Monday, February 17, 2014

विश्‍व पुस्‍तक मेले में आबिद सुरती के साथ एक शाम




एकलव्‍य में रहते हुए कई पुस्‍तक मेलों में गया। दिल्‍ली में हुए पहले विश्‍व पुस्‍तक मेले में भी भाग लिया। फिर पटना और इंदौर में आयोजित मेलों में भी। लेकिन इन सब मेलों में भागीदारी एकलव्‍य के स्‍टॉल पर व्‍यवस्‍थाएं संभालने के लिए होती थी। यह पहला मौका था, जब मैं पुस्‍तक मेला देखने,घूमने, मित्रों से मिलने के लिए गया था। हालां‍कि बाकी सब कुछ वैसा ही था। वही गांधी शांति प्रतिष्‍ठान में एकलव्‍य के साथियों के साथ ठहरा था। उन्‍हीं के साथ भोजन, चाय,गप्‍प और आईटीओ चौराहे को पार करते हुए प्रगति मैदान में आना-जाना। पुस्‍तक मेले में भी थोड़े थोड़े अंतराल पर एकलव्‍य के स्‍टॉल पर जाना,किसी परिचित को ले जाना। बस कुछ अंतर था तो इतना कि मुझे स्‍टॉल में बैठना या खड़े रहना या वहां की व्‍यवस्‍थाएं नहीं संभालना था।

विश्‍व पुस्‍तक मेले,2014 में आने का कार्यक्रम भी अचानक ही बन गया था। अपने कार्यालयीन काम से देहरादून जाना था और वहां से लौटकर बंगलौर के बजाय भोपाल ही आना था। बीच की तारीखों में पुस्‍तक मेला शुरू हो रहा था। तो बस यह सुखद समय निकल आया। आवास के लिए एकलव्‍य के साथियों से बात की। उन्‍होंने कहा, स्‍वागत है। पता चला था कि इस बार विश्‍व पुस्‍तक मेले में चिल्‍ड्रन लिटरेचर को मुख्‍य थीम बनाया गया है। नेशनल बुक ट्रस्‍ट में सह संपादक और मित्र पंकज चतुर्वेदी को फेसबुक में संदेश भेजा, कि मैं दो दिन पुस्‍तक मेले में हूं। कहीं मेरा उपयोग कर सकते हो तो कर लो। पंकज भाई ने चिल्‍ड्रन पेवेलियन के प्रभारी मानस रंजन महापात्र तक यह संदेश पहुंचाया। मानस जी भी परिचित और मित्र हैं। उन्‍होंने भी कहा, राजेश भाई स्‍वागत है।

अगले ही दिन नेशनल बुक ट्रस्‍ट से औपचारिक निमंत्रण भी आ गया। मुझे 16 फरवरी की शाम को ‘‍कथासागर पंडाल में लेखक से मिलिए कार्यक्रम में रहना था। निमंत्रण में कहा गया था कि आप अपनी 10 प्रकाशित पुस्‍तकें साथ ले आएं। अब अपनी तो गिनती की 3 पुस्‍तकें, 5 कविता पोस्‍टर भर ही प्रकाशित हुए हैं। बाकी सारा काम तो संपादन का ही रहा है, चकमक संपादन का, गुल्‍लक संपादन का, चित्रकथा पुस्‍तकें संपादन का। और जो कुछ है भी वह तो भोपाल में रखा था । मैं तो देहरादून में था। फिर से मानस जी को संदेश भेजा। उन्‍होंने कहा, जितना ला सकते हों ले आएं।  बहरहाल भोपाल में कबीर से बात की। बंद डिब्‍बों में से कुछ चीजें निकलवाईं। उन्‍हें एकलव्‍य के साथी शिवनारायण भोपाल से अपने साथ लेकर आए। देहरादून में पहले रूम टू रीड में कार्यरत रहे और अब अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन के साथी प्रदीप डिमरी से चर्चा की। रूम टू रीड ने कविता पोस्‍टर और एक फिल्‍पबुक और एक कहानी की किताब प्रकाशित की है। प्रदीप के पास फिल्‍प बुक खट्टा-मीठा मिल गई।

पुस्‍तक मेले में जाकर सबसे पहले मानस रंजन महापात्र को खोजा और उन्‍हें अपने वहां होने की सूचना दी। उन्‍होंने कहा कि 16 की शाम को आपका कार्यक्रम आबिद सुरती जी के साथ है। यह सूचना मेरे लिए और अधिक उत्‍साह बढ़ाने वाली थी। मानस जी ने कहा कि आपके पास जो कुछ भी सामग्री है, वह आप कल सुबह लाकर दे दीजिए। साथ ही कुछ चकमक की प्रतियां भी। मैंने वही किया। 

नेशनल बुक ट्रस्‍ट ने बहुत मेहनत से कथासागर का पंडाल बनाया है। उसमें सुबह  11 बजे से रात 8 बजे तक विभिन्‍न कार्यक्रम लगातार आयोजित होते रहते हैं। खुले मंच के सामने दर्शकों के बैठने की व्‍यवस्‍था है। उसके आजूबाजू गैलरी में विभिन्‍न भाषाओं का बालसाहित्‍य बहुत करीने से प्रदर्शित किया गया है। उनके थीम पोस्‍टर बनाए गए हैं। इसमें एकलव्‍य की किताबें भी हैं। एक कोना डॉ. हरिकृष्‍ण देवसरे पर केन्द्रित है। उसमें उनके फोटो तथा पुस्‍तकें रखी गई हैं। एक कोना जाने माने चित्रकार पुलक विश्‍वास पर केन्द्रित है।

शाम हुई। कार्यक्रम शुरू होने में समय था। आबिद जी ने कहा, उनके पास उन पर केन्द्रित एक फिल्‍म है। तब तक उसे देखा जा सकता है। लगभग 10 मिनट की फिल्‍म देखी गई। इस दौरान मैं और आबिद जी साथ बैठे थे। आबिद जी से आटोग्राफ लेने वालों और उनके साथ फोटो खिंचवाने वालों का तांता लगा था। पुस्‍तक मेले में इस्‍लामाबाद से आए एक जनाब वाजिद जी से भी रहा नहीं गया। वे भी आबिद जी को दुआ-सलाम करने चले आए। 

कार्यक्रम शुरू हुआ। मानस जी ने शुरूआती परिचय के बाद, माइक मेरे हाथ में थमा दिया। मेरी तारीफ में वे जितना अधिक से अधिक बोल सकते थे, बोले। इस तारीफ में सारा संदर्भ चकमक का था। असल में चकमक का संपादन ही मेरे काम का असली परिचायक रहा है। तो जब मैं बोलने खड़ा हुआ तो उसमें भी चकमक ही थी। संक्षिप्‍त परिचय के बाद मैंने अपनी प्रसिद्ध कविता आलू,मिर्ची,चाय जी, कौन कहां से आए जी पढ़कर सुनाई। और फिर माइक आबिद सुरती जी को थमा दिया। 

अब आबिद सुरती ठहरे कार्टूनिस्‍ट। आरंभ में उन्‍होंने पानी बचाने को लेकर अपने अभियान के बारे में कुछ बताया। फिर दर्शकों से अनुरोध किया कि वे जरा पास आ जाएं। शाम के इस कार्यक्रम में बच्‍चे होते तो हैं, पर वे अपने अभिभावकों के साथ।
आबिद जी सीधे बच्‍चों से मुखातिब हुए। पूछा, कौन कौन कार्टून बनाना नहीं जानता। एक साथ बहुत सारे बच्‍चों के हाथ खड़े हो गए। उन्‍होंने सब बच्‍चों को आगे बुलाया। सबको एक-एक ड्राइंग शीट दी गई। सब बैठने के अपने मूड़े़ साथ ले आए। मंच उनके लिए टेबिल हो गया। बच्‍चों के बीच स्‍केच पेन,क्रियोन्‍स बांट दिए गए। आबिद जी ने कहा, जब तक मैं न कहूं तक तब तक कुछ न बनाएं। फिर उन्‍होंने सबसे छोटे बच्‍चे को अपने पास बुलाया। संयोग से यह बच्‍चा मित्र अरुण चंद्र रॉय का बेटा था। उससे उन्‍होंने कहा कि वह कागज पर अंडा बनाए। फिर उसी से आंखें बनवाईं और फिर स्‍माइली। जब चित्र बन गया तो बच्‍चे की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। 

उसके बाद तो बकायदा कार्टून बनाने की कार्यशाला शुरू हो गई थी। अपनी भूमिका भी दर्शक की थी। पर अपन ने मंच नहीं छोड़ा। छोड़कर जाते भी कहां। और फिर अपन वैसे भी संपादक ठहरे। काम तो अपना भी बच्‍चों से अभिव्‍यक्त करवाना ही रहा है। वे चाहे लिखकर अभिव्‍यक्‍त करें या फिर चित्र बनाकर। सो यहां वही हो रहा था। 

आबिद जी ने पहले चेहरों के प्रकार बनाकर बताए, फिर नाक के ,आंख के और फिर कान के। फिर उन्‍होंने शरीर के आकार की बात की। उनका बताने का तरीका बहुत रोचक था। वे कैनवास पर कागज की शीट पर मार्कर से आकृतियां बनाते जा रहे थे और साथ ही साथ बच्‍चों से बात भी करते जा रहे थे। वे बच्‍चों से ही पूछते जा रहे थे कि किस तरह की नाक बनाई जाए या कान बनाए जाएं। बच्‍चे बहुत ध्‍यान से यह सब सुन और देख रहे थे।

जब आबिद जी यह सब बता चुके तो उन्‍होंने बच्‍चों से कहा कि अब सब बच्‍चे अपने पापा का चेहरा बनाएं। एक बच्‍ची ने पूछा कि क्‍या मम्‍मी का चेहरा नहीं बना सकते। आबिद जी बोले बना सकते हैं, पर पुरुषों का कार्टून ज्‍यादा अच्‍छा बनता है। उन्‍होंने बच्‍चों से कहा कि अपने पापा का चेहरा याद करें, उनके चेहरे पर कोई तिल है, मूंछ है, दाढ़ी है, वह सब बनाना है। ध्‍यान दें कि चेहरा तिकोना है,गोल है, चौकोर है। आंखें कैसी हैं।

बच्‍चे अपने-अपने पापा के चेहरे का अवलोकन करने में जुटे थे। कोई पापा की आंख देख रहा था, तो कोई नाक। जिसके पापा साथ नहीं थे, वह चेहरा याद कर रहा था। मंच पर चल रही इस रोचक गतिविधि का प्रसारण बाहर बड़ी स्‍क्रीन पर हो रहा था, वहां देखकर लगातार नए नए बच्‍चे इसमें जुड़ने आते जा रहे थे।

जब सब बच्‍चों ने अपना चित्र पूरा कर लिया तो बारी थी उस पर फीडबैक देने की। आबिद जी ने बारी बारी से हर बच्‍चे को उसकी कृति के साथ मंच पर बुलाया। साथ में उसके पापा को भी। दर्शकों से कहा, पहले पापा को देखें और फिर उन्‍हें बच्‍चे द्वारा बनाया गया चित्र दिखाया गया। असली चेहरे और उसके चित्र की तुलना की गई। कुछ बच्‍चों ने अपने भाई का चित्र बनाया था।

आबिद जी ने बच्‍चों को भरपूर रूप से प्रोत्‍साहित किया। उन्‍होंने बच्‍चों से कहा, अगर कुछ कमी रह गई है, तो घर जाकर ध्‍यान से अपने पापा का चेहरा देखना और फिर से बनाना।

यह गतिविधि सचमुच इतनी रोचक थी, कि अगर समय की पाबंदी नहीं होती तो शायद यह रात के दस बजे तक चलती रहती। साढ़े सात बजे इसे बंद करना पड़ा। इस गतिविधि का सबसे महत्‍वपूर्ण पहलू यह था कि इसमें केवल बच्‍चे नहीं उनके अभिभावकों भी शामिल थे। नतीजा यह था कि कार्यक्रम समाप्‍त हो गया था, लेकिन दो माताएं अपने बच्‍चों के लिए और अधिक मार्गदर्शन चाहती थीं। कुछ कोशिश आबिद जी ने की, कुछ मैंने।

तो इस तरह विश्‍व पुस्‍तक मेले में आबिद सुरती के साथ मंच साझा करना और बच्‍चों की रचनात्‍मकता का गवाह बनना मेरे लिए अमूल्‍य अनुभव रहा। 

                                                    0 राजेश उत्‍साही

4 comments:

  1. बच्चों को उत्साहित करना दैवीय कार्य है..

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  2. मैं इस बार पुस्तक मेले में नहीं जा पाया....दिल्ली में अभी हूँ नहीं..और आपकी इस पोस्ट से थोड़ा मिस कर रहा हूँ दिल्ली में रहना !! रहता दिल्ली में मैं तो मैं भी मिल लेता आबिद सुरती जी से और आपसे भी !

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  3. आबिद सुरती जी का यह अंदाज पसंद आया. मैं उनके कार्टून्स ढब्बू जी के जमाने से पसंद करता हूँ. हंस में उनकी कुछ कहानियां भी पढ़ी हैं.

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  4. दिल्ली में हूं..अति व्यस्त सा ..शनिवार को मेले जा रहा हूं

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जनाब गुल्‍लक में कुछ शब्‍द डालते जाइए.. आपको और मिलेंगे...