Wednesday, October 19, 2011

चम्‍पा और काले अच्‍छर : त्रिलोचन जी की कविता है


(मित्रो क्षमा चाहता हूं। 8 सितम्‍बर को पोस्‍ट की गई इस कविता के साथ नागार्जुन जी का नाम चला गया था। त्रिलोचन और नागार्जुन समकालीन कवि हैं। कम से कम मुझे इनमें से जब भी किसी एक की याद आती है तो बरबस दूसरा भी याद आ ही जाता है। यादों के इस घालमेल में उस समय यह चूक हो गई। आज कर्मनाशा वाले सिद्धेश्‍वर सिंह जी ने मेरा ध्‍यान इस ओर खींचा। मैं उनका बहुत बहुत आभारी हूं। कविता एक बार फिर से प्रस्‍तुत है।)
 
चम्पा काले-काले अच्छर नहीं चीन्हती
मैं जब पढ़ने लगता हूं वह आ जाती है

खड़ी-खड़ी चुपचाप सुना करती है

उसे बड़ा अचरज होता है:

इन काले चिन्हों से कैसे ये सब स्वर

निकला करते हैं
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चम्पा सुन्दर की लड़की है
सुन्दर ग्वाला है
 : गाय भैंसे रखता है
चम्पा चौपायों को लेकर

चरवाही करने जाती है
चम्पा अच्छी है
चंचल है

न ट ख ट भी है

कभी-कभी ऊधम करती है

कभी-कभी वह कलम चुरा लेती है

जैसे-तैसे उसे ढूंढ कर जब लाता हूं

पाता हूं - अब कागज गायब

परेशान फिर हो जाता हूं
चम्पा कहती है:
तुम कागद ही गोदा करते हो दिन भर

क्या यह काम बहुत अच्छा है

यह सुनकर मैं हँस देता हूं

फिर चम्पा चुप हो जाती है
उस दिन चम्पा आई, मैंने कहा कि
चम्पा
, तुम भी पढ़ लो
हारे गाढ़े काम पड़ेगा

गांधी बाबा की इच्छा है -

सब जन पढ़ना लिखना सीखें


चम्पा ने यह कहा कि
मैं तो नहीं पढ़ूंगी

तुम तो कहते थे गांधी बाबा अच्छे हैं

वे पढ़ने लिखने की कैसे बात कहेंगे

मैं तो नहीं पढ़ूंगी


मैंने कहा चम्पा, पढ़ लेना अच्छा है
ब्याह तुम्हारा होगा
, तुम गौने जाओगी,
कुछ दिन बालम संग साथ रह चला जाएगा जब कलकत्ता

बड़ी दूर है वह कलकत्ता

कैसे उसे संदेसा दोगी

कैसे उसके पत्र पढ़ोगी

चम्पा पढ़ लेना अच्छा है!
चम्पा बोली : तुम कितने झूठे हो, देखा,
हाय राम
, तुम पढ़-लिख कर इतने झूठे हो
मैं तो ब्याह कभी न करुंगी

और कहीं जो ब्याह हो गया

तो मैं अपने बालम को संग साथ रखूंगी

कलकत्ता में कभी न जाने दूंगी

कलकत्ते पर बजर गिरे।

 0 त्रिलोचन

14 comments:

  1. पुनः पढ़ ली, और भी अच्छी लगी।

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  2. जो टिप्पणी पहली पोस्ट पर दी थी वोही दुबारा यहाँ दे रहा हूँ...वैसे नाम में क्या है...रचना श्रेष्ठ होनी चाहिए

    "क्या कहूँ? इस अप्रतिम रचना ने टिपण्णी लायक छोड़ा ही कहाँ है...बेजोड़"

    नीरज

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  3. सादगी से भरी यह कविता हमेशा ही अच्छी लगेगी

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  4. चूक होने से बड़ी बात यह हुई कि ब्लॉग जगत में सिद्धेश्वर सिंह जैसे साहित्यकार हैं जो चूक की तरफ इशारा कर पाने में समर्थ हैं। पढ़ी तो हमने भी थी..कहां ध्यान दे पाये! बढ़िया किया आपने जो हम सब को जानने का मौका दिया।

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  5. बड़ी प्यारी रचना और निर्मल अभिव्यक्ति .....
    आनंद आ गया राजेश भाई !
    आभार स्वीकारें !

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  6. मैंने यह रचना आपके ब्लॉग पर पहली बार ही पढ़ी थी ... बहुत अच्छी लगी थी .. सही जानकारी देने के लिए आभार

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  7. पहली पंक्ति से लगा कि नागार्जुन ही होंगे. सो पता भी नहीं चला किसी को..वरना नागार्जुन जी की नई तरह की कविता पढ़ी कहकर कोई जरुर टिप्पणी करता.....पर चलिए आपकी गलती दुरुस्त होने के साथ-साथ हमारी जानकारी बढ़ गई.

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  8. बहुत सुन्दर कविता ! कितनी सहज सरल और साबलील भाषा है ...

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  9. इसी बहाने इतनी अच्छी कविता फिर पढी । संशोधित जानकारी के लिए आभार।

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  10. सिद्धेश्‍वर सिंह जी ने त्रुटी के ओर मेरा ध्‍यान खींचा, इसलिए एक बार फिर से इतनी बढ़िया कविता को पढने और समझने का अवसर मिला... कुछ रचनाएँ होती है ऐसी ही जिनमें अपने लिए कुछ नहीं होता बल्कि पूरी समाज के एक बहुत बड़े वर्ग को समर्पित होती है, जिन्हें सब देखते तो हैं लेकिन शिद्दत से समझ नहीं पाते हैं..
    सार्थक प्रस्तुति के लिए आभार!

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  11. सही जानकारी के लिये श्री सिद्धेश्वरजी और आपको धन्यवाद । पहले भी पढी गई यह कविता तो उत्कृष्ट है ही ।

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  12. prerak rachna prastut karne ke liye aabhar!

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  13. SHABD NAHI HAI MERE PAAS GOOLLK ME DAALNE KE LIYE. @ UDAY TAMHANEY. BHOPAL.

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जनाब गुल्‍लक में कुछ शब्‍द डालते जाइए.. आपको और मिलेंगे...