प्रिय राजेश भाई
शादी के लड्डू तथा तब तक छब्बीस.. देखा और पढ़ा।
मुझे लगा मैं गुलशन नंदा या रानू के उपन्यास पढ़ रहा हूं।
सरकारी नौकरी वाले दामाद की चाहत, गौ जैसी बहू की चाह, लड़के और घर वालों की पसंद का मेल न खाना, बेबस लड़का जैसे मुद्दे तो सच्चाई हैं लेकिन मुझे लगा कि आप लगातार इन मुद्दों को डायलूट करके, थोड़ा मसाले का पुट देते चल रहे हैं।
यदि यह खुद पर या सामाजिक व्यवस्था पर व्यंग्य है तो उसे भी मैं महसूस नहीं कर पा रहा हूं।
यह टिप्पणी ब्लाग के लिए नहीं है। इसे अपने तक ही सीमित रखेंगे इस अपेक्षा के साथ।
यह टिप्पणी एक मित्र ने ईमेल से भेजी है। मित्र मैं माफी चाहता हूं कि इसे मैं अपने तक सीमित नहीं रख पा रहा हूं। क्योंकि यह टिप्पणी ब्लाग पर प्रकाशित सामग्री पर है और ब्लाग तो सार्वजनिक है। हां मैं आपका नाम यहां नहीं दे रहा हूं।