किशोरों का एक दल हवाओं और ठिठुरा देने वाले मौसम
से जूझते हुए एक खड़ी चट्टान पर रेंगता हुआ ऊपर चढ़ रहा था। ऊँचे हिमालय के पिछवाड़े
एक सँकरी चट्टानी दरार के आर-पार हवाएँ साँय-साँय करते हुए गुजर रही थीं। उस खड़ी
चट्टान पर टिके-टिके जब वे एक दूसरे को दुफन्दी गांठ लगाते हुए रस्सी से खुद की
सुरक्षा का इन्तजाम कर रहे थे, जज्बात अपने उफान पर थे, उत्तेजना भी अपने शबाब पर थी। तभी एक पर्वतारोही जोर से चिल्लाया, “टेंशन!”, यानी “मुझे कसके पकड़े रहो, वर्ना मैं गिर सकता हूँ!” और सब-के-सब उसकी मदद को जुट गए। होंठ भिंच गए,
शरीर सुन्न पड़ गए और चेहरे
सुर्ख हो चले। अगले पाँच मिनट सन्नाटे में बीते। इसी दौरान कगार पर लटका वह
संकटग्रस्त पर्वतारोही अपने पूरे जीवट के बूते कगार के ऊपर जा पहुँचा। उसकी इस
कोशिश के पूरा होते ही पूरी टीम खुशी से सराबोर हो गई। सबके चेहरों से राहत और
उल्लास छलके जा रहे थे। अन्दर का तूफान अब थम चला था। उनका सहपाठी सुरक्षित था और
वे अपनी ‘संयुक्त’ विजय मना रहे थे। अपने पीछे
खड़ी एक लड़की को मैंने उसकी दोस्त से यह कहते हुए सुना, “कितना अजीब है न - शशांक को कगार के ऊपर चढ़ते देख
मैंने राहत महसूस की। इस ट्रिप के पहले मैं उसे अपने आसपास बर्दाश्त नहीं कर सकती
थी। लेकिन आज, उसे सुरक्षित देख मुझे बहुत अच्छा लगा।”
उसकी इस बात से सहसा मुझे कर्ट हाह्न की बात याद हो
आई, “संकट में पड़े अपने
किसी साथी की मदद करने का अनुभव, या ऐसी मदद कर पाने के लिए हासिल यथार्थवादी प्रशिक्षण का अनुभव भी, एक युवा मन के भीतरी
शक्ति-सन्तुलन को कुछ इस तरह बदलने लगता है कि संवेदना, प्रधान प्रेरणा बन जाती है।” वाकई कितनी सही थी यह बात!
(अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन द्वारा प्रकाशित लर्निंग कर्व पत्रिका के 'शिक्षा में खेल' अंक में प्रकाशित निधि तिवारी के लेख से साभार।)
0 राजेश उत्साही