Tuesday, July 17, 2012

अराजक मानसिकता

चित्रकार : एम एस मूर्ति, बंगलौर सिटी रेल्‍वे स्‍टेशन की चित्र गैलरी से 

प्रख्यात शिक्षाविद् और एनसीईआरटी के डायरेक्टर रहे प्रोफेसर कृष्ण कुमार विभिन्‍न विषयों पर लिखते भी रहते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत संस्था एकलव्य ने कृष्ण कुमार के लेखों और टिप्पणियों का संग्रह ‘दीवार का इस्तेमाल और अन्य लेख’ कुछ बरस पहले प्रकाशित किया था।
उसके विमोचन के अवसर पर मैंने संग्रह की एक टिप्‍पणी को आधार बनाते हुए एक लेख लिखा था,लेकिन वह कहीं प्रकाशित नहीं हुआ। गौहाटी की घटना से वह लेख याद हो आया। लेख का संपादित अंश यहां प्रस्‍तुत है।
(यह लेख 9 अगस्‍त को नई दुनिया में एंग्री युवा और ट्रेंडस शीर्षक से इस ब्‍लाग से लेकर प्रकाशित किया गया है।)

Sunday, July 15, 2012

सत्‍यमेव जयते


यहां बंगलौर में घर में टीवी नहीं है। एक पड़ोसी दोस्‍त के यहां सत्‍यमेव जयते देख रहा हूं। 15 जुलाई का एपीसोड बुजुर्गों पर था।

नेशनल प्रोग्राम में अनजाने में किस तरह गलत मूल्‍य या परम्‍परा को मजबूत करने वाले संदेश चले जाते हैं यह शायद सब समझ ही नहीं पाते। प्रोग्राम बनाने वाले भी नहीं।

Thursday, July 12, 2012

दारासिंह के बहाने



                                                                                                         गूगल से साभार 

उन दिनों यानी 1970 के आसपास मध्‍यप्रदेश के मुरैना जिले के सबलगढ़ कस्‍बे में रहता था। कस्‍बे में केवल एक सिनेमाघर था जिसे हम लक्ष्‍मी टॉकीज के नाम से जानते थे। (इंटरनेट पर सर्च करने से पता चलता है कि वह अब भी है।) जब भी कोई नई फिल्‍म लगती, एक साइकिल रिक्‍शा कस्‍बे की गलियों में घूमता नजर आता। रिक्‍शे के दोनों तरफ दो छोटे होर्डिंग लगे होते और उस पर फिल्‍म के पोस्‍टर। अंदर बैठा एक आदमी लाउड स्‍पीकर पर फिल्‍म के बारे में, उसके अभिनेता और अभिनेत्री के बारे में अपनी स्‍टायलिश आवाज में बताता। वह उन दिनों के लोकप्रिय एनाउंसर अमीन सयानी से अपने आपको कम नहीं समझता था। जब बोलते-बोलते थक जाता तो ग्रामोफोन पर फिल्‍म के गाने भी बजा देता। सबलगढ़ ही नहीं हर कस्‍बे में लगभग इसी तरह फिल्‍म का प्रचार किया जाता था। रिक्‍शे को देखते ही पहले हम उसके पीछे-पीछे दौड़ते फिल्‍म के परचे पाने के लिए और उसके बाद दौड़ पड़ते टॉकीज की ओर वहां लगे बडे होर्डिंग को देखने के लिए।