कुछ वर्षों पहले राजश्री प्रोडक्शन की एक फिल्म आई थी 'हम साथ-साथ हैं।' इसमें एक गीत है ‘ये तो सच है कि भगवान है, है मगर फिर भी अनजान हैं, धरती पर रूप मां-बाप का उस विधाता की पहचान है’ यह गीत जब भी कानों में उतरता है मेरी आंखों से खारा समुद्र बहने को हो आता है। आप कहेंगे मैं बहुत भावुक हूं। सच है,पर इतना भी नहीं कि हर वक्त नमकीन पानी पीता रहूं। सच तो यह है कि मैं जिन्दगी में बहुत कम बार रोया हूं। मेरा खारापन बहुत मुश्किल से निकलता है। पर पता नहीं इस गीत में क्या खूबी है कि यह मेरी आंखों में ज्वार ला देता है। शायद एक तो इसमें मां-बाप की तस्वीर इस तरह खींची गई है कि अतिश्योक्ति प्रतीत होते हुए भी वह हकीकत लगती है। दूसरे संगीतकार राम-लक्ष्मण की कंपोजिंग ऐसी है कि सीधे दिल में जाती है। हरिहरन और उनके साथियों ने भी इसे ऐसे भक्ति भाव से गाया है कि मन सम्मोहित हो जाता है। वे शब्द भी बहुत महत्वपूर्ण हैं जिन्हें रवीन्द्र रावल ने चुनकर जमाया है।
Sunday, July 26, 2009
Sunday, July 19, 2009
किस्से आलू,मिर्ची,चाय जी के
जून के तपते दिनों में जयपुर में था। वहां दो लगातार दिन दिगन्तर और संधान संस्थाओं में जाना हुआ। दोनों ही संस्था एं शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रही हैं। दिगन्तर में शिक्षकों की एक कार्यशाला चल रही थी। उसमें लगभग 30 शिक्षक भाग ले रहे थे। अपना परिचय देने के क्रम में मैंने पूछा कि कितने शिक्षकों ने आलू,मिर्ची,चाय जी गीत गाया है। 15 ऐसे शिक्षक थे जो इस गीत को गाते रहे हैं। हालांकि वे यह नहीं जानते थे कि इसका लेखक कौन है। फिर भी मुझे इस बात की खुशी थी कि मेरा लिखा गीत यहां गाया जा रहा है।
Monday, July 6, 2009
दिन बचपन के
बचपन के दिन कुछ इस तरह याद आएं
कहीं से टूटे खिलौने जैसे बच्चे ढूंढ लाएं
रेल के खेल की कूकू, खेलना पहाड़-पानी
कभी गिल्ली-डंडा, कभी बेबात शर्त लगाएं
खेल वो आती-पाती, मिट्टी का घर-घूला
बरसती धूप में ,जब तब अंटियां चटकाएं
दादी की कहानी, सरासर गप्प नानी की
जब बाबूजी डांट दें,तो गा लोरी मां सुलाएं
सर्द हवा के मौसम को, बांधकर मफलर से
सूरज की तलाश में, दिन भर दांत बजाएं
गड़गड़ाहट बादलों की,कागज़ की कश्तियां
राह चलते पानी में बेमतलब पैर छपछपाएं
बेबात पेड़ों पर चढ़ना, वो कूदना डालियों पर
फूट जाएं कभी घुटने, तो कभी दांत तोड़ लाएं
नीम की मीठी निबोली,सावन के वो झूले
पेंग लें ऊंची गुईंयां, जम के हम झुलाएं
घुटना टेक ही सही, या खड़े रहें बेंच पर
पन्ने फाड़कर कापी से, हवाई जहाज बनाएं
वो छुप-छुप के देखना, निहारना उसको
रहना मोड़ पर,निकल के जब स्कूल जाएं
काश अगर हो कहीं बैंक अपने बचपन का
चलो उत्साही कुछ और लम्हे निकाल लाएं
*राजेश उत्साही
कहीं से टूटे खिलौने जैसे बच्चे ढूंढ लाएं
रेल के खेल की कूकू, खेलना पहाड़-पानी
कभी गिल्ली-डंडा, कभी बेबात शर्त लगाएं
खेल वो आती-पाती, मिट्टी का घर-घूला
बरसती धूप में ,जब तब अंटियां चटकाएं
दादी की कहानी, सरासर गप्प नानी की
जब बाबूजी डांट दें,तो गा लोरी मां सुलाएं
सर्द हवा के मौसम को, बांधकर मफलर से
सूरज की तलाश में, दिन भर दांत बजाएं
गड़गड़ाहट बादलों की,कागज़ की कश्तियां
राह चलते पानी में बेमतलब पैर छपछपाएं
बेबात पेड़ों पर चढ़ना, वो कूदना डालियों पर
फूट जाएं कभी घुटने, तो कभी दांत तोड़ लाएं
नीम की मीठी निबोली,सावन के वो झूले
पेंग लें ऊंची गुईंयां, जम के हम झुलाएं
घुटना टेक ही सही, या खड़े रहें बेंच पर
पन्ने फाड़कर कापी से, हवाई जहाज बनाएं
वो छुप-छुप के देखना, निहारना उसको
रहना मोड़ पर,निकल के जब स्कूल जाएं
काश अगर हो कहीं बैंक अपने बचपन का
चलो उत्साही कुछ और लम्हे निकाल लाएं
*राजेश उत्साही
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