Sunday, May 24, 2009

शरद बिल्‍लौरे की याद

मेरी कहानी
उस संगमरमरी पत्‍थर की कहानी है
लोग खूबसूरत कहने के बावजूद
जिसे पत्‍थर कहते हैं।

उस काली चटटान की कहानी है
सख्‍त होने के बावजूद
कोमल पौधे जिसके सीने पर अपनी जड़ें जमाए रहते हैं।


कविता की ये पंक्तियां शरद बिल्‍लौरे की कविता मेरी कहानी की हैं। शरद अब हमारे बीच में नहीं हैं। 19 अक्‍टूबर 1955 को रहटगांव जिला होशंगाबाद,मप्र में जन्‍में शरद का 3 मई 1980 को दुखद निधन हो गया था। मैं 1982 में प्रगतिशील लेखक संघ की होशंगाबाद इकाई का सचिव था। शरद बिल्‍लौरे का कविता संग्रह ‘तय तो यही हुआ था’ प्रगतिशील लेखक संघ ने ही प्रकाशित किया था। सचमुच शरद भाई की कविताएं इतनी सहज और सरल थीं कि लगता जैसे वे पढ़ने वाले ने स्‍वयं लिखीं हों। मैं भी उनसे बहुत प्रभावित था। इस हद तक कि उनके इस संग्रह की कविताओं को आधार बनाकर मैंने श्रद्धांजलि स्‍वरूप एक कविता लिखी थी ‘तुम मुझ में जिंदा हो।‘ जब हरदा में प्रगतिशील लेखक संघ का संभागीय सम्‍मेलन हुआ तो उसमें होशंगाबाद के उभरते हुए कवियों की कविताओं का एक सायक्‍लोस्‍टाइल संग्रह होशंगाबाद इकाई की ओर से जारी किया था। इसका संग्रह का नाम शरद भाई के संग्रह की अंतिम कविता ‘तुम मुझे उगने तो दो’ के नाम पर रखा था। पिछले दिनों शरद कोकास के ब्‍लाग पर शरद बिल्‍लौर का जिक्र देखकर उनकी कविताओं की बहुत याद आई। खासकर यात्रा पर लिखी गई कविताओं की। मैं आज खुद जब अपने शहर भोपाल से बाहर बंगलौर में हूं,तब मुझे इन कविताओं को बार-बार पढ़ने का मन हुआ।

Wednesday, May 13, 2009

राजेश उत्‍साही की दो और ग़ज़लें

।।एक।।
कशमकश से जिन्‍दगी की न डर जाएं
जो मन को भली लगे वही डगर जाएं

गुजरना उम्र का है, बहना नदी का
डरना है क्‍या, बस धार में उतर जाएं

शूलों की चुभन हो, या फूलों की नाजुकी
अपना तो काम है कि नई सहर लाएं

तूफान में घिर गया है जिनका सफीना
कुछ पल कश्‍ती पे मेरी वो ठहर जाएं

रुकी रुकी-सी क्‍यों हो मोड़ पर तमन्‍नाओ
मान भी जाओ इस मुकाम से गुजर जाएं

अक्‍स का है क्‍या,माटी का है यह पुतला
कहो तो राख बनके फिजां में बिखर जाएं


बाजार में बैठे हो तो खरीदार भी मिलेंगे
जिन्‍हें लुटने का है डर, वो अपने घर जाएं

इल्‍जाम अगर सिर है,चुप नहीं मुनासिब
चाहे जां रहे सलामत या कि मर जाएं

थामे रहिए उत्‍साही हौसले का दामन
जाने कौन से पल प्‍यार से संवर जाएं
*राजेश उत्‍साही

।। दो।।


पुण्‍य बहुत किए हैं,चंद पाप कर लें
कुछ सजाए काबिल कुछ माफ कर लें


निम्‍न दर्जे के हैं हम फकत आदमी
भले मानस की छवि मन से साफ कर लें


कर लीं सबने बहुत दुआएं मेरे वास्‍ते
बरबादी के लिए अब हवन-जाप कर लें

सीने पर हैं कई कसीदे, तमगे टंगे हुए
वक्‍त का तकाजा, आलोचना आप कर लें


मुमकिन नहीं है,हर वक्‍त रहें आदरणीय
है अगर वरदान तो इसी क्षण शाप कर लें


नज़रों में बहुत ऊपर रहा हूं श्रीमान की
अब कदमों में ही कहीं मेरा ग्राफ कर लें


वक्‍त के आने तक सूख न जाएं आंसू
मेरे नाम पर भी दो क्षण विलाप कर लें

बिगड़ेंगे ये संबंध तो जाने कब सुधरें
छोड़ें गिले-शिकवे,भरत-मिलाप कर लें

मुदृदत से, कुछ बात नहीं की आपने
इसी बहाने उत्‍साही से संलाप कर लें
*राजेश उत्‍साही

Saturday, May 9, 2009

बंगलौर : एक

कनार्टक राज्‍य परिवहन की
बस नम्‍बर के-4 एम 1455
रूट न 341 सी का
कंडक्‍टर
डयूटी पर निकलने से पहले
माथे पर तिलक लगाकर
भगवान के सामने रोज करता
है प्रार्थना

हे प्रभु
नायकनहल्‍ली से मोरीगेट की
आज कम से कम दस
सवारियां देना
ताकि दिन भर का
चाय का खर्चा निकल आए

और हां
करना कुछ ऐसा कि
नायकनहल्‍ली मंदिर के
कोने पे
वो दाढ़ी वाला
चूक जाए बस

दाढ़ी वाला
मांगता है टिकट
बहकाता है और लोगों को भी
न खुद बचाता है पैसा
न बचाने देता है मुझे

पता नहीं कैसा
सिरफिरा है
तीन रुपए का सफर
पांच रुपए की टिकट लेकर
करता है

हे प्रभु
इस सिरफिरे को
थोड़ी अक्‍ल दो
और मुझे कम से कम
दस सवारी

बस नम्‍बर
के-4 एम 1455
रूट नम्‍बर 341 सी का
कंडक्‍टर
डयूटी पर निकलने से पहले
माथे पर तिलक लगाकर
भगवान के सामने रोज करता
है प्रार्थना
0 राजेश उत्‍साही

Sunday, May 3, 2009

राजेश उत्‍साही की ग़ज़लें

वो जब भी मुस्‍कराया है देखकर मुझको
शख्सियत का अपनी नया मायना देखा


अपनी एक ग़ज़ल का यह शेर मुझे हमेशा से बहुत पसंद रहा है। आज मैंने इसमें एक परिवर्तन किया है। पहली लाइन का पहला शब्‍द पहले कोई था, मैंने उसे अब वो कर दिया है। तो 2000 के आसपास की ये दो ग़ज़लें और प्रस्‍तुत हैं। आज इन्‍हें फिर से पढ़ा, कहीं-कहीं कुछ बदला भी है। पिछले हफ्ते ग़ज़ल के एक ब्‍लाग को भी इन्‍हें भेजा था। पर वहां से न तो खत आया न ही खता बताई ।

।। एक।।

सब कहते हैं गजब की जान रखते हो
बहरों की बस्‍ती में इक जुबान रखते हो

धीमे स्‍वर में कहूं या तेज आवाज़ में
सबको पता है तुम क्‍या स्‍थान रखते हो

जो खताएं हों तुम्‍हारी तो हज़ारों माफ
हमारी एक पे, सर आसमान रखते हो

मुदृदत से दबे कुचले हुए थे हम यहां
उठे, तो पूछते हैं क्‍यों तूफान रखते हो

तुम्‍हारा वजूद है, हमारे खून से,पसीने से
जान पड़ता नहीं, हमारा ध्‍यान रखते हो

सहने के दिन गए, न धीरज रखा जाएगा
सम्‍हालो तिजोरी, जहां अपने प्रान रखते हो

अभिव्‍यक्ति की कलम में सच्‍चाई की मार है
पता है कि तुम तलवार-ए-म्‍यान रखते हो

उत्‍साही है जमाने में,याद जमाने को रहेगा
लाख बरबादी के क्‍यों न अरमान रखते हो

*राजेश उत्‍साही


।।दो।।
बारिश की सड़कों पर आईना देखा
पथराई-सी आंख में आईना देखा

भीड़ में खोजते रहे अक्‍स जिसका
पाया जो तन्‍हा,माथे पे पसीना देखा

जो आया,जाएगा इक तयशुदा दिन
इससे अलहदा चलन अभी ना देखा

मौसम बदलते हैं,बदलती हैं अदाएं
दौर आतंक का बारह महीना देखा

जब भी हुआ,करीबे-मंजिल का गुमां
किनारे पे डूबता अपना सफीना देखा

मस्जिद-मंदिर से नहीं रहे बावस्‍ता
प्‍यार के हरफों में काशी-मदीना देखा

वो जब भी मुस्‍कराया है देखकर मुझको
शख्सियत का अपनी नया मायना देखा

*राजेश उत्‍साही