Tuesday, May 8, 2012

सवाल उठाता एक खुला खत


                                                                            फोटो : राजेश उत्‍साही
द हिंदुस्‍तान टाइम्‍स की एक घोषणा ने हमारा ध्‍यान खींचा,जिसमें यह मंशा जताई गई थी कि अखबार की हरेक प्रति‍ से होने वाली आय में से पांच पैसा भारत के गरीब बच्‍चों की शिक्षा पर खर्च किया जाएगा। हालांकि यह साफ नहीं है कि यह राशि किस तरह खर्च की जानी है। यह बात इसलिए महत्‍वपूर्ण है क्‍योंकि बच्‍चों की शिक्षा गाहे-बगाहे किया जाने वाला काम नहीं है। स्‍कूलीकरण एक ऐसा समग्र अनुभव है जो पाठ्यचर्या की बुनावट के जरिए बहुत सारे व चुनिंदा घटकों से मिलकर बना होता है,जिसमें ऐसे शैक्षिक लक्ष्‍यों को हासिल करने की कोशिश की जाती है ,जिसे कोई भी समाज अलग-अलग वक्‍तों पर अपने लिए खुद तय करता है।


द हिन्‍दुस्‍तान टाइम्‍स के 19 अप्रैल,2012 के अंक में तस्‍वीरों के साथ अंग्रेजी व हिंदी वर्णमाला दी गई थी। उसमें पाठकों से कहा गया था कि वे उन सभी पन्‍नों को काटकर,एक तस्‍वीर वाली वर्णमाला की पुस्तिका तैयार करें और उसे किसी गरीब बच्‍चे को पढ़ने हेतु प्रोत्‍साहित करने के लिए दें। हालां‍कि यह कदम बड़े ही नेक इरादों के साथ उठाया नजर आता है लेकिन यह साफ तौर पर एक भरमाने वाली,दिशाहीन और निरर्थक-सी कोशिश है। जिससे किसी भी गरीब बच्‍चे का कतई भला नहीं होने वाला है। हमारे पास इस बात को कहने के सामाजिक कारणों के साथ साथ शैक्षिक कारण भी हैं। शिक्षा के अधिकार विधेयक ने भारत के हरेक बच्‍चे का यह हक दिया हे कि उसे हर हाल में शिक्षा मिले। कुछ रहमदिल इंसानों द्वारा किए जाने वाले दयापूर्ण कामों से यह हासिल होने वाला नहीं है। यह समता के सिद्धांत पर टिका है,इसका मतलब है कि हरेक बच्‍चा गुणवत्‍ता वाली शिक्षा हासिल करने का हकदार है। इसे अच्‍छी तरह से सिर्फ संस्‍थानीकृत तौर तरीकों से ही किया जाना चाहिए। हकीकत में द हिंदुस्‍तान टाइम्‍स अपने पाठकों से अपील कर रहा है कि वे गरीब बच्‍चों पर तरस खाएं और कुछ वक्‍त निकालकर इन पन्‍नों की कतरनों से गरीब बच्‍चों के लिए भाषा की पहली पाठ्यपुस्‍तक बनाएं। यह सिर्फ रहम करने का मामला है जिसे कोई भी ऐसा इंसान स्‍वीकार नहीं कर सकता जिसमें रत्‍ती भर भी आत्‍मसम्‍मान हो। इस मुहिम को बनाने वालों को अपने आपसे यह सवाल जरूर पूछना चाहिए कि क्‍या वे अपने बच्‍चों के लिए भी यही करेंगे? अगर नहीं, तो यह गरीब बच्‍चों के लिए ठीक कैसे है? इस मुहिम को चलाने वालों के लिए यह जानना भी रोचक रहेगा कि वे इस बात का पता लगाने के लिए एक सर्वे करें कि उनके पाठकों में से कितनों ने हकीकत में इस तरसखाऊ काम को अंजाम दिया।

समता और समानता के मुद्दों के प्रति असंवेदनशीलता दर्शाने के अलावा,भाषा सिखाने के तौर तरीकों के‍ लिहाज से भी इस मुहिम की बुनावट दोषपूर्ण है। सन 2012 में भाषा के किसी भी शिक्षक द्वारा,भाषा सिखाने की पहली सामग्री के बतौर वर्णमाला की किताबों के इस्‍तेमाल का सुझाव नहीं दिया जाना चाहिए। आज भाषा सिखाने के तौर तरीके उस जमाने से काफी आगे बढ़ चुके हैं, जब भाषा सीखने के पहले कदम पर वर्णमाला का इस्‍तेमाल किया जाता था। अगर इस मुहिम को बनाने वालों ने राष्‍ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 और भाषा शिक्षण के फोकस समूह के पर्चे को पढ़ने की थोड़ी सी भी जहमत उठाई होती, तो उन्‍हें यह अहसास हो जाता कि अब भाषा शिक्षण के तौर तरीके काफी ज्‍यादा परिष्‍कृत हो चुके हैं। अगर दलील यह है कि भाषा शिक्षण के नवीनतम तरीकों से वंचित तबके के बच्‍चों को कम से कम इतना तो मिल रहा है तो फिर से यह बराबरी के संवैधानिक सिद्धांत का उल्‍लंघन है।

काफी मशक्‍कत के बाद हम ‘अ से अनार’ की निरर्थकता से दूर हट पाए हैं। यह देखना बहुत ही चिंताजनक है कि एक प्रमुख संचार माध्‍यम  उर्फ मीडिया समूह बिना विचारे इसमें फिर से जान फूंकने में लगा हुआ है।

पाठ्यपुस्‍तकें तो इसका सिर्फ एक हिस्‍सा भर हैं, भले ही वे कितनी ही अहम और सार्थक क्‍यों न हों। पाठ्यपुस्‍तकें बनाना सिर्फ काटने,चिपकाने व सिलने भर का ही काम नहीं है, बल्कि वे विषयवस्‍तु व बुनावट में समग्रता लिए होती हैं। एक बहुभाषीय संदर्भ में रहने वाले बच्‍चे के लिए भाषा की पहली किताब बनाने का काम बहुत भारी जिम्‍मेदारीपूर्ण चिंतन की मांग करता है और इस काम में भाषा शिक्षण के मुद्दों के लिहाज से अशिक्षितों और इस क्षेत्र में हुई हालिया शोधों से अनजान व्‍यक्तियों को हाथ नहीं डालना चाहिए। बच्‍चे के हाथों में उसकी पहली किताब एक संपूर्ण अनुभव होता है। उस पुस्‍तक को इस काबिल होना चाहिए कि वह बच्‍चे की इंद्रियानुभवों से बनने वाली समझ को प्रोत्‍साहित व जागृत कर सके। इसके अलावा बच्‍चे की शुरूआती पढ़ाई का काम अब काफी संजीदगी से लिया जाने लगा है। इस मुहिम को बनाने वालों के लिए अच्‍छा रहेगा कि वे राष्‍ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान व प्रशिक्षण परिषद और कई राज्‍यों द्वारा पहली और दूसरी कक्षा के लिए शुरू किए गए पढ़ने के कार्यक्रमों पर जरा एक नजर डाल लें। गरीब बच्‍चे एक पूरे सत्र भर चलने वाली व अच्‍छी तरह से बनाई गई गुणवत्‍ता पूर्ण पाठ्यपुस्‍तकों और पढ़ने की सामग्री के हकदार है, जिसे अखबारी कागज पर नहीं,अच्‍छी गुणवत्‍ता के कागज पर छापा जाना चाहिए।

अगर सामाजिक विविधता के नजरिए से देखें तो भी तस्‍वीर वाली वर्णमालाओं के पन्‍नों में जो छवियां इस्‍तेमाल की गई हैं,उसमें बच्‍चों की उस बहुत बड़ी आबादी को बाहर छोड़ दिया गया है,जिसका पालन पोषण एक ऊंची जाति के मर्दवादी हिंदू शास्‍त्रपंथी पंरपरा में नहीं हुआ है।

जिस गैरजिम्‍मेदाराना तरीके से यह पूरी मु‍हिम गढ़ी गई है,उससे एक बार फिर से इसके पीछे लगे दिमागों के बारे में यह सवाल उठता है कि क्‍या वे सचमुच शैक्षिक तंत्र की मदद करने के अपने इरादों को लेकर संजीदा हैं? अगर हां, तो उन्‍हें इस तरह की टोटकेबाजी में की जाने वाली और बट्टेखाते में जाने वाली फिजूलखर्ची के बजाय स्‍कूलीकरण के काम में लगी पेशेवर संस्‍थाओं को आर्थिंक मदद करनी चाहिए।
  • अपूर्वानंद,प्राध्‍यापक, दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय,सदस्‍य,भारतीय भाषाओं पर फोकस समूह,राष्‍ट्रीय   पाठ्यचर्या 2005
  •  कृष्‍णकुमार,प्राध्‍यापक, केंद्रीय शिक्षा संस्‍थान,दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय,पूर्व निदेशक,राष्‍ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान व प्रशिक्षण परिषद
  •  कुमार राणा,प्रतीची,कोलकाता
  •  शबनम हाश्मी,सदस्‍य,मौलाना आजाद शिक्षा प्रतिष्‍ठान (एमएईएफ),अहवाज का राष्‍ट्रीय मुक्ति आंदोलन(एनएलएमए)
  • विनोद रायना,सदस्‍य,राष्‍ट्रीय सलाहकार परिषद-शिक्षा का अधिकार
यह पत्र द हिंदुस्‍तान के संपादक को मूलत: अंग्रेजी में लिखा गया है। यह भावानुवाद कुछ मित्रों (रविकांत,प्रमोद,दिलीप) के सौजन्‍य से यहां तक पहुंचा।

9 comments:

  1. बिलकुल सही चिंता जतायी गयी है और सार्थक मुद्दे उठाये गए हैं इस पत्र में... ये मीडिया हाउस, अपनी सर्कुलेशन बढाने के लिए इस तरह की बातें करते हैं, उधर सरकार सिर्फ विधेयक लाने और क़ानून बनाने का दायित्व निर्वाह कर रही है..
    मेरी पुत्री के स्कूल में प्रति वर्ष मैं एक घोषणा-पत्र भरता हूँ कि यह मेरी एकमात्र संतान है और बालिका है.. कारण कि एकमात्र बालिका संतान कि शिक्षा निःशुल्क है.. मगर उसकी फीस की पुस्तिका कुछ अलग ही कहानी कहती है..
    रविवार को बालिका भ्रूण ह्त्या को लेकर एक बड़ा ही इमोशनल कार्यक्रम दिखया गया टीवी पर.. लेकिन गौर करें तो मुद्दों से इतर, वो आंसुओं का व्यापार है.. कार्यक्रम के अंत में एस.एम्.एस. करने का आग्रह और उसके पैसे एक ऐसे व्यापारी घराने को जायेंगे जिन्होंने खुद विवादित भूमि पर करोड़ों की अट्टालिका बना रखी है.. जिनका इतिहास ही गैरवाजिब तरीकों से व्यापार करने का रहा है..
    समाज के व्यापारियों का उसूल ही यही रहा है कि अपनी सारी काली करतूतों पर पर्दा डालने के लिए मंदिर बनवा दो या मज़ार पर चादर चढ़ा दो..
    जितनी सामाजिक संस्थाएं या गैर सरकारी संस्थाएं हैं वो काले धन को सफ़ेद करने में लिप्त हैं.. किसे समाज सेवा की चिंता है.. हमारी परम्परा तो कहती है कि दाहिने हाथ से दान करो तो बाएं को खबर नहीं हो.. लेकिन यहाँ तो जब तक ढिंढोरा न पीटा दान का तब तक क्या किया..!!
    नक्कारखाने में तूती की आवाज़!!

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    1. सलिल जी नेपथ्‍य से ऐसे बहुत से सवाल उठते हैं। और हम सब कहीं न कहीं उसके लिए जिम्‍मेदार या उसमें भागीदार हो ही रहे हैं।
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      आपने इमोशनल कार्यक्रम का जिक्र किया। बात तो उसमें मुद्दे की उठाई गई है,हालांकि उसके बारे में सब जानते हैं। पर टीवी के माध्‍यम से इस तरह जितने घरों में यह मुद्दा इस तरह पहुंचा होगा,वहां कम से कम कुछ तो चर्चा अवश्‍य ही हुई होगी। शायद कुछ को अपनी नजरें नीची भी करनी पड़ी होंगी।
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      मैंने इस कार्यक्रम को कल रात देखा,डाउनलोड करके। जहां तक मुझे याद है कि एसएमएस से होने वाली आवश्‍यक कर कटौतियों के पश्‍चात स्‍नेहालय नामकी एक संस्‍था को देने के बात कही गई है। जोकि ब‍ालिकाओं के लिए काम कर रही है। साथ ही यह घोषणा भी की गई है कि जितनी आय होगी,उतनी ही राशि एक अन्‍य फाउंडेशन द्वारा संस्‍था को दी जाएगी।
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      सलिल भाई आवाज तो आमिर खान की भी नक्‍कारखाने में तूती की ही है। मेरे लिए तो बड़ा सवाल यह है कि किसी न किसी तो कहीं से शुरूआत करनी ही होगी। कब तक सब हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे।

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    2. हां यह बात आपकी सही है कि कार्यक्रम में आंसू बहाऊ दृश्‍यों की भरमार थी। जिसकी शायद कोई जरूरत नहीं थी।

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    3. बड़े भाई! मुद्दे की बात नहीं, इमोशन की बात नहीं, इमोशन को टीवी पर भुनाने की बात है... वो एस.एम्.एस की डिटेल्स मैंने भी देखी थी.. आपको याद है वो फाउन्डेशन कौन सा है और उसके कर्ता-धर्ता कौन हैं..??
      प्रोग्राम में उठाया गया मुद्दा दिल दहलाने वाला था लेकिन आंसुओं की मार्केटिंग.. मुझे बर्दाश्त नहीं.. लिंक देने की आदत नहीं लेकिन एक लिंक देता हूँ..
      http://chalaabihari.blogspot.in/2010/06/blog-post_05.html
      आमिर खान की आवाज़ भी नकारखाने में तूती की आवाज़ जैसी है.. इस पर मैं कोई कमेन्ट नहीं करूँगा, एक चर्चा चाहिए इस विषय पर.. हाँ, उस मुद्दे पर जिन विशेषज्ञों के इंटरव्यू दिखाए गए या ऐसे किसी भी सामाजिक सरोकार के लिए ज़मीनी कार्रवाई और संघर्ष करने वालों को मैं सैल्यूट कर्ता हूँ.. जैसे विनोद रायना जी, जिनका पत्र आपने प्रकाशित किया!!

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  2. Rajesh bhaiya aur Bade bhaiya (bihari babu) kee baaton se puri tarah sahmat!

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  4. हाथी के दांत खाने के और दिखने के और

    नीरज

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