Thursday, September 8, 2011

नागार्जुन: चम्‍पा और काले अच्‍छर


कृपया यह पोस्‍ट देखें। 

20 comments:

  1. क्या कहूँ? इस अप्रतिम रचना ने टिपण्णी लायक छोड़ा ही कहाँ है...बेजोड़

    नीरज

    ReplyDelete
  2. गुरुवर, आपकी रचना पर हमसे टिप्पणी नहीं होती ....

    ReplyDelete
  3. चम्पा ठीक ही कहती है।

    ReplyDelete
  4. गुरुदेव!! वारी जाऊं इस कविता पर..कमाल का क्लाइमेक्स है!!

    ReplyDelete
  5. कलकत्ते पर बजर गिरे

    कितनी मासूम सी कविता है..पढवाने का शुक्रिया

    ReplyDelete
  6. बहुत शुक्रिया !!

    ReplyDelete
  7. आज भी स्थिति नहीं बदली है. चंपा है, काले अक्षर हैं, कलकाता है, अब तो बम्बई और दिल्ली भी हो गए हैं... चंपा का बालम जा भी रहा है.. लेकिन ना तो कलकाता पर बजर गिर रहा है ना ही कविताओं में वे सरोकार दिख रहे हैं... नागार्जुन को नमन....

    ReplyDelete
  8. बहुत सुन्दर मासूमियत भरी रचना..
    बचपन यह अबोधता बाद में कई अवसरों पर खटकती है....
    बहुत बढ़िया सन्देश देती रचना प्रस्तुति के लिए आभार!

    ReplyDelete
  9. सर जी मै तो बहुत दिनों के बाद आपका कविता पढ़ रहा हूँ हमें इतना बढ़िया कविता पढने को मिला. धन्यवाद सर जी ...

    ReplyDelete
  10. सुंदर, सामयिक प्रस्तुति के लिए आभार ।

    ReplyDelete
  11. बाबा नागार्जुन कि कविता पढवाने के लिए आभार

    ReplyDelete
  12. इस सादगी पै कौन न मर जाए ये खुदा ....
    शुभकामनायें आपको !

    ReplyDelete
  13. मन को गहरे तक छू गई एक-एक पंक्ति...

    ReplyDelete
  14. विदेशिया की याद आ गई...

    ReplyDelete
  15. ....कलकत्ते पर बजर गिरे।

    ....समापन के इस अंदाज से बजर कविता पर नहीं पाठक पर गिरता है। दिल धक्क से रह जाता है। इतनी सादगी से भी बजर गिराया जा सकता है, सीख मिलती है।

    ReplyDelete
  16. कलकत्ते पर बजर गिरे।
    कितने निश्चल भाव हैं.

    ReplyDelete
  17. क्या-क्या देखा, क्या कहते हैं!
    बाबा का अन्दाज़ निराला ...

    ReplyDelete
  18. नागार्जुन : चम्‍पा और काले अच्‍छर ?

    ReplyDelete

जनाब गुल्‍लक में कुछ शब्‍द डालते जाइए.. आपको और मिलेंगे...