दून लिटरेचर फेस्टिवल 2016
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माइक पर राजेश उत्साही । मंच पर बाऍं से मनोहर मनु, मुकेश नौटियाल, उदय किरौला, दिनेश चमोला, उमेश चन्द्र सिरसवारी और शीश पाल सिंह |
देहरादून का प्रकाशन संस्थान ‘समय-साक्ष्य’ इस बात के लिए बधाई का हकदार है कि वह अपने सीमित संसाधनों में नामचीन साहित्यकारों को दो दिन के इस आयोजन में विमर्श के लिए बुलाने में कामयाब रहा। बधाई इस बात की भी बनती है कि साहित्य में विमर्श के परम्परागत सत्रों के साथ-साथ लोक साहित्य, आँचलिक साहित्य और कथेतर साहित्य पर भी सत्र थे। और सबसे महत्वपूर्ण बधाई इस बात की भी बनती है कि इस बड़े आयोजन में एक सत्र बालसाहित्य पर भी था।
सत्र के आयोजन की जिम्मेदारी युवा साहित्यकार मनोहर चमोली मनु को दी गई थी। उन्होंने विभिन्न स्रोत व्यक्तियों से बात करके समय-साक्ष्य के साथियों की सहमति से सत्र की रुपरेखा तय की थी। अलीगढ़ के उमेश चन्द्र सिरसवारी , पानीपत के शीश पाल सिंह, अल्मोड़ा के Udai Kirola Balprahri , देहरादून के दिनेश चमोला और Mukesh Nautiyal की उपस्थिति में अपन को बीज व्यक्तव्य देने की जिम्मेदारी मिली थी।
बाकी सब कुछ अच्छा ही हुआ, पर दो ऐसी बातें हुईं जिनसे थोड़ा व्यवधान हुआ। पहली तो यह कि पूरे आयोजन में एक ही ऐसा मौका आया, जब दो समानांतर सत्र रखे गए। संयोग या दुर्योग से वह बालसाहित्य के साथ था। समानांतर सत्र था ‘बाजार, मीडिया और लोकतंत्र’। इसका नुकसान दोनों सत्रों को हुआ, क्योंकि श्रोता दो हिस्सों में बँट गए। अधिकतर श्रोता दूसरे सत्र में थे। हमारा नुकसान भी हुआ, क्योंकि उस सत्र में हो रही चर्चा का लाभ हम भी उठाना चाहते थे। इसका उल्लेख 'कथेतर साहित्य' सत्र की चर्चा में शेखर पाठक जी ने भी किया। दूसरी बात यह कि सत्र के लिए दो घंटे का पर्याप्त समय था। पर उसके पहले जो सत्र था वह लगभग घंटा भर देर से शुरू हुआ था। अत: बालसाहित्य सत्र भी देर से शुरू हुआ। पूर्व योजना के अनुसार बालसाहित्य सत्र को 1.30 बजे तक समाप्त हो जाना था। उसके बाद भोजन अवकाश था। पर देर से आरंभ होने के कारण हमारा सत्र 2.30 तक चलता रहा। और यहाँ भी उसे लगभग जबरन समाप्त करना पड़ा। क्योंकि जिस शंहशाही आश्रम में यह आयोजन था, उसके भोजनालय में समय को लेकर अपने कड़े नियम हैं। 2.30 के बाद वे भोजनालय में ताला बंद कर देते हैं। बीच में बिजली चले जाने से कुछ देर के लिए सत्र रुका रहा। नतीजा यह कि इन सब कारणों की वजह से उमेश, मुकेश, शीशपाल जी और अध्यक्षता कर रहे उदय किरौला जी को अपनी बात रखने का न के बराबर समय मिला। न ही श्रोताओं के सवालों के जवाब दिए जा सके। हालाँकि अच्छी बात यह थी कि सत्र के बाद अनौपचारिक रूप से कई अलग-अलग लोगों ने हम लोगों से बातचीत की, अपने सवाल पूछे, जिज्ञासा शांत की।
हाँ, मुझे जो कहना था, वह मैंने मंच से कहा। पर कई सारी बातें अन्य साथियों के लिए छोड़ी थीं, कि वे उन्हें अपने ढंग से अपने नजरिए से सामने रखेंगे। दिनेश जी भी जो कहना चाहते थे, उन्होंने कहा ही। मनोहर मनु सत्र संचालक की भूमिका में थे। योजना थी कि वे भी एक वक्ता की तरह अपना समय लेकर अपनी बात कहेंगे। पर उन्हें भी उतना ही समय मिला, जितना वे संचालन करते हुए बोले।
फिर भी संतोष इस बात का है कि हम अपनी बात उपस्थित समुदाय तक पहुँचाने में सफल रहे। संतोष इस बात का भी है कि ऐसे आयोजन में बालसाहित्य पर कुछ ध्यान खींचा गया। उम्मीद इस बात की कि भविष्य में होने वाले आयोजनों में इससे कुछ सबक लेकर बेहतर योजना बनाई जा सकेगी।
बहरहाल बातें और भी हैं, जो मैं अगली पोस्टों में साझा करूँगा। यहाँ मेरा वह बीज व्यक्तव्य प्रस्तुत है जो मैंने इस सत्र में दिया। अगर आपकी रुचि हो तो पढ़ें और विमर्श भी करें।
बाल साहित्य : चुनौतियाँ और संभावनाएँ : राजेश उत्साही
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साहित्य क्या है ? पुराना कथन है कि साहित्य समाज का दपर्ण है। जैसा समाज में होता है, साहित्य में वही प्रतिबिम्बबित होता है। सही मायने में साहित्य का रिश्ता हमारे जीवन से है। हमारे जीवन में, हमारे आसपास जो घटता है, उसे देखकर या उसे भोगकर हम दुखी या सुखी होते हैं। खुश होते हैं या उदास होते हैं। गुस्सा होते हैं या क्रोधित होते हैं। हँसते हैं, खिलखिलाते हैं, रोते हैं, चीखते हैं। और जब कभी इस सबका आख्यान हम कहीं लिखा हुआ पढ़ते हैं तो हमें वैसा ही महसूस होता है जैसा उसे देखते या भोगते हुए महसूस करते हैं।
जिस कविता,कहानी,नाटक,उपन्यास आदि को पढ़ते हुए हम ऐसा महसूस करते हैं कि उसने हमें अतीव आनंद दिया या कि हम उसमें डूब गए,दरअसल उसने हमें पाठक के रूप में वह स्वतंत्रता प्रदान की जो हमें मनुष्य होने के नाते हासिल होनी चाहिए। साहित्य वास्तव में हमें उन जंजीरों से मुक्त करता है, जिनमें हम अमूमन जकड़े होते हैं।
शिक्षाविद् कृष्ण कुमार के शब्दों में, ‘साहित्य एक अपेक्षित अर्थ को जानने का जरिया है – उसके जरिए कुछ रूपाकारों को, कुछ रूपकों को प्रचारित करने का माध्यम है।’
मेरा अपना मानना है कि बाल साहित्य जैसा अलग से कुछ नहीं होता है। हो सकता है कि मेरा यह कथन आपको चौंकाए, यह भी संभव है कि आप मुझसे सहमत न हों। बरसों से यह अवधारणा चली आ रही है और तमाम विद्वान इसे मानते भी हैं। पर मुझे लगता है कि इस पर एक अलग नजरिए से विचार किया जाना चाहिए। इसलिए मुझे जब भी मौका मिलता है मैं इस सवाल को सामने रखता हूँ। आज भी रख रहा हूँ।
इस संदर्भ में एक वाक्या 2011 का है। भोपाल में मशहूर बाल विज्ञान पत्रिका चकमक के 300 वें अंक के विमोचन समारोह का आयोजन था। इस अवसर पर वहाँ भी ‘बाल साहित्य की चुनौतियाँ’ शीर्षक से एक विमर्श रखा गया था। इसमें कई अन्य लोगों के अलावा जाने-माने फिल्मकार गुलज़ार साहब और कवि, लेखक प्रयाग शुक्ल जी भी मौजूद थे। चकमक की संस्थापक सम्पादकीय टीम का सदस्य होने के नाते मैं भी इस विमर्श में शामिल था। वहाँ मैंने यही बात कही। प्रयाग जी ने इसका प्रतिवाद किया। बहस आगे बढ़कर बाल साहित्य की गुणवत्ता पर पहुँची। गुलज़ार साहब ने इसका समाधान एक बहुत सुंदर कथन से किया। उन्होंने कहा कि, ‘अच्छा बाल साहित्य वह है जिसका आनंद बच्चे से लेकर बड़े तक ले सकें।’ अब आप सोचिए कि ऐसे साहित्य को आप किस श्रेणी में रखेंगे।
चलिए अब हम थोड़ी देर के लिए यह मान भी लें कि बाल साहित्य जैसा अलग से कुछ होता है। तो वह अच्छा क्या होगा ? गुलज़ार साहब की बात मानें तो निश्चित ही वह जिसमें बच्चों से लेकर बड़े तक अपने को देख सकें। पर दिक्कत यहीं से आरम्भ होती है। हम ज्यों-ज्यों बड़े होते हैं या बड़े होने लगते हैं, जीवन को देखने का हमारा स्वतंत्र बालसुलभ नजरिया गायब होने लगता है। हम जीवन को स्वतंत्रता से देखने की बजाय प्रचलित मान्यताओं, नियमों और प्रतिबंधों के साथ देखने लगते हैं। तथाकथित नैतिकता और उसके आदर्श हमारे सामने आ खड़े होते हैं। ऐसे में जब हम किसी भी रचना को यह मानकर रचते हैं कि वह बच्चों के लिए है, तब तो हमारे सामने तमाम और बंदिशें और शर्तें भी आन खड़ी होती हैं। जैसे रचना किस उम्र के बच्चे के लिए लिखी जा रही है, भाषा क्या होगी, परिवेश क्या होगा। जो हम कहने जा रहे हैं, उसे समझ पाने के लिए जरूरी अवधारणाएँ बच्चे में विकसित हो गई होंगी या नहीं आदि आदि। जाहिर है ऐसा नियंत्रित लेखन जो रचेगा वह कितना प्रभावी होगा कहना मुश्किल है।
मुश्किल यह भी है कि जब बच्चों के लिए कहकर लिखा जा रहा होता है तो ज्यादातर लेखक अपने अंदर के अतीत के ‘बच्चे’ को याद करके, ध्यान रखकर लिख रहे होते हैं। बिरले ही होते हैं जो अपने आसपास के समकालीन बच्चे को देखकर,सुनकर,समझकर, उसके स्तर पर उतरकर उसे अभिव्यक्त या संबोधित कर रहे होते हैं। मैं अपनी बात को और अधिक स्पष्ट करने के लिए अगर यह कहूँ कि प्रेमचंद ने ‘ईदगाह’ कहानी बाल साहित्य कहकर तो नहीं लिखी थी। लेकिन ‘ईदगाह’ एक ऐसी कहानी है जो आज की तारीख में बच्चों के बीच खूब पढ़ी जाती है। या मैं यह याद करूँ कि प्रेमचंद की ही ‘पंच परमेश्वर’ तो मैंने पाँचवी कक्षा की पाठ्यपुस्तक में पढ़ी थी। यानी केवल ग्यारह साल की उम्र में। तो क्या आप उसे बाल साहित्य की श्रेणी में रख देंगे। इसमें आप चंद्रधर शर्मा गुलेरी की मशहूर कहानी ‘उसने कहा था..’ को भी जोड़ लें जो मैंने दसवीं या ग्यारहवीं में पढ़ी थी, तो क्या वह किशोर साहित्य कहलाएगी। कुल मिलाकर मैं यह कहने की कोशिश कर रहा हूँ कि साहित्य केवल साहित्य होता है, उसे श्रेणियों में बाँटने से हम साहित्य का भला कम, नुकसान ज्यादा कर रहे होते हैं। इसलिए एक विचारवान,गंभीर और सर्तक लेखक का यह दायित्व है कि पहले वह केवल लिखे। ठीक है कि आज के बाजार की मांग है कि वह पाठक को ध्यान में रखे, पर उसे अपने ऊपर हावी न होने दे। तो एक तरह से पहली चुनौती यही है। और यह एक शाश्वत चुनौती है। इसका मुकाबला हर दौर में हर पीढ़ी को करना होगा। बाल साहित्यकार का टैग भी मुझे पसंद नहीं। उसको लेकर भी वही आपत्ति है जो बाल साहित्य कहने में है। साहित्यकार, साहित्यकार होता है, वह बाल,किशोर या फिर वयस्क साहित्यकार नहीं होता। बहरहाल यह आपके विचारार्थ है, आप भी इस पर विचार करें। मेरी बात से इतनी जल्दी सहमत या असहमत होने की आवश्यकता नहीं है।
अब मैं जो भी कहूँगा, आपकी सुविधा के लिए उसे यह मानकर ही कहूँगा कि वह बाल साहित्य के लिए ही कहा जा रहा है।
बाल साहित्य का सरोकार जिन तीन लोगों से है या जिसे अंग्रेजी में कहते हैं जो उसके ‘स्टेकहोल्डर’ हैं उनमें लेखक के अलावा पाठक या उसका उपयोग करने वाले के तौर पर बच्चा, बच्चे के अभिभावक या वे लोग जो इस साहित्य को बच्चे को उपलब्ध कराते हैं।
आइए इन पर एक-एक करके बातचीत करते हैं।
बच्चे हमारे साहित्य के पाठक हैं। पर बच्चों के बारे में या किसी भी बच्चे के बारे में हम वास्तव में कितना जानते हैं, इस पर हमें विचार करना चाहिए। पहली बात पाठक होने के लिए बच्चे का साक्षर होना आवश्यक है। बच्चों को साक्षर करने के लिए यानी उन्हें शिक्षा देने के लिए जिस स्तर पर प्रयास हो रहे हैं, वे सब हमारे सामने हैं। यहाँ थोड़ा-सा विषयांतर होगा, लेकिन हमें हमारी शिक्षा व्यवस्था को इस संदर्भ में टटोलना होगा,उसका परीक्षण और आकलन करना होगा। वास्तव में वह बच्चों को किस तरह से शिक्षित करती है। बल्कि कई मायनों में यह कहना ज्यादा बेहतर होगा कि वह बच्चे को शिक्षित होने से एक हद तक रोकती है।
इस संदर्भ में कृष्णकुमार कहते हैं कि, ‘बाल साहित्य की व्याप्ति के रास्ते में सबसे बड़ी रुकावट हमारी शिक्षा व्यवस्था का यह चरित्र है कि वह पाठ्यपुस्तक केन्द्रित है और पाठ्यपुस्तक के इर्द-गिर्द ही सारी शिक्षा व्यवस्था घूमती है। अध्यापक का सारा प्रयास उसके आसपास ही होता है, उसको लेकर ही रहता है। और शिक्षा व्यवस्था की जो धुरी है वह तो बिलकुल ही पाठ्यपुस्तक से चिपकी हुई चलती है। पाठ्यपुस्तक स्वयं परीक्षा व्यवस्था से पैदा होने वाले भावों से आवेशित हो उठती है। जो डर परीक्षा के बारे में सोचकर बच्चों को लगता है, वही डर शिक्षकों को पाठ्यपुस्तकों को देखकर लगने लगता है। क्योंकि उनको मालूम होता है कि यह वह चीज है जो मुझे उस समूह से,मेजोरिटी से बात करवाएगी। और वही चीज है जो पढ़ने का मन नहीं होता लेकिन फिर भी मुझे पढ़नी ही पड़ेगी। पाठ्यपुस्तक ऐसा प्रतीक बन गई है कि जिसके सामने दुनिया भर में फैला हुआ अनुभव-जगत,बच्चे का ज्ञान, बच्चे को मिलने वाली अपने जीवन की खुराक,उन सबका कोई मायना नहीं रहा। इसके जरिए ही हर चीज का परीक्षण होगा। इसके जरिए ही स्कूल चलेंगे, इसकी धुरी पर चलेंगे। और अगर आप सरकार की इन कोशिशों को देखें तो बहुत बड़ी कोशिश यही रहती है कि पाठ्यपुस्तक समय पर पहुँच जाए और उसकी पढ़ाई शुरू हो जाए।’
यहाँ यह बात रेखांकित करने की भी आवश्यकता है कि पिछले कुछ वर्षों में बच्चों को पाठ्यपुस्तकों के आतंक से मुक्त करने की तो नहीं, पर पाठ्यपुस्तकों को ऐसी बनाने की कोशिश जरूर हुई है जो बच्चों को कम आतंकित करें। हालाँकि मौजूदा दौर में यह प्रयास कहाँ तक जाएगा, कह नहीं सकते।
तो मूल बात यह है कि हमारा जो पाठक है, वह पाठ्यपुस्तक के आंतक से भरा हुआ होता है। इस बात को ठीक से और संवेदनशीलता के साथ समझने की जरूरत है। यहाँ उसके सामने चुनौती होती है कि कुछ और पढ़ना यानी पाठ्यपुस्तक से या फिर अपनी स्कूली शिक्षा से विमुख होना। लेकिन अगर पाठ्यपुस्तकों से इतर साहित्य उसे ऐसा कुछ दे रहा हो, जो उसे अपनी नीरस शिक्षा को और रोचक बनाने में भी काम आए तो फिर उसकी रुचि उसमें बढ़ेगी। लेकिन जाहिर है कि उसकी रुचि ऐसा कुछ पढ़ने में कतई नहीं होगी,जो उसे उन्हीं तमाम बंदिशों,उपदेशों, तथाकथित नैतिक मूल्यों की और घिसी-पिटी अवधारणाओं की ओर ले जाए, जो वह घर से लेकर स्कूल तक में लगातार सुनता और पढ़ता ही रहता है।
मैं यहाँ एक बार फिर कृष्णकुमार जी को याद करना चाहूँगा, वे कहते हैं कि, ‘हम सब लोग बाल साहित्य के शौकीन हैं, सोचते रहते हैं कि यह क्षेत्र क्यों लगातार दिक्कत पैदा करता है। मामला सिर्फ बाल साहित्य का नहीं है, कई और चीजों का भी है। कलाओं का मामला है। स्कूल में कलाओं की भी व्याप्ति नहीं हो सकी है। पुस्तकालय की व्याप्ति नहीं हो सकी है। हम बनाते जरूर हैं, इसमें पैसा भी खर्च होता है, लेकिन वह चीज दिखती नहीं है।’
मुझे लगता है इस दिशा में और जगह भी काम हुआ होगा, लेकिन पिछले दो-एक वर्ष से उत्तराखंड के स्कूलों में इस दिशा में उल्लेखनीय प्रयास हुए हैं, जिनके परिणाम भी बेहतर रहे हैं। शिक्षक और कवि Mahesh Punetha और उनके साथियों की पहल से स्कूलों में ‘दीवार पत्रिका’ का एक आंदोलन ही खड़ा हो गया है। मेरा मानना है कि इस पहल ने साहित्य और बच्चों के बीच की जड़ता को तोड़ने का काम किया है। चकमक बाल विज्ञान पत्रिका में सत्रह बरस तक संपादकीय जिम्मेदारी निभाने से प्राप्त अनुभव से मैं यह कह सकता हूँ कि बच्चे अपने हमउम्र साथियों का लिखा हुआ पढ़ना कहीं अधिक पसंद करते हैं। यह पसंद उनमें न केवल पढ़ने की, बल्कि अच्छा पाठक बनने की आदत को विकसित करती है। वह उनमें अपने को अभिव्यक्त करने के लिए भी प्रेरित करती है। दीवार पत्रिका शायद उन्हें यह मौका दे रही है। जहाँ वे खुद लिखते हैं, पढ़ते हैं, चर्चा करते हैं, समीक्षा करते हैं। वास्तव में यह प्रक्रिया उनमें एक पाठक के साथ एक लेखक के संस्कार भी रोप रही है। बच्चे की समझ के बारे में कई और बातें कही जा सकती हैं।
पर मैं यहाँ केवल वह कहूँगा, जो प्लेटो ने लगभग दो हजार साल पहले कहा था कि, ‘बच्चा दरअसल बड़ों के बीच एक विदेशी की तरह होता है। जैसे किसी विदेशी से जिसकी भाषा आपको न आती हो जब आप बात करते हैं तो आपको मालूम होता है कि मेरी कई बातें वो ठीक समझेगा, कई नहीं समझेगा या गलत समझ जाएगा। और जब वह बोलता है, अपनी भाषा में बोलता है और हमको उसकी भाषा नहीं आती तो हम उसकी पूरी बात नहीं समझ पाते। कुछ समझते हैं, कुछ नहीं समझते हैं, और इस तरीके से जो आदान-प्रदान होता है वह आधा-अधूरा होता है।’ हमें बच्चे को भी इस तथ्य को ध्यान में रखकर देखना और समझना चाहिए।
अब हम दूसरे स्टेकहोल्डर की बात करें। वे हैं साहित्य के वाहक यानी बच्चों के अभिभावक या फिर स्कूल। थोड़ी देर पहले हमने पाठ्यपुस्तकों की चर्चा के बहाने अपरोक्ष रूप से स्कूल की बात कर ही ली है। स्कूल की अपनी सीमाएँ और मजबूरियाँ हैं। उन पर और भी चर्चा हो सकती है।
अब यहाँ अभिभावक की बात करें। सीधे-सीधे साहित्य यानी किताबों तक बच्चों की पहुँच न के बराबर होती है। यानी एक तरह से किताब या साहित्य का चुनाव अभिभावक या फिर स्कूल के शिक्षक कर रहे होते हैं। मेरा अब तक अपना अनुभव यह कहता है कि अमूमन अभिभावक वह चुनते हैं जो उन्हें अच्छा लगता है, न कि बच्चे को। अभिभावक वह चुनते हैं जो उनके अपने संस्कार,मूल्य और विश्वासों को बल देता है, उनकी कसौटी पर खरा उतरता है। आमतौर पर ऐसा साहित्य जो बच्चों को कुछ नया करने,नया सोचने,सवाल उठाने या लीक से हटकर सोचने के लिए प्रेरित करे,मौका दे उसे अभिभावक पसंद नहीं करते। उन्हें लगता है उनके बच्चे उसे पढ़कर बिगड़ जाएँगे। बाल साहित्य की महत्ता, उसकी जरूरत और प्रासंगिकता पर अभिभावकों के बीच काम करने, उनकी संवदेनशीलता बढ़ाए जाने की जरूरत है। जैसे हम कहते हैं कि बच्चे की पहली पाठशाला घर है, तो उसी तर्ज पर बच्चे का दूसरा घर पाठशाला है। इस नाते में यहाँ शिक्षकों को भी इसमें शामिल करना चाहूँगा। अंतत: वे भी अभिभावक ही हैं।
उधर स्कूल में भी पुस्तकालय के माध्यम से जो बच्चों तक पहुँचता है, वह भी एक खास ढर्रे का साहित्य होता है। ऐसा नहीं है कि इस दिशा में कुछ काम नहीं हुआ है। पिछले सालों में एनसीईआरटी में ही कृष्णकुमार जी के निर्देशन में अच्छे बाल साहित्य के लिए एक सेल गठित किया गया था। जिसने बहुत मेहनत के बाद अच्छी किताबों की एक सूची जारी की थी। विभिन्न राज्यों में स्कूलों में उसके अनुरूप उन किताबों की खरीद भी हुई, वे पुस्तकालयों में पहुँची भी। तमाम स्कूलों में उनका उपयोग हो भी रहा है, हो भी रहा होगा। लेकिन जितना हुआ है, वह नाकाफी है। उस पर ध्यान देने की जरूरत है। इसे भी हमें एक चुनौती के रूप में सामने रख सकते हैं। जो सकारात्मक अनुभव हमें विभिन्न जगहों से प्राप्त होते हैं, सफलता की कहानियाँ सुनाई देती हैं, उन्हें केवल प्रसारित करने की नहीं बल्कि व्यवहारिक रूप में दुहराने की आवश्यकता है।
आइए अब तीसरे स्टेकहोल्डर यानी लेखक की बात करें। एक बार फिर चकमक के अपने अनुभव से ही यह कहना चाहूँगा कि ऐसे लोगों की संख्या अच्छी खासी है जो यह मानते हैं कि बच्चों के लिए लिखना तो उनके लिए बाएँ हाथ का खेल है। फेसबुक जैसे माध्यम ने इस संख्या में केवल बाल साहित्य ही नहीं अन्य क्षेत्रों में भी ऐसे लिक्खाड़ों की संख्या में इजाफा किया है। वास्तव में ऐसा है नहीं। जैसा कि मैंने आरंभ में कहा, अगर उसे दोहराऊँ कि गुलज़ार साब के शब्दों में अच्छा बाल साहित्य वह है जिसे पढ़ते हुए बच्चे से लेकर वयस्क तक आनंद महसूस करें। तो ऐसा साहित्य लिखने के लिए केवल बाएँ या दाएँ हाथ से काम नहीं चलेगा। अपने कान, अपनी आँखें, अपना दिमाग, अपनी समझ, अपनी सोच और अपना हृदय भी खुला रखना पड़ेगा।
इस संदर्भ में बाल साहित्य पर ऐसे आयोजन में पहली भागीदारी की एक याद मेरे मस्तिष्क में अब तक बसी हुई है। जहाँ तक मुझे याद पड़ता है यह 1987 की बात है। जाने-माने लेखक और पत्रकार मस्तराम कपूर जी ने ‘अखिल भारतीय जुवेनाइल लिटरेचर फोरम’ के बैनर तले बाल साहित्य पर चर्चा का एक आयोजन दिल्ली में किया था। मैं चकमक की ओर से इसमें भाग लेने पहुँचा था। तब चकमक आरम्भ हुए मात्र दो साल ही हुए थे। आयोजन में निरंकार देव सेवक, डॉ.श्री प्रसाद और डॉ. हरिकृष्ण देवसरे जैसे दिग्गज मौजूद थे। देवसरे जी उन दिनों पराग का संपादन कर रहे थे। देवसरे जी ने अपने संबोधन में एक महत्वपूर्ण बात कही। उन्होंने कहा कि,बच्चों को गौतम-गॉंधी बनने का उपदेश, सदा सच बोलो, मेरा देश महान, देश की राह में प्राणों की दो आहुति, मैं मातृभूमि पर कुर्बान जैसे जुमलों ही नहीं उसकी अवधारणा से बाहर निकलने की भी जरूरत है। बहुत हुआ। एक समय था जब सच में हमको इन सब जुमलों और इस अवधारणा की जरूरत थी। लेकिन अब उससे कहीं आगे बढ़ना है।’
खैर मेरे लिए तो उनकी यह बात लाइटहाउस के समान थी, जिसका पालन मैंने चकमक में किया। पर लगभग तीस-पैंतीस साल बीत जाने के बाद भी ऐसा लगता है कि अपने लेखन में इस तरह के जुमलों और अवधारणाओं का उपयोग करने वालों की संख्या में कमी नहीं आई है। या कहूँ कि इन्हें दरकिनार करके बेहतर सकारात्मक, वैज्ञानिक दृष्टिकोण से परिपूर्ण साहित्य रचने वालों की संख्या में पर्याप्त इजाफा नहीं हुआ है। यहाँ उदय किरौला जी बैठे हैं। वे एक बरसों से एक बाल पत्रिका ‘बाल प्रहरी’ का संपादन कर रहे हैं। वे भी इस समस्या से जूझते होंगे। मेरा मत है कि इसमें केवल इस तरह का लेखन करने वालों की ही कमजोरी नहीं है, उसे छापने वाले भी बराबरी के जिम्मेदार हैं। तमाम लघु बाल पत्रिकाएँ निकल रही हैं, अखबारों में रचनाओं को जगह दी जा रही है। लेकिन क्या उनमें व्यक्त किए जा रहे विचारों,मूल्यों और अवधारणाओं पर पर्याप्त विमर्श किया जा रहा है। यह मेरे लिए एक सवाल है। क्षमा करें, पर बच्चों के लिए लिखी गई ऐसी दस कविताओं में से मुझे कोई एक या दो ही उपयोगी लगती हैं। यही हाल कथा साहित्य का है। तो चुनौती लेखक की अपनी क्षमतावृद्धि की भी है। केवल लिखना ही नहीं, उसे पढ़ना भी होगा। और पढ़ने से आशय केवल बाल साहित्य से नहीं है, हर तरह के साहित्य से है।
मैं दो और बातें संक्षेप में रखना चाहूँगा।
पहली बात, मेरा मानना है कि लेखक की अपनी एक राजनैतिक समझ भी होनी चाहिए, तभी वह अपने लेखन के साथ न्याय कर सकता है। असल में हम जिन मुद्दों पर लेखन में कमी देखते हैं,दरअसल वह अपरिपक्व या अधकचरी राजनैतिक समझ के कारण ही उपजती है। यहाँ राजनैतिक समझ का मतलब ‘पार्टी राजनीति’ नहीं है। लेखक को जाति, जेंडर, समानता, धर्म,संप्रदाय,राष्ट्र,गरीब होने का अर्थ, आर्थिक गैरबराबरी आदि अवधारणाओं पर अपनी एक सुचिंतित समझ बनाने की जरूरत है।
दूसरी बात, साहित्य की तमाम छोटी-बड़ी पत्रिकाएँ निकलती हैं, उनमें से कई आला दर्जे की हैं, लेकिन उनमें भी बाल साहित्य को लेकर कोई चर्चा नहीं होती। कोई लेख नहीं छपते। बच्चों की किताबों की कोई समीक्षा नहीं होती। कायदे से जो लोग बच्चों के लिए नहीं लिख रहे हैं,उन्हें कम से कम बच्चों के लिए लिखे जा रहे समकालीन साहित्य पर अपनी टिप्पणी तो करनी ही चाहिए। क्योंकि उनकी पत्रिकाओं के लिए भी कल के पाठक आज के बच्चे ही होंगे। अगर उन्हें अच्छा साहित्य पढ़ने को नहीं मिलेगा, तो वे कल इन पत्रिकाओं तक भी नहीं पहुँचेगे। दूसरी तरफ अगर हमें हमारे बाल साहित्य को अधिक सार्थक और ऊर्जावान बनाना है तो इस दिशा में प्रयास करने होंगे, साहित्यिक पत्रिकाओं में अपनी उपस्थिति दर्ज करानी होगी। वहाँ बाल साहित्य पर विमर्श बढ़ाना होगा।
मुझे लगता है चर्चा आरंभ करने के लिए इतना पर्याप्त है। बाकी और जो तमाम सवाल हैं, वे आप सब उठाएँगे ही, जोड़ेंगे ही। (फोटो सौजन्य : Kanta Roy)