से बड़े के पैर छुएगा ही। यहां बंगलौर में जब मुझे
एक बेटी मिली तो बड़ी विचित्र स्थिति पैदा हो गई। संस्कारों के चलते मुझे
उसके पैर छूने थे और उसे मेरे। अंत में हम दोनों में समझौता इस बात पर
हुआ कि कोई किसी के पैर नहीं छुएगा।
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मुझे दो ऐसे वाकये याद आते हैं, जब सचमुच मेरा मन
किया कि सामने वाले के पैर छू लिए जाएं। पहली घटना तीन साल पहले
की है। मेरा पचासवां जन्मदिन था। भोपाल में घर के पास के बाजार में मैं कुछ सामान
खरीदने गया था। वहां अचानक जाने-माने शिक्षाविद् अनिल सद्गोपाल मिल गए। उन्हें
मैं अनिल भाई कहता हूं। 1982 के आसपास उनके साथ काम करने का मौका मिला था। उनकी
कही एक बात मेरे लिए मार्गदर्शक बन गई थी।
होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम की पत्रिका के पहले अंक की सामग्री सीमेंट की खाली बोरी में भरकर उन्होंने मुझे सौंपते हुए कहा था,' कि इसे भोपाल से छपवाकर लाना है।'
मैं अवाक था। कि मैंने ऐसा कोई काम पहले कभी नहीं किया था। हां पढ़ने-लिखने में मेरी रुचि अवश्य रही थी। मैंने कहा था, 'मुझ से यह नहीं होगा। मुझे यह काम नहीं आता है।' उन्होंने तुरंत ही वह बोरा मेरे हाथ से ले लिया और कहा था, 'अगर जिन्दगी में आगे बढ़ना है तो किसी भी काम के लिए यह मत कहना कि यह मुझे नहीं आता है। कहना कि मैं कोशिश करूंगा। अन्यथा कोई काम करने का मौका नहीं देगा।' फिर तो यह बात मैंने गांठ बांध ली। इस एक सूत्र के सहारे न जाने कितने कौशल मैंने सीखे। काम किए,जिम्मेदारियां उठाईं।
तो पचासवें
जन्मदिन पर आर्शीवाद प्राप्त करने के लिए अनिल भाई से बेहतर कौन हो सकता था।
मैंने झुककर उनके पैर छू लिए। मेरे इस व्यवहार से वे भी हतप्रभ थे। पर जब मैंने
अवसर और अपना मंतव्य उन्हें बताया तो उनकी आंखों में वह चमक उभर आई जो मैं अक्सर देखता था।
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दूसरी घटना पिछले बरस की है। मैं जयपुर की यात्रा पर
था। रमेश थानवी जी के बारे में पढ़ता और सुनता रहा था। वे राजस्थान प्रौढ़ शिक्षण समिति में पिछले कई बरसों से सक्रिय हैं। समिति की पत्रिका अनौपचारिका का संपादन कर रहे हैं। वे बच्चों के लिए भी लिखते रहे हैं। उनकी एक मशहूर कहानी 'घडि़यों की हड़ताल' मैंने चकमक में प्रकाशित की थी। लगभग साल भर तक अनौपचारिका के
लिए मैं एक कालम भी लिखता रहा हूं। जयपुर गया तो मैंने उनसे मिलने की इच्छा व्यक्त की।
उन्होंने मेरे ठहरने की जगह का पता पूछा और खुद ही कार चलाते हुए मिलने चले आए।
अपने सामने उनको पाकर अनायास ही मैं उनके पैरों में झुक गया। सच कहूं तो उनका व्यक्तित्व
ही ऐसा है।
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दो और ऐसे व्यक्ति हैं,जिनके मैंने कई अलग अलग मौकों पर बहुत आदर के साथ और मन से चरण स्पर्श किए हैं। इनका मेरे जीवन में स्थान लगभग गुरु जैसा है। एक हैं श्याम बोहरे। श्याम भाई ने मुझे ऐसे समय राह दिखाई, जब मेरे जीवन में लगभग अंधेरा छा गया था। मैं आत्मविश्वास खो चुका था। सच कहूं तो उनकी दिखाई राह पर चलकर ही यहां तक पहुंचा हूं। दूसरे हैं डॉ.सुरेश मिश्र। इन्होंने मुझे कॉलेज में कभी नहीं पढ़ाया, लेकिन मैं उन्हें 'सर' ही कहता हूं। अनजाने में ही मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा। वे उन व्यक्तियों में से हैं जो लगातार मेरा परिचय मुझ से कराते रहे हैं।
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दो और ऐसे व्यक्ति हैं,जिनके मैंने कई अलग अलग मौकों पर बहुत आदर के साथ और मन से चरण स्पर्श किए हैं। इनका मेरे जीवन में स्थान लगभग गुरु जैसा है। एक हैं श्याम बोहरे। श्याम भाई ने मुझे ऐसे समय राह दिखाई, जब मेरे जीवन में लगभग अंधेरा छा गया था। मैं आत्मविश्वास खो चुका था। सच कहूं तो उनकी दिखाई राह पर चलकर ही यहां तक पहुंचा हूं। दूसरे हैं डॉ.सुरेश मिश्र। इन्होंने मुझे कॉलेज में कभी नहीं पढ़ाया, लेकिन मैं उन्हें 'सर' ही कहता हूं। अनजाने में ही मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा। वे उन व्यक्तियों में से हैं जो लगातार मेरा परिचय मुझ से कराते रहे हैं।
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दो घटनाएं ऐसी भी हैं, जब दो मित्रों को मैंने अपने
पैर छूते हुए पाया। 1990 के आसपास इंदौर का एक युवा जो जनसंचार की पढ़ाई कर रहा
था, छह महीने की इंटर्नशिप के लिए चकमक में आया था। उसे मेरे साथ ही काम करना
था। मेरा काम करने का तरीका कुछ ऐसा था (और शायद अब भी है), मेरी प्रतिक्रिया से लगभग
हर तीसरे-चौथे दिन वह रोने को हो आता। उसकी आंखें भर आतीं। मैं अपनी प्रतिक्रिया को हरसंभव बहुत सहज
तरीके से व्यक्त करने की कोशिश करता। पर गलत को गलत कहने से बचना मेरे लिए संभव
नहीं था। बहरहाल धीरे-धीरे दिन बीतते रहे। आखिरकार उसके जाने का समय आ गया। चलते
समय औपचारिक अभिवादन के बाद जब सचमुच वह विदा होने लगा तो उसने झुककर मेरे पैर छू
लिए। इस बार आंखें भर आने की मेरी बारी थी। उसने कहा, 'जितना मैंने आपसे इन छह
महीनों में सीखा है, वह शायद छह साल में भी नहीं सीख पाऊंगा।' आज वह इंदौर में जनसंचार पढ़ाता है। हो सकता है वह मुझे भूल गया हो, पर संदीप पारे मैं
तुम्हें कभी नहीं भूल पाऊंगा।
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एकलव्य के भोपाल केन्द्र का प्रभारी होने के
साथ-साथ मैं एकलव्य की अकादमिक परिषद का सचिव भी था। इस नाते मेरी दोहरी जिम्मेदारी
थी। एकलव्य में 1997 के आसपास एक नए साथी ने प्रवेश किया। साल भर के बाद जब अकादमिक
परिषद में उनके काम और मानदेय आदि की समीक्षा के बाद पुनर्निधारण हुआ तो वे उससे
संतुष्ट नजर नहीं आए। एक शाम को लगभग दो घंटे इस संबंध में मेरी और उनकी गहन
चर्चा हुई। मैंने संस्था के कार्यकर्त्ता के रूप में, केन्द्र प्रभारी के रूप
में, परिषद के सचिव के रूप में और उससे कहीं आगे बढ़कर एक दोस्त के नाते अपनी बात
उनके सामने रखी। पता नहीं मेरे किस रूप ने यह किया कि चर्चा के बाद वे मुझे एक हद
तक संतुष्ट से लगे। अंतत: जब वे चलने लगे तो उन्होंने झुककर मेरे पैर छू लिए। अनायास
ही किया गया उनका वह अभिवादन आज भी मेरी थाती है। मैं अब एकलव्य में नहीं हूं,
लेकिन राकेश खत्री हैं।
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सत्ताइस साल का लम्बा अरसा एकलव्य में गुजारने के
बाद अब मैं यहां बंगलौर में हूं। लेकिन जब भी भोपाल जाना होता है, एकलव्य जाता
ही हूं। वहां के दो साथी शिवनारायण गौर और अम्बरीष सोनी जब मिलते हैं तो मेरे पैर
छुए बिना नहीं मानते। पता नहीं उन्होंने मुझमें ऐसा क्या पाया है या मुझसे
क्या पाया है कि वे अचानक ही मुझे जमीन से कुछ ऊपर उठा देते हैं।
0 राजेश उत्साही