Monday, June 28, 2010

बिखरा कथानक : शादी लड्डू(5)

एक मित्र का पत्र
प्रिय राजेश भाई
शादी के लड्डू तथा तब तक छब्बीस.. देखा और पढ़ा।
मुझे लगा मैं गुलशन नंदा या रानू के उपन्यास पढ़ रहा हूं।
सरकारी नौकरी वाले दामाद की चाहत, गौ जैसी बहू की चाह, लड़के और घर वालों की पसंद का मेल न खाना, बेबस लड़का जैसे मुद्दे तो सच्चाई हैं लेकिन मुझे लगा कि आप लगातार इन मुद्दों को डायलूट करके, थोड़ा मसाले का पुट देते चल रहे हैं।
यदि यह खुद पर या सामाजिक व्यवस्था पर व्यंग्य है तो उसे भी मैं महसूस नहीं कर पा रहा हूं।
यह टिप्पणी ब्लाग के लिए नहीं है। इसे अपने तक ही सीमित रखेंगे इस अपेक्षा के साथ।

यह टिप्पणी एक मित्र ने ईमेल से भेजी है। मित्र मैं माफी चाहता हूं कि इसे मैं अपने तक सीमित नहीं रख पा रहा हूं। क्योंकि यह टिप्पणी ब्लाग पर प्रकाशित सामग्री पर है और ब्लाग तो सार्वजनिक है। हां मैं आपका नाम यहां नहीं दे रहा हूं।

Thursday, June 17, 2010

एक रुका हुआ फैसला: शादी लड्डू(4)


दिल टूट चुका था। टुकड़ों को समेटना और फिर से दिल लगाना, बहुत हिम्‍मत जुटानी पड़ी। दूसरी भोपाल की थीं। रेल्‍वे स्‍टेशन के पास एक थियेटर हुआ करता था-किशोर। उसके पास ही उनका घर था। पिता केन्‍द्रीय विभाग में थे। मां गृहणी थीं, पर कवियत्री के रूप में उनकी पहचान थी।

हम सपरिवार उनके घर गए। पहली ही नजर में वे हमें भा गईं और हम उनको। वैसे हम को तो सब पहली ही नजर में भाती रहीं हैं। हिन्‍दी साहित्‍य में एमए थीं और सचमुच का साहित्‍य पढ़ने में भी उनकी रुचि थी। पर यहां मामला थोड़ा टेढ़ा था। बात कुछ ऐसी थी कि हमें तो पसंद थीं, पर रंग और नैन नक्‍श में वे हमारे घर वालों की कसौटी पर खरी नहीं उतर रहीं थीं। पर औपचारिक बातचीत के बाद परिवार की भी लगभग सहमति बन गई। के माता‍-पिता होशंगाबाद आए। दिन भर हमारे घर रहे। नर्मदा में स्‍नान किया। हमारा घर बार उन्‍हें भी पसंद आया। की माताजी ने कहा हमारी बि‍टिया यहां सुखी रहेगी। 

Wednesday, June 16, 2010

‘अ’ का जादू: शादी लड्डू(3)

छब्बीस में से दो रिश्ते इतनी दूर तक चले गए थे कि उनके टूटने की आवाज मुझे अभी तक कहीं अंदर सुनाई देती है। यह अजब संयोग है कि दोनों के नाम से शुरू होते हैं और इतना ही नहीं नाम भी एक ही है। बस इतना फर्क है कि इनमें से एक भोपाल से थी, तो दूसरी! चलिए अब शहर के नाम में क्या रखा है। कुछ भी रख लीजिए। एक  का रिश्ता हमारे घर वालों ने तोड़ा तो दूसरी का उनके घर वालों ने। दोनों में ही मैंने अपने आपको बहुत दुखी पाया। 

Sunday, June 13, 2010

तब तक छब्‍बीस : शादी लड्डू-(2)


जी हां मैं ही हूं।
जी हां हमने शहीद होने से पहले छब्‍बीस लड़कियों का सामना किया है। यह अलग बात है कि रिजेक्‍ट हमने नहीं, उन्‍होंने या उनके घर वालों ने हमें किया था। शक्‍ल और अक्‍ल तो हमारी ठीक ठाक ही थी, पर हम किसी ऐसी नौकरी में नहीं थे, जिसकी आय से अपनी होने वाली बीवी और बच्‍चों का पेट पाल सकें, ऐसा रिजेक्‍ट करने वालों का कहना था। नौकरी थी एकलव्‍य संस्‍था में। संस्‍था को बने भी तीन साल ही हुए थे। आगे क्‍या होगा कुछ पता नहीं था। सरकार से अनुदान मिलता था। हमसे पूछा जाता कि जब संस्‍था को पैसा सरकार दे रही है तो आगे चलकर तो वह सरकारी ही हो जाएगी न। हम ठहरे सत्‍यवादी हरिशचंद्र। हमसे झूठ नहीं बोल जाता। हम कहते जी नहीं ऐसी कोई संभावना नहीं है। इतना ही नहीं जो नहीं पूछते उन्‍हें हम खुद ही उपत कर बता देते।

अब छब्‍बीस में से सबके नाम-पते तो याद नहीं। लेकिन कुछ हैं जिन्‍हें भुला नहीं सके हैं। सब कुछ तो यहां नहीं लिखा जा सकता न। पर कुछ कुछ है जो आपके साथ भी बांटा जा सकता है।

पहला प्रस्‍ताव
हमारे जमाने में लड़का या लड़की खोजने का काम घर के बुजुर्ग ही किया करते थे। कोशिश हमने भी की पर सफलता हाथ नहीं लगी। पहला प्रस्‍ताव ही अपने से चार साल बड़ी कन्‍या के सामने रख दिया। हां तब तक हम एकलव्‍य में नहीं आए थे। एक दूसरे दफ्तर में थे,जहां कन्‍या हमारी सहयोगी

Thursday, June 10, 2010

शादी का लड्डू : खाए वो पछताए, न खाए वो भी पछताए


कहते हैं शादी एक ऐसा लड्डू है जो खाए वो भी पछताए और जो न खाए वो भी । तो जनाब हमने भी वही किया और करते-करते इतने दिन बीते कि लड्डू खाने के ऐतिहासिक दिन की पच्‍चीसवीं सालगिरह आन पहुंची है। हां, इस महीने की 23 तारीख को हमारा शहीदी दिवस है। इसमें बुरा मानने की कोई बात नहीं है। हम तो घर में इस दिन को इसी तरह याद करते हैं। इस लड्डू तक हम किस तरह पहुंचे यह बताने का हमारा बहुत मन है। बहुत कहानियां हैं आगे-पीछे की। चलिए शुरुआत करते हैं निमंत्रण से।


साफ-साफ पढ़ने के लिए निमंत्रण पर क्लिक करें
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तो यह रहा हमारा शादी का निमंत्रण पत्र। एकलव्‍य में आए जुम्‍मा-जुम्‍मा तीन साल ही हुए थे। उसके पहले नेहरू युवक केन्‍द्र में थे। वहां सायक्‍लोस्‍टाइल मशीन चलाने और उस पर नए-नए प्रयोग (आगे पढ़ने के लिए Read More बांए नीचे पर क्लिक करें)

Saturday, June 5, 2010

सुभाष उवाच

बात -बेबात के भाई सुभाष जी से इन दिनों ब्‍लागिंग के बारे में लगातार विमर्श हो रहा है। मेरे एक मेल के जवाब में उन्‍होंने लिखा है-
प्रिय भाई , एक बार किसी कवि ने बड़ी निराशा में हजारी प्रसाद द्विवेदी से पूछा, लिखने-पढने का क्या फायदा, हम जितना लिखते हैं, समाज उतना ही बुरा बनता चला जाता है। फिर किसके लिए लिखते हैं हम। लिखना क्यों न बंद कर दिया जाए। द्विवेदी जी ने कहा, उस एक पाठक के लिए, जिसके द्वारा तुम्हारी रचना पढ़े जाने की संभावना है। हम लिखने वाले लोगों को इतना धैर्य रखना चाहिए। वक्त खुद भी कचरा साफ करता है। जो अच्छा करते हैं, अच्छा लिखते हैं, वही समय की शिला पर अंकित होते हैं।
इसलिए हमेशा आशा से भरे रहो और अच्छा से अच्छा लिखने का प्रयास करो। तुम्हारे अन्दर आग है और उसे जलाये रखना ही तुम्हारी जिम्मेदारी है।
हौंसला देने के लिए शुक्रिया सुभाष भाई। पर्यावरण दिवस की बीतती हुई रात पर ब्‍लाग की दुनिया में फैल रहे प्रदूषण को साफ करने का संकल्‍प लेकर एक आशा भरी सुबह की उम्‍मीद की जा सकती है। ऐसे में मुझे मेरी एक पुरानी कविता याद आ रही है-

अधेड़ पेड
फिर हरा हो रहा है
आ रही हैं नई पत्तियां
हरियाली में संचित हो रही है ऊर्जा

जन्‍म ले रही कोशिकाएं
बन रहा है प्‍लाज्‍मा
सक्रिय हो रहा है
केन्‍द्रक
अधेड़ पेड़ में ।
                       **राजेश उत्‍साही

Thursday, June 3, 2010

अर्चना जी कहती हैं.........

अर्चना रस्‍तोगी एकलव्‍य,भोपाल की पुरानी साथी हैं। वे मेरे ब्‍लाग पढ़ती रहती हैं। कभी मेल पर या फोन पर बात होती है तो अपनी प्रतिक्रिया देती हैं। मैंने उनसे कई बार आग्रह किया कि वे अपनी प्रतिक्रियाएं पोस्‍ट के नीचे टिप्‍पणी करके दें तो और लोग भी पढ़ पाएंगे । उन्‍हें यह झंझट का काम लगता है। मैंने कहा चलिए एक मेल में ही लिख दीजिए। मैं आभारी हूं कि उन्‍होंने एक संक्षिप्‍त टिप्‍पणी लिख ही डाली। उनकी अनुमति से उसे यहां प्रस्‍तुत कर रहा हूं
 * पहले तो शुक्रिया कि काफी बड़े आकार की तस्‍वीर से रूबरू होने से अब छुट्टी मिली। शुरू में तो बड़ी उमंग से आपके ब्‍लाग पर जाती थी। पर जब आपने अपनी विशाल तस्‍वीर लगा ली थी तो कुछ समय तो यही सोचने में निकल जाता था कि इतनी बड़ी तस्‍वीर क्‍यों डाल रखी है। कुछ शायद कोफ्त भी हुई। पर आपको बताना मेरे लिए आसान नहीं था। लगता था ब्‍लाग पर लिखा किसी और ने है और तस्‍वीर किसी और की है। यह मेरी अपनी राय बन गई थी बचकानी-सी। अब आपका ब्‍लाग काफी सुंदर बन गया है जो कि आपकी लेखन प्रतिभा से काफी मेल खा रहा है। 
 * देखिए आपके लिए लिखना काफी आसान है। क्‍योंकि यह आपका जुनून है। पढ़ने के बाद मेरे जैसे कई लोग चाहते तो होंगे की कुछ लिखें,टिप्‍पणी करें। पर वो कुछ ऐसा ही लगता है कि जैसे....(आगे पढ़ने के लिए बाएं तरफ नीचे Read More पर क्लिक करें।)