मित्रो
आज मेरी पत्नी नीमा का जन्मदिन है। दो साल पहले अपने विवाह की पच्चीसवीं
वर्षगांठ पर मैंने नीमा को केंद्र में रखकर एक लम्बी कविता लिखी थी। यह कविता चार
भागों में मेरे कविता ब्लाग गुलमोहर पर प्रकाशित हुई थी। यह कविता मेरे पहले
संग्रह ‘ वह जो शेष है..’ में भी संकलित है। 
हम आज
जिस अजाब से गुजर रहे हैं,
उसमें चल रही बहस के बीच मैं अपनी पत्नी में बसी स्त्री को किस तरह देखता हूं, यह इस कविता में कहने की कोशिश की है। आपमें
से बहुत से साथियों ने उस समय भी इसे पढ़ा था, अपनी प्रतिक्रिया दी थी। एक बार फिर मैं उस कविता को यहां
आप सबके सामने रख रहा हूं।  
यह कविता
नीमा के प्रति मेरी एक सार्वजनिक आदरांजलि है। बहुत संभव है इसका कोई साहित्यिक
महत्व न हो।
मेरी
जीवनसंगिनी
यानी कि पत्नी का
नाम
निर्मला है
यह असली नाम है
बदला हुआ या काल्पनिक
नहीं
पर हां प्यार से
या समझ लीजिए सुविधा
से
मैं नीमा कहकर
बुलाता हूं।
समस्या
निर्मला कहने में भी
नहीं
पर पुकारते हुए कुछ
ज्यादा ही
समय लगता है
और अब तो उन्हें भी
मुझसे नीमा सुनने की
कुछ ऐसी आदत
सी हो गई है
कि मेरे मुंह से
निर्मला
सुनते ही उन्हें
लगता है कि कुछ गड़बड़ है।
मुझे याद है
जब नई नई शादी हुई
थी
मेरी मौसेरी बहन
जिसे हम सरू पुकारते
हैं
अपनी नई-नवेली भाभी
को
उस जमाने के एक
मशहूर वाशिंग पावडर
के नाम से जोड़कर
चिढ़ाती थी।
याद मुझे यह भी है
कि
मेरे एक साहित्यिक
मित्र
ब्रजेश परसाई ने
-जो अब नहीं हैं-
बधाई देते हुए कहा
था
अब आप राजेश जी को
निर्मल वर्मा बना
दें
संयोग की बात यह भी
कि निर्मला का सरनेम
भी वर्मा ही है
और अब भी है।
जानने वाले परेशान
हो जाते हैं
राजेश उत्साही] निर्मला वर्मा और बच्चों के नाम
के साथ पटेल सरनेम
देखकर।
यह अलग बात है कि
वे अपना परिचय
श्रीमती निर्मला राजेश
कहकर देती हैं
जो मुझे कभी अच्छा
नहीं लगता
मैं हर औपचारिक जगह
उनका परिचय
श्रीमती निर्मला
वर्मा कहकर ही देता हूं।
पर मेरे कहने से क्या
होता है
आसपड़ोस वाले उन्हें
श्रीमती उत्साही के
नाम से जानते हैं।
| होशंगाबाद 2011 | 
एक मजेदार बात यह भी
कि
एक बार मैंने घर के
बाहर
नेमप्लेट की तरह
एक स्लेट पर अपने
नाम के साथ साथ
पत्नी और
बच्चों के नाम भी
लिखकर
लटका दिए थे
लिखा था
राजेश नीमा
कबीर उत्सव
नतीजा यह कि
एक पड़ोसी नीमा को
मेरा
सरनेम ही समझने लगे
थे
वे मुझे नीमा जी
कहकर ही
बुलाते थे
मैं और नीमा
सुनसुनकर बस हंसते थे।
निर्मला यानी नीमा
अपने मायके में नीमू
हैं
नीमू दीदी या फिर
नीमू बुआ
और ससुराल में तो वे
निर्मला ही ठहरीं
अब आपको
जो भी ठीक लगे
आप बुला सकते हैं
नीमा निर्मला या फिर नीमू।
नाम का चयन
इसलिए भी जरूरी है
कि
क्योंकि आगे की
कविता इन्हीं के बारे में है
चलिए
मैं तो नीमा कहता
रहा हूं
सो नीमा ही कहूंगा
एक बार फिर आपको याद
दिला दूं
कि यह काल्पनिक या
परिवर्तित नाम नहीं है
एकदम सोलह आने सच्चा
और खरा है
नीमा 
यानी निर्मला के आत्मज
कभी उत्तरप्रदेश के
बीहड़ों से 
निकलकर 
महाराष्ट्र और
गुजरात की सीमा से सटे मप्र के 
पश्चिम निमाड़ की
उपजाऊ जमीन 
में आ बसे थे
परमार राजाओं के गढ़
सेंधव यानी 
सेंधवा में 
किले के नीचे
सेंधवा 
रहा है मशहूर 
अपनी रुई की गरमाहट
के लिए
आज का आगरा बंबई
मार्ग यानी
राष्ट्रीय राजमार्ग
क्रमांक तीन इसके बीच से गुजरता है
यहीं 1959 के साल की
पहली तारीख को
नीमा ने पहली
किलकारी भरी
जीन में फिटर हुआ
करते थे पिता
अस्सी साल की पकी
उम्र में 
उन्होंने इस दुनिया
से विदा ली
उनके जाते ही 
जैसे परिवार बिखर
गया 
घर का सुख जाने किधर
गया 
तीन भाइयों की दो
बहनों में से एक
छोटे भाई से बड़ी
लेकिन सबकी छोटी बहन
नीमा अभी छोटी ही थी
बड़े भाई अपने परिवारों में व्यस्त हो गए 
बड़ी बहन ,छोटा भाई और मां 
बस यही दुनिया रह गई  
बचपन 
मुफलिसी में बीता
मुफलिसी ऐसी कि
फूलों ने नन्हीं और नाजुक उंगलियों से 
मालाएं बनवाईं
ऐसे मंजर भी दिखाए कि
गिरवी रखने को न
जेवर बचे थे, न बरतन 
मां ने रोटी के लिए
रखे आटे को बेचकर फीस चुकाई 
पर बच्चों की पढ़ाई
नहीं छुड़वाई 
घर से स्कूल
जाती-आती
हुई यह लड़की
रास्ते में कबीट के
पेड़ से जरूर बतयाती 
अपना सुख-दुख सुनाती
कबीट का पेड़ कहता 
बिटिया जीवन मेरी
तरह है कंटीला
मेरी पत्तियों की
तरह खट्टा और मेरे फल की तरह कठोर 
पर इस दुनिया में ही
है तेरी ठौर 
समय बीतता गया
मुफलिसी हारती
गई  
जिंदगी में यकीन
जीतता गया
सेंधवा के
मोती बाग मोहल्ले
की 
दगड़ी बाई प्राथमिक
कन्या शाला की यह कन्या 
लड़कियों से ज्यादा
लड़कों के साथ नजर आती 
कंचे चटकाती  
गिल्लियों को दूर
दूर तक पहुंचाती 
और मोहल्ले के घरों
के कांच तड़काती
माध्यमिक शाला में 
नाले के पार
लड़के-लड़कियों के साथ पढ़ने जाती 
और जब कोई बदतमीजी
पर आता  
एक ही धक्के में
सीधा खानदेश पुल से नाले में जाता
लड़के थे कि खिसयाते
और रानी लक्ष्मीबाई
कहकर चिढ़ाते
सेंधवा महाविद्यालय 
की दीवारें और उन पर
लिखी इबारत
इस बात की गवाह हैं
कि  
नीमा ने 
महाविद्यालय की चौखट
में 
छात्रा के रूप में
कदम रखा
छात्रसंघ की
अध्यक्षा बनीं,
खो खो और कबड्डी
खेली,
फर्राटा दौड़ लगाई
और वहां से निकलीं
तो 
हिन्दी साहित्य की
प्राध्यापिका होकर
| मैसूर जू में : जुलाई,2012 | 
नीमा
कहानीकार प्रकाशकांत
की 
मां जाई बहन से भी
सगी बहन हुईं
उनके सानिध्य और
प्रेरणा से ही वे
आम आदमी की भाषा के 
कवि सर्वेश्वर दयाल
सक्सेना की कविताओं में प्रयोगवाद पर 
शोध की तैयारी में
जुटी थीं
पर वक्त ने कुछ इस
तरह करवट ली कि वे
सब कुछ तज के 
मुझ जैसे आम आदमी की
जिन्दगी के 
वादों और विवादों की
साक्षी बन गईं
नीमा के लिए 
बकौल प्रकाशकांत मैं
वो आदमी था जिसके अंदर आग थी
मैं वो आम आदमी था
जो नीमा के अलावा
किसी और की 
कसौटी पर खरा नहीं
उतरता था 
हां, मां ने 
नीमा की मां ने कहा
था
तुझे पसंद है तो
मुझे क्या 
तेरी खुशी में मेरी
खुशी है
नीमा 
ससुराल में बड़ी बहू
के नाते
परिवार संभालने के 
आदर्श की सनातन
रंगबिरंगी झालरों 
के बीच खो गईं
गिनाने को कारण और
देने को तर्क बहुत सारे हैं 
पर हकीकत यही है कि
कुछ निर्बलताएं उनकी रहीं 
कुछ फरमान हमारे हैं
नर्मदा के किनारे  
होशंगाबाद के सेठानी
घाट  
पर मधुमास में 
एक उजियारी रात को
निर्मल नीर में उतराते चांद को निहारते हुए 
मैंने पूछा था, 
‘नीमा तुम्हारी जिन्दगी
का लक्ष्य क्या है?’
‘तुम मिल गए तो
लक्ष्य भी मिल जाएगा
साथ साथ हम रहें, यह
जाता हुआ समय लौटकर न आएगा।‘
इसका जवाब  
निर्मल चांद को चूम कर
ही दिया जा सकता था । 
नीमा 
छोटे भाई की भाभी 
और बहनों के लिए
भाभी से ज्यादा 
सहेली बन गईं
जल्दी ही 
हल्दी का रंग 
और प्याज की गंध
उनमें 
और वे गृहस्थी में
रम गईं । 
नीमा
मैंने
तुमने  
हमने
शुरू किया था
नया जीवन
इसमें 
नया 
उतना ही था 
जितना होता है सबके
लिए
तुम  
हिन्दी साहित्य 
की प्राध्यापिका
सेंधवा के छोरा-छोरियों
की वर्मा मैडम 
आईं थीं होशंगाबाद
पटेल साहब की बहू 
बड़ी बहू बनकर
पूरी रेल्वे कालोनी
में चर्चा था 
पटेल साहब की बहू
कॉलेज में पढ़ाती है
मैं खुश था
अम्मां खुश थीं 
बाबूजी खुश थे
सब खुश थे कि तुम
पढ़ा रही हो
कॉलेज में पढ़ा रही
हो
दुख था
तो केवल यह कि 
बहुत दूर था सेंधवा
नर्मदा
होशंगाबाद को भिगोती
और  
तीन सौ किलोमीटर का
फासला पार करके
सेंधवा के आसपास
खलघाट 
को छूती 
तुम जानती हो कि
कितनी कोशिशें हुई
थीं
तुम्हारा तबादला 
होशंगाबाद या कहीं
आसपास हो जाए
बाबूजी शिक्षा
मंत्री के दरवाजे तक हो आए थे  
पर तदर्थ नियुक्ति
के कारण 
यह संभव नहीं हो सका
था
नीमा
सच ये भी है कि कुछ
मध्यमवर्गीय आदर्श
थे जिनके 
तले मैं भी था और
तुम भी
यह भी यर्थाथ था
मुझ से छोटे तीन और
भाई बहन थे घर में 
घर में 
दादी और अम्मां
बाबूजी भी थे 
अम्मां ही थीं जिन्होंने
सारा घर संभाल रखा था
मदद याकि हाथ बंटाने
के लिए
स्वाभाविक रूप से
जो आ सकता था
वह बडे़ बेटे की बहू
मेरी पत्नी
तुम थीं
तुमने भी देखा
महसूस किया
भावनात्मक, नैतिक
और कुछ तथाकथित सामाजिक दबाव
तुमने यह फैसला
किया, नहीं
शायद 
हम दोनों ने यह
फैसला किया
तुम केवल पटेल साहब
कि बड़ी बहू बनी रहो
याद है 
हम दोनों बसंत की
सत्ताईसवीं नाव में सवार थे
लगता था जैसे 
मिलकर दोनों ने
पतवार नहीं संभाली तो
पता नहीं कब किनारें
लगें
| अम्मां और रानी के साथ : होशंगाबाद 2011 नवम्बर | 
शायद 
हमारे फैसले को
पकाने में 
विरह के इस नमक का
भी हाथ था
अंतत: 
त्यागपत्र लिखकर 
तुम चलीं आईं थीं
तुम आ गई थीं 
बड़ी बहू बनकर
तुमने 
अपनी ओर से यह
प्रयत्न 
किया था
निभा पाओ दायित्व
अपना
पर कहीं कुछ ऐसा था
जो आड़े आता रहा 
इस बीच 
तुम्हारे छोटे भाई
ने सूचना दी थी कि 
अभी तक त्यागपत्र
स्वीकृत नहीं हुआ है
एक बार फिर 
सब कुछ सोचा गया
हमने तय किया था कि 
तुम वापस जाकर 
सेंधवा के
छोरा-छोरियों की वर्मा मैडम हो जाओ 
तैयारी हो गई थी
छोटा भाई तुम्हें 
लेने आया था 
लेकिन 
तुम्हारे और अम्मां
के बीच 
जाने क्या बातचीत
हुई कि 
तुमने अपना फैसला
अचानक बदल दिया
नीमा
तुम शायद 
नहीं जानतीं 
कितने दिन और कितनी
रातों तक  
मैंने महसूस किया जैसे
मैं गर्म तवे पर बार
बार गिराई जारी कोई बूंद हूं
सच कहूं तो आज तक 
मैं उस अपराध बोध से
मुक्त नहीं हो पाया हूं
शायद 
तुमने भी मुझे 
अब तक 
माफ नहीं किया है न!
तमाम कोशिशों के
बावजूद
आदर्शों पर खरे नहीं
उतर पाए थे हम
परम्परा से चली आ
रही 
तकरार हमारे घर
में भी मौजूद थी
वह इतनी बढ़ गई थी
कि 
मेरा हाथ उस दिन 
पहली (और आखिरी) बार
तुम्हारे गाल तक प्यार
से नहीं 
गुस्से से पहुंचा
था
उस रात 
हम एक दूसरे से
लिपटकर 
बस रोते रहे थे
मैं तो पता नहीं
कितने दिन, कितनी रातों तक 
मन ही मन 
हमें 
घर से बाहर जाने का
रास्ता चुनना पड़ा
था
कुछ व्यवहारिकताएं
थीं और कुछ समझौते
सबकी सहमति के बाद
साल भर के नन्हें
कबीर को लेकर
हम आ गए थे भोपाल
तुमने अपना सारा समय
उसे
और मुझे संभालने में
लगा दिया था
कोशिश तो मैंने भी
यही की थी
कितना सफल हो पाया
पता नहीं
पांच साल गुजर गए
सोचा था कबीर स्कूल
जाने लगेगा
तो तुम्हारे पास
समय होगा
कुछ और करने का 
पर नियति को कुछ और
मंजूर था
कबीर के बाद उत्सव 
और फिर कबीर और उत्सव
दोनों को संभालने
में तुम्हारा पूरा समय
दस साल में दुनिया
कहां से कहां पहुंच
जाती है
तुमने जो
महाविद्यालय में पढ़ाया था और पढ़ा था
वह सब पुराना हो गया
था
नए से तुम्हारा
वास्ता नहीं बन पाया था
फिर 
हमने कोशिश की थी 
भोपाल के कुछ
प्राइवेट स्कूलों में 
पढ़ाने का काम खोजने
की
काम मिला भी था
पढ़ाने भर नहीं पूरा
स्कूल संभालने का
मतलब 
तीन कमरों में भरे
बीस-तीस बच्चे और
उन्हें पढ़ाने वाले
तीन चार अप्रशिक्षित 
युवक-युवतियां
मानदेय की राशि इतनी
कि 
घर से स्कूल तक
जाने-आने का खर्चा 
भी नहीं निकल पाए
| यशवंतपुर : जून 2010 | 
शायद 
अंदर ही अंदर
तुम कुंठित हो रहीं थीं
अवसाद में घिर रही
थीं
और तुम अनिद्रा का
शिकार होने लगीं थीं
याद है कि लगातार
पांच-छह रातें ऐसी बीतीं थीं
जब तुम सोईं नहीं थीं
मनोचिकित्सक की
सलाह लेनी पड़ी थी
उसने सुझाया था
दवाओं पर निर्भर न
रहें
अपने आत्मबल को
जगाएं
योग करें
जो है आपके पास उसे
पूरी तरह जिएं
जो नहीं है उसके
बारे में सोचकर समय 
जाया न करें 
तुमने जगाया था 
अपना आत्मबल
खुद ही खोज निकाला
था
एक योग केन्द्र 
और जाने लगीं थीं
वहां सुबह सुबह
देखते ही देखते 
अवसाद से उभर आईं थी
तुम
योग केन्द्र की
सबसे चहेती शिष्या
बन गईं थीं
जब दूसरे शिक्षक
नहीं आते थे,
तुम उनकी जिम्मेदारी
संभालने लगीं थीं
सचमुच 
योग ने तुम्हारे
अंदर एक
नई नीमा को जन्म
दिया था
आज की हकीकत यह है
कि 
तुम पिछले आठ सालों
से स्वयं एक
योग केन्द्र चला
रही हो
वह भले ही तुम्हें
‘अर्थ’ न दे पाया हो
पर उसने जिंदगी को
एक अर्थ दे दिया है
अपने को स्वस्थ्य
रखने के साथ साथ
औरों तक यह संदेश
पहुंचा रही हो 
इस बीच 
तुमने सीखा था
वर्गपहेली बनाना भी
यकीन करना ही होगा
कि शाम के एक अखबार
के लिए प्रतिदिन
तुमने दस साल तक
बनाई वर्गपहेली
और उसके मानदेय से 
आए हमारे घर में
फ्रिज,वाशिंग मशीन
दीवान और ऐसी तमाम
चीजें
और उससे भी महत्वपूर्ण
यह है कि 
वह खोया हुआ भाव कि 
तुम अकारथ नहीं हो 
| बंगलौर में उत्सव,कबीर के साथ : जुलाई,2012 | 
नीमा
घर से सोलह सौ
किलोमीटर दूर
जाने का आत्मविश्वास
तुमने ही दिया है मुझे
वहां बच्चों के बीच
मां और पिता की 
दोहरी जिम्मेदारी
तुमने ही उठाई है
अब इससे ज्यादा क्या
कहूं
कि तुमने एक व्यवहारिक
पत्नी की भूमिका 
हर पल निभाई है
हम अब तक साथ हैं
और रहेंगे
आज की बस इतनी सच्चाई
है। 
0 राजेश उत्साही 
 
 
प्यार से जो नाम पुकारा जाय वही सच्चा है बाकी दुनिया कुछ भी कहे,समझे ....
ReplyDeleteतस्वीरों के साथ कविता को देखना और पढना बहुत अच्छा लगा ...
मेरे हिसाब से नीमा जी के जन्मदिन का यह प्यारा तोहफा है .. उन्हें जन्मदिन के साथ नववर्ष की हार्दिक शुभकामनायें।
सादर
bhaiyya / bhaabhi lajawaab hai.
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