Saturday, May 7, 2011

96...व्‍यथित 'अन्‍तर्मन '


डॉ. वेद ‘व्‍यथित’ जी से मेरा पहला परिचय साखी ब्‍लाग पर हुआ था। वहां उनकी कविताएं प्रकाशित हुईं थीं। आदतन मैंने अपनी टिप्‍पणी की थी। मुझे याद है मैंने लिखा था ,वेद जी अपनी कविताओं में आत्‍मालाप करते नजर आते हैं। टिप्‍पणी थोड़ी तल्‍ख थी, पर उन्‍होंने मेरी बात को बहुत सहजता से लिया था। मैं उनका तभी से मुरीद हो गया।

पिछले दिनों मैंने गुल्‍लक में सुधा भार्गव जी पर एक टिप्‍पणी लिखी थी और उनकी कविताओं की किताब का जिक्र करते हुए कुछ कविताएं भी दी थीं। संयोग से सुधा जी और वेद जी एक-दूसरे से पहले से परिचित थे, पिछले दिनों दिल्‍ली में उनकी मुलाकात हुई तो मेरी चर्चा भी निकल आई। वेद जी ने अपनी हाल ही में प्रकाशित कविताओं का संग्रह अर्न्‍तमन मुझे कूरियर से भेजा और आग्रह किया कि मैं अपनी प्रतिक्रिया दूं।

संग्रह के पहले पन्‍ने पर उन्‍होंने लिखा है, ‘सहृदय,सजग साहित्‍यकार,समर्थ समीक्षक,बेबाक आलोचक व मेरे अभिन्‍न मित्र राजेश उत्‍साही को सादर भेंट।’ जब आपको ऐसे विशेषणों से नवाजा जाता है तो आप अचानक ही सजग हो उठते हैं, आपको उन पर खरा उतरने की कोशिश भी करना पड़ती है।

ईमानदारी से कहूं तो वेद जी के संग्रह की कविताएं पढ़ते हुए मैंने यह कोशिश की है। संग्रह में छोटी-बड़ी कुल मिलाकर 80 कविताएं हैं। वेद जी ने संग्रह की भूमिका में लिखा है कि, ‘ये कविताएं स्‍त्री-विमर्श पर हैं। लेकिन मैंने चलताऊ स्‍त्री विमर्श के नारे को इनमें कतई नहीं ढोया है। स्‍त्री विमर्श शब्‍द आते ही लगने लगता है – शोषित,अबला,सताई हुई,बेचारी दबी कुचली स्‍त्री या हर तरह से हारी हुई या जिस तरह साहित्‍यकारों ने उसे इससे भी ज्‍यादा नीचे दिखाया जाना ही स्‍त्री विमर्श माना है,परन्‍तु मेरा ऐसा मानना नहीं है। ऐसा कहना स्‍त्री के प्रति एक प्रकार का अन्‍य है।'

ज्‍यादातर कविताओं में वेद जी अपनी बात पर अडिग नजर आते हैं। पर आत्‍मालाप वाली बात मुझे यहां भी नजर आती है। वे अपनी अधिकांश कविताओं में स्‍त्री से बतियाते नजर आते हैं। पर उनका बतियाना इतना सहज है कि उसमें कोई आडम्‍बर या लिजलिजापन नजर नहीं आता । आइए कुछ उदाहरण देखें-
तो क्‍या
मैं यह मानूं
कि जो मैंने सुना है
वह ही कहा है तुमने
यदि हां तो
बस उसकी स्‍वीकृति में
मात्र हां भर दो
(स्‍वीकृति)
कवि स्‍त्री के प्रति इतना प्रतिबद्ध है कि वह ना सुनने के लिए भी तैयार है बिना किसी शिकायत के। वह आशावान है-
अस्‍वीकृति भले हो भी
तो भी मुझे विश्‍वास है
कि वह अस्‍वीकृति हो ही नहीं सकती
क्‍योंकि कठोर नहीं है
तुम्‍हारा हृदय
(विश्‍वास)
स्‍त्री का यह रूप वेद जी को केवल स्‍त्री में नहीं प्रकृति में भी दिखाई देता है-
मिट्टी के नीचे
कितने भी गहरे
चले जाएं बेशक बीज
तो भी नष्‍ट नहीं होते हैं वे
धरती मां अपनी गोद में
दुलारती रहती है उन्‍हें
(प्‍यार व दुलार)
पुरुष होने के नाते कहीं-कहीं वे अपराध बोध से भर उठते हैं। लेकिन वे इसे स्‍वीकारने में हिचकिचाते नहीं हैं-
और मैं अपने अहम् को
बचाए रखने के लिए
कभी बना तुम्‍हारा देवता
कभी स्‍वामी और
कभी परमेश्‍वर
(तुम्‍हारे प्रश्‍न)
कितने अपराधबोध ने
ग्रस लिया था मुझे
जब तुम्‍हारी निरीहता को
अपना अधिकार मान लिया था मैंने  
(पुरुषत्‍व)

वेद जी स्‍त्री के जितने आयाम हो सकते हैं उन सबकी बात करते हैं। इससे यह भी पता चलता है कि उनकी दृष्टि कितने सूक्ष्‍म अवलोकन कर सकती है। ऐसे अवलोकन करने के लिए धीरज तो चाहिए होता है, धीरज ऐसा जो किसी स्‍त्री के धीरज की तुलना में ठहर सके। ऐसा मन भी चाहिए जो स्‍त्री के मन की थाह पाने की न केवल हिम्‍मत रखता हो बल्कि जुर्रत भी कर सके। वेद जी इन कसौटियों पर खरे उतरते हैं । अपनी कविताओं में वे स्‍त्री की नेहशीलता,स्‍त्री की हंसी, उसके हृदय, उसकी क्षमाशीलता, उसकी सहनशीलता, उसकी नियति, उसके समर्पण, उसके मौन, उसके विश्‍वास, उसके संघर्ष, उसकी शक्ति, उसकी तपस्‍या, उसके धीरज, उसके सम्‍पूर्ण व्‍यक्तित्‍व और अस्तित्‍व की बात करते हैं।

कविताएं सहज भाषा में हैं, उन्‍हें पढ़ते हुए अर्थ समझने के लिए शब्‍दों में उलझना नहीं पड़ता है। बिम्‍बों का वेद जी ने भरपूर उपयोग किया है, पर वे भी गूढ़ या अमूर्तता की हद तक नहीं हैं। इन कविताओं को पढ़ना सागर की गहराई में उतरने जैसा है। गहराई में जाने पर आपको ढेर सारे मोती नजर आते हैं। इन मोतियों की चमक से आपकी आंखें चौंधिया जाती हैं। आप तय नहीं कर पाते हैं कि कौन-सा मोती उठाएं। क्‍योंकि सभी एक से बढ़कर एक हैं। इस संग्रह की हर कविता अपने आप में एक मोती है, लेकिन इन्‍हें एक साथ देखकर इनकी चमक आपस में इतनी गड्ड-मड्ड हो जाती है कि आप किसी एक को भी अपनी स्‍मृति में नहीं रख पाते। बहरहाल वेद जी ‘अन्‍तर्मन’ में तो बस ही जाते हैं।
वे कहते हैं-
मुझे सुनने में क्‍या आपत्ति है
तुम सुनाओ
मुझे देखने में क्‍या आपत्ति है
तुम दिखाओ
परन्‍तु जरूरी है
इसे देखने,सुनने और बोलने में
मर्यादा बनी रहे
हम दोनों के बीच
(मर्यादा)   
0 राजेश उत्‍साही  
पुनश्‍च: भाई सतीश सक्‍सेना ने याद दिलाया कि व्‍यथित जी का ब्‍लाग भी है,शुक्रिया। यह रही उसकी लिंक  http://sahityasrajakved.blogspot.com 

14 comments:

  1. व्यथित अंतर्मन शीर्षक पसंद आया भाई जी !
    वेद व्यथित को जब जब मैं पढ़ पाया हूँ , वे अपना स्पष्ट प्रभाव छोड़ते हैं !

    ब्लोगरों के मध्य एक साहित्यकार की भूमिका से न्याय कर पाना आसान नहीं पर मुझे लगता है वेद व्यथित आसानी और सहजता से यह रोल निभा रहे हैं ! अच्छा लगा कि आप उनकी समीक्षा लिख रहे हैं और वे इसके योग्य भी हैं !

    आप शायद उनका लिंक देना भूल गए हैं ! शुभकामनायें आपको !

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  2. वेद व्यथित जी की कवितायें पढ़ना बहुत अच्छा लगता है।

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  3. गुरुदेव..वेड व्यथित जी की समीक्षा के साथ आपने साखी के दिन याद दिला दिए जब सर्वत भाई से उलझ गया था मैं.. व्यथित साहब ने तो तभी से मुझे भी व्यथित कर रखा था, आज पुनः!!

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  4. आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
    प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
    कल (9-5-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
    देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
    अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।

    http://charchamanch.blogspot.com/

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  5. सम्पूर्ण समीक्षा को बड़े ही गौर से दो बार पढ़ा तो पाया कि राजेश जी ने जिस तरीक़े से वेद जी के इस संग्रह के अंतर्मन तक जाकर मर्म को मथकर नवनीतसम सम्मुख रख दिया है. इससे बेहतर समीक्षा और हो नहीं सकती. ठेठ मर्म को पकड़ा है बिना किसी लार-लगाव के. ईमानदार से कहूं तो राजेश जी ने अपना समीक्षक और आलोचनात्मक पक्ष बड़े ही सहज, सटीक, निष्पक्ष और जिम्मेदारीपूर्ण भाव से निर्वहन किया है.
    वैसे तो वेद जी के नवगीत आदि पढ़ना हमेशा ही सुखद रहता है पर ये समीक्षा पढ़कर सम्पूर्ण संग्रह पढ़ने की तीव्र इच्छा जागृत हुई.
    डॉ. वेद व्यथित जी को इस संग्रह के लिए कोटि-कोटि बधाइयाँ.
    सम्मानीय राजेश जी से एक निवेदन करना चाहूँगा कि अगर साथ में प्रकाशक का नाम और मूल्यादि भी दर्शादें तो पाठकों को ये संग्रह मंगवाने में सुविधा रहेगी..
    राजेश जी का पुनः आभार ! नमन !

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  6. कविताएं पढ़वाने और एक अच्‍छे ब्‍लॉग का लिंक देने के लिए आभार.

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  7. उत्साही जी ,वेद जी की कविताएं तो उत्कृष्ट हैं ही पर आपकी समीक्षा ने उन्हें और भी विशिष्ट बना दिया है ।

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  8. @ नरेन्‍द्र जी आपकी बात तो सही है,पर इस मामले में मैं जरा अलग राय का हूं। यहां मैंने उनकी किताब की चर्चा इस उद्देश्‍य से नहीं की है। जो लोग उनका यह संग्रह पढ़ना चाहते हैं, उनसे अनुरोध है कि कृपया वेदजी के ब्‍लाग पर जाकर उनसे इस बारे में उपयुक्‍त जानकारी प्राप्‍त कर लें।

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  9. "मुझे सुनने में क्‍या आपत्ति है
    तुम सुनाओ
    मुझे देखने में क्‍या आपत्ति है
    तुम दिखाओ
    परन्‍तु जरूरी है
    इसे देखने,सुनने और बोलने में
    मर्यादा बनी रहे
    हम दोनों के बीच"
    व्‍यथित जी की रचनाओं से, सुंदर अभिव्यक्ति से रुबरु कराने के लिये आभार ।
    सहृदय, सजग साहित्‍यकार, समर्थ समीक्षक, बेबाक आलोचक के विशेषण भी बिल्कुल सटीक हैं आपके लिये । व्‍यथितजी से सहमत हूं ।

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  10. पढ़ेंगे साहब अब वेदजी को। आपने जिस भी उद्देश्य से उस पुस्तक की चर्चा की, हमें एक खास शख्सियत का अप्रिचय मिला, धन्यवाद।

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  11. कवि और उनकी रचनाओं से परिचय करवाने का आभार
    अच्छी लगी कविताएँ

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  12. सबसे पहले डॉ. वेद ‘व्‍यथित’ जी से परिचय और उनके कविता संग्रह 'अन्‍तर्मन 'की समीक्षा के लिए आपका आभार.. डॉ. वेद ‘व्‍यथित’ जी जी ने जो आपको प्रति भेंट करते हुए पहले पन्‍ने पर उन्‍होंने लिखा है, ‘सहृदय,सजग साहित्‍यकार,समर्थ समीक्षक,बेबाक आलोचक व मेरे अभिन्‍न मित्र राजेश उत्‍साही को सादर भेंट।’ ...एकदम सटीक है . ...आप जैसे सह्रदय लोगों का मिलना आजकल बहुत मुश्किल है......
    प्रस्तुति हेतु आभार

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  13. बहुत अच्छी प्रस्तुति।

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जनाब गुल्‍लक में कुछ शब्‍द डालते जाइए.. आपको और मिलेंगे...