Friday, September 2, 2011

अपने मियां मिठ्ठू

जाकिर अली 'रजनीश' से उस समय से परिचय है जब यह ब्‍लाग की दुनिया बनी नहीं थी। वे बालसाहित्‍य में नए-नए लेखक के रूप  में उभर रहे थे। मैं चकमक की सम्‍पादकीय टीम में था। साहित्‍य का हिस्‍सा एक तरह से मेरे ही जिम्‍मे था। चकमक के 100 अंक पूरे होने वाले थे। जाकिर की कई रचनाएं मैंने सखेद वापस कर दी थीं। एक दिन उनका एक तल्‍ख पत्र मिला। जिसमें उन्‍होंने लिखा था कि आप शायद नामचीन लोगों की रचनाएं ही प्रकाशित करते हैं। जिनके नाम के आगे डॉक्‍टर लगा होता है उनसे आप बहुत जल्‍द प्रभावित हो जाते हैं। वास्‍तव में ऐसा था नहीं। लेकिन इस बात को समझाना बहुत मुश्किल काम था और वह भी एक उभरते हुए लेखक को। 
*
लेकिन इसी तारतम्‍य में एक और वाकया याद आ रहा है। कानपुर के जानेमाने बालसाहित्‍यकार डॉ. राष्‍ट्रबंधु भी उन्‍ही दिनों लगातार चकमक के लिए अपनी रचनाएं भेजते थे। वे चकमक की कसौटी पर खरी नहीं उतरती थीं। नतीजा सखेद वापसी। यह राष्‍ट्रबंधु जी का बड़प्‍पन था कि वे नाराज नहीं होते थे। एक समय ऐसा आया कि उनका भोपाल आना हुआ। वे चकमक के कार्यालय भी आए। मिले तो उन्‍होंने अपनी दो कविता डायरियां मेरे सामने रख दीं और कहा,' राजेश तुम्‍हें इसमें से जो कविताएं चकमक के लिए उपयुक्‍त लगें वे ले लो। मैं दो-तीन दिन भोपाल में हूं। आराम से पढ़ लो, जल्‍दी नहीं है।' मुझे कहने में कोई संकोच नहीं है कि उन दो डायरियों में से मैं केवल दो रचनाएं ही चुन पाया। राष्‍ट्रबंधु जी ने भी इस बारे में कुछ नहीं कहा। असल में वे सम्‍पादक की सत्‍ता को न केवल स्‍वीकार करते हैं वरन् उसका सम्‍मान भी करते हैं।लेकिन यह समझ हम सबमें एक समय के बाद ही आती है। इनमें से उनकी एक कविता चकमक के 100 वें अंक में प्रकाशित हुई थी।
 *
जाकिर को कहने के लिए मेरे पास कुछ नहीं था। अलबत्‍ता उनकी किसी रचना को चकमक में प्रकाशित करने का अवसर मुझे नहीं मिला। हां, उनका वह तल्‍ख पत्र चकमक के 100 वें अंक में प्रकाशित हुआ था। बाद में वे बालसाहित्‍य पर अपने शोध के सिलसिले में भोपाल आए तो मुझसे मिले। लखनऊ में नालंदा संस्‍था द्वारा आयोजित दो कार्यशालाओं में उनसे मुलाकात हुई। निश्चित ही हम दोनों को एक-दूसरे को निकट से जानने का मौका मिला। बालसाहित्‍य तथा ब्‍लाग जगत में किए जा रहे उनके काम से आज हर कोई परिचित है। निश्चित ही वे महत्‍वपूर्ण काम कर रहे हैं।
वे आजकल लखनऊ से प्रकाशित हो रहे जनसंदेश टाइम्‍स के लिए ब्‍लागों पर एक साप्‍ताहिक  कालम लिख रहे है। गत 17 अगस्‍त को उन्‍होंने मेरे ब्‍लाग गुल्‍लक पर भी लिखा है। मुझे खुशी है कि  उन्‍होंने मेरे सम्‍पादकीय दायित्‍व को न केवल समझा है वरन् उसे यहां रेखांकित भी किया है।  हो सकता है आपने पढ़ लिया हो, न पढ़ा हो तो नीचे दी लिंक पर या सीधे यहीं पढ़ सकते हैं-

क्‍या यह बात सिर्फ नज़रिए भर की है कि गिलास आधा भरा हुआ है अथवा आधा खाली? अगर उस पानी को उपयोग करने की जरूरत पड़ जाए, तब तो हमें न चाहते हुए भी यह कहना ही पड़ेगा कि यह आधा गिलास पानी है। अर्थात यदि किसी पौधे को समुचित रूप से विकसित होने के लिए प्रतिदिन एक गिलास पानी की आवश्‍यकता है और उसे सिर्फ आधा गिलास ही मिल रहा है, तो इतना तय है कि इससे उसकी वृद्धि पर असर तो पड़ेगा ही। अब यह अलग बात है कि भले ही पौधा उसे अपनी नियति मान कर संतुष्‍ट हो जाए कि उसकी किस्‍मत में इतना ही पानी था, पर यदि उसे भरपूर पानी मिला होता, तो शायद उसका स्‍वरूप कुछ और ही होता। व्‍यक्तित्‍व के रहस्‍यों को समझने का दावा करने वाले जानकार यह बताते हैं कि ऐसा ही मनुष्‍य के साथ भी होता है।

अक्‍सर लोग कहते पाए जाते हैं कि इस देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं है। लेकिन बावजूद इसके गली-गली में‍ बिखरी तमाम प्रतिभाएँ समय की गर्द के नीचे दबकर कहाँ गुम हो जाती हैं, पता ही नहीं चलता। इस सबके पीछे जो एक मुख्‍य वजह है, वह यह है कि जिस प्रकार खान से मिले हीरे के टुकड़े में चमक लाने के लिए शान लगाने की जरूरत होती है, वैसी ही जरूरत किसी प्रतिभा को निखारने के लिए भी हुआ करती है। पर प्राय: ऐसी दो प्रतिभाओं का एक साथ मिलन कम ही हो पाता है और नतीजतन संसार के समक्ष वह सब आने से रह जाता है, जोकि बहुत महत्‍वपूर्ण और सार्थक हो सकता था। और कुछ-कुछ इन्‍हीं हालातों की उपज लगते हैं गुल्‍लक (http://utsahi.blogspot.com) ब्‍लॉग के संचालक राजेश उत्‍साही।

राजेश की मुख्‍य पहचान चकमक के संपादक के रूप में रही है। चकमक एक बाल पत्रिका है, जो स्‍वयंसेवी संगठन एकलव्‍य द्वारा प्रकाशित होती है। एकलव्‍य के देश में शिक्षा के विकास के लिए अतुलनीय कार्य किया है। सिर्फ चकमक ही नहीं वहाँ से तमाम उपयोगी पुस्‍तकें और प्रकाशित होती रही हैं। वह विज्ञान एवं टेक्‍लानॉजी के लिए विख्‍यात फीचर सर्विस स्रोत और शैक्षणिक विकास के लिए प्रकाशित होने वाली द्वैमासिक पत्रिका शैक्षणिक संदर्भ के लिए भी जाना जाता है। राजेश इन सबसे जुड़े रहे हैं। इसके अलावा वे दिशा नामक सायक्‍लोस्‍टाइल पत्रिका और विज्ञान विज्ञान बुलेटिन से भी सम्‍बद्ध रहे हैं। यही कारण है कि वे मुख्‍य रूप से एक कुशल एवं योग्‍य सम्‍पादक के रूप में जाने जाते हैं।

लेकिन राजेश सिर्फ सम्‍पादक भर नहीं हैं। उनका ब्‍लॉग गवाह है कि वे कुशल एवं प्रभावशाली रचनाकार भी हैं। अपनी बात को कहने की उनकी कला ऐसी है कि जो बड़े-बड़े रचनाकारों के लिए ईर्ष्‍या का विषय हो सकती है। उनके विचार बेहद सुलझे एवं सुव्‍यवस्थित होते हैं और उनकी भाषा की रवानी मुग्‍ध करने की हद के आर-पार जाती सी प्रतीत होती है। इन सबके साथ ही साथ संवेदनाओं का सागर भी है उनके पास, जिसे वे अपनी लेखनी में बड़ी सहजता से उड़ेल देते हैं। अगर हम विधाओं की बात करें, तो वे पोस्‍टर कविताओं के मास्‍टर हैं। उन्‍होंने रूम टू रीड के साथ मिलकर इस दिशा में उल्‍लेखनीय कार्य किए हैं। उन्‍होंने कुछ उल्‍लेखनीय कविताएँ भी लिखी हैं। बाल साहित्‍य से उनका जुड़ाव प्रारम्‍भ से ही रहा है। और यह सब उनके ब्‍लॉग पर देखा जा सकता है।

टीचर्स आफ इंडिया  (पोर्टल) में हिन्‍दी सम्‍पादक के रूप में कार्य करने वाले राजेश दर्जनों पुस्‍तकों के सम्‍पादन एवं कार्यशालाओं से जुड़े रहे हैं। वे भगत सिंह की क्रान्तिकारी विचारधारा के प्रशंसक हैं और रूढि़वाद के सख्‍त आलोचक भी हैं। वे इस आलोचना को सिर्फ विचारों तक सीमित नहीं करते, उसे व्‍यवहारिकता में भी उतारने का प्रयत्‍न करते हैं। यही कारण है कि चाहे पैर छूने की परम्‍परा हो अथवा तेरहीं की, वे बिना समाज की परवाह किए, उसके तार्किक स्‍वरूप को अपनाने का साहस जुटा पाते हैं।

लेकिन इसके साथ ही साथ वे सख्‍त हेडमास्‍टर की छवि के मालिक भी हैं। यही कारण है कि अपने निश्‍चय पर दृढ़ता से जमे रहना उनके व्‍यक्तित्‍व का प्रमुख अंग है। सम्‍भवत: यही वजह है कि वे अक्‍सर लोगों को आत्‍ममुग्‍धता के कोहरे से घिरे विशाल पर्वत की तरह नजर आते हैं। लेकिन इससे न तो उनके व्‍यक्तित्‍व की चमक फीकी पड़ती है और न ही उनकी लेखनी की दमक। और हाँ, यदि आप सीधे-सपाट लफ्जों में अपनी बात कहने वाले लोगों को पसंद करते हैं, तो फिर यहाँ पर गुल्‍लक के लिए सोने पर सुहागा वाली कहावत भी लागू हो सकती है। 
(जाकिर अली ‘रजनीश’ ने जनसंदेश टाइम्‍स में अपने कालम ब्‍लागवाणी में लिखा)                                                                          0 राजेश उत्‍साही 

11 comments:

  1. वाह ……………हार्दिक बधाई।

    ReplyDelete

  2. राजेश भाई !
    हम तो गुल्लक के पाठक बहुत समय से हैं और आपकी साफगोई , ईमानदारी के फैन हैं !

    जाकिर अली रजनीश से मिलने का सौभाग्य कुछ समय पहले दिल्ली में मिला था ! वे मुझे अंतर्मुखी मगर ईमानदार लगे औरों से अलग ....

    शुभकामनायें आप दोनों को ! हिंदी ब्लॉग जगत को आप जैसे लोगों की बहुत आवश्यकता है !

    सादर !

    ReplyDelete
  3. jakir ji kee ek khaas pahchaan hai, aur unki kalam chuninda logon par chalti hai... aapko badhaai aur unhen bhi

    ReplyDelete
  4. यह पोस्ट वहाँ भी पढ़ आये हैं, पूर्ण परिचय जानकर अच्छा लगा।

    ReplyDelete
  5. हमने तो हमेशा हसरत से पढ़ी चकमक, छपने की तो कभी सोच भी न सके. हां मेरे पुत्र की एक रचना, वह 6-7 साल का रहा होगा, तब छपी थी, बस भेजने का जिम्‍मा मेरा था.

    ReplyDelete
  6. १९९२ में मैंने भी अपनी कुछ कवितायेँ हिंदी की शीर्ष लघु पत्रिका पहल को भेजी. जिसे ज्ञानरंजन जी ने वापस कर दिया था. मैंने भी उन्हें तल्ख़ चिट्ठी लिखी थी और उदहारणस्वरुप १९९२ के अक्तूबर अंक में हंस में पुरुषोत्तम अग्रवाल की जो कविता प्रकाशित हुई थी वही कविता पहल के अक्तूबर-दिसंबर १९९२ में छपी थी, का हवाला दिया था. फिर ज्ञानरंजन जी का कोई पांच पेज का पत्र आया और वह पत्र किसी समपादक की जिम्मेदारी पर साहित्यिक आलेख से कम ना था. उस पत्र ने मेरे मन में ज्ञानरंजन को स्थापित कर दिया . उस दिन से छपने का मन नहीं हुआ अब तक. हाँ हंस और कुछ अन्य लघु पत्रिकों में छपा सो बात अलग है. राजेश उत्साही जी एक अच्छे संपादक हैं, रचनाधर्मिता के प्रति जिम्मेदारी का निर्वाह ईमानदारी से करते हैं. ब्लॉग पर उनकी टिप्पणी का अर्थ रचना का स्तरीय होने का प्रमाण होता है... हाँ.. मैं तो हमेशा ही राजेश जी का इंतजार करता हूँ..किन्तु उनकी टिप्पणी बहुत मुश्किल से मिलती है... चकमक पढ़ कर बड़ा हुआ हूं...अच्छा लगता है चकमक के बारे में सुनकर ....

    ReplyDelete
  7. Pratibhashali log bahut adhik samay tak gumnam nahi rah sakte hai ek n ek din unke yogdaan ko sabhi sarahte hai..
    aapki lekhni nirantar yun hi abaadh gati se badhti rahen yahi hamari shubhkamna hai..

    ReplyDelete
  8. अरे, यह पोस्‍ट तो मेरी नजर से छूट ही गयी।

    'चकमक' की याद दिलाने का शुक्रिया। सचमुच वह मेरे लिए आज भी अबूझ ही है। 100 से 300 अंक तक पहुंच चुका है यह कारवां, पर अब भी स्थिति वही है। एक अबूझ पहेली की तरह...

    ------
    कब तक ढ़ोना है मम्‍मी, यह बस्‍ते का भार?
    आओ लल्‍लू, आओ पलल्‍लू, सुनलो नई कहानी।

    ReplyDelete
  9. bhatakte-bhatkte kuch badiya blogs ko padhne ke baad ek bahut hi shandar blog padne ko mila..dhanyavaad..

    ReplyDelete

जनाब गुल्‍लक में कुछ शब्‍द डालते जाइए.. आपको और मिलेंगे...